प्रस्तावना
बुढ़िया का चश्मा भारतीय राजनीति तथा भारत में फैले भ्रष्टाचार पर एक करारा व्यंग्य है। स्वतंत्रता प्राप्ति के बाद लोगों की आकांक्षाएं जिस प्रकार बढ़ी हैं, संवेदनाएं भी उतनी ही तेजी से मरी हैं। लोग गांधी का नाम लेकर अपना उल्लू सीधा करने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते। धर्म के नाम पर पापाचार का बोलबाला हो गया। शिक्षा के नाम पर दुकानें खुल गईं और न्यायालयों में मुकदमों के ढेर लग गये। भारत का आम आदमी आजादी के बाद स्वयं को ठगा सा महसूस करता है। साक्ष्यों के अपराध में बड़े-बड़े अपराधी छूट रहे हैं और आम आदमी न्याय के लिये दर-दर भटक रहा है।
अपराधियों के हौंसले इस कदर बढ़े हुए हैं कि पशुओं की चर्बी को घी में मिलाकर बेचा जा रह है। लोगों की किडनियां निकालकर बेची जा रही हैं। लाखों की संख्या में कन्या भू्रण हत्याएं हुई हैं। आधुनिकता के नाम पर अमीरों में पब और मॉल संस्कृति पनप गई है तो गरीब जनता को दो समय का चूल्हा जलाना भी कठिन है।
देश की जनता के मन में यह सवाल रह-रहकर उठना स्वाभाविक है कि क्या यही आजादी है? क्या इसी आजादी की प्राप्ति के लिये लाखों लोगों ने लाठी, गोली, जेल और मौत की यातनाएं झेलीं? इस नाटक में बुढ़िया दो भूमिकाओं में है। एक ओर वह अपने ही पुत्रों द्वारा छली गई भारत माता का प्रतीक है तो दूसरी ओर भ्रष्टाचार और निर्धनता के जबड़े में पिस रही आम जनता के रूप में भी है।
विरोध का स्वर मुखर करने वालों को विद्रोही समझा जाता है। इससे बड़ी विदू्रपता और क्या होगी कि गांधी के नाम पर लोगों को ठगने वाले दिन रात तरक्की कर रहे हैं और उन ठगों का विरोध करने वाले गांधी के दुश्मन ठहरा दिये जाते हैं।
यह लघु नाटिका इक्कसवीं सदी में प्रवेश कर चुके भारत की वास्तविक तस्वीर है जो किसी भी संवेदनशील व्यक्ति को भीतर तक झकझोर देने के लिये पर्याप्त है।
इस कुहासे के बीच आशा की एक किरण शेष है। वह है इस देश का शिक्षक। यदि शिक्षक चाहे तो इस देश को फिर से उसी ऊँचाई पर ले जा सकता है जिस ऊँचाई के लिये यह देश सदियों से विख्यात है। रामबाबू उसी शिक्षक की भूमिका में हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता, 63, सरदार क्लब योजना, वायुसेना क्षेत्र, जोधपुर
पात्र परिचय
बुढ़िया, रामबाबू, कन्हैया, ढोंगी बाबा, अन्य पात्र।
समय
अभी सुबह के दस नहीं बजे हैं।
स्थान
बीच बाजार से गुजरने वाली सड़क।
मंच सज्जा
परदा उठता है। मंच पर पूरी तरह उजाला है। सड़क पर कुछ लोग आ-जा रहे हैं। हर कोई अपने काम-धंधे पर जाने की शीघ्रता में है। मंच पर एक ओर पान की छोटी सी थड़ी है जिस पर बैठा कन्हैया पान लगा रहा है। थड़ी पर जल रही धूपबत्तियों से धुंआ उठ रहा है। पास रखे टेपरिकॉर्डर से गीत बज रहा है- तेरे द्वार खड़ा भगवान भगत भर दे रे झोली।
मंच पर एक तरफ एक बुढ़िया बैठी हुई है। उसके कपड़े फटे हुए हैं और हाथ में भीख मांगने का कटोरा है। कुछ लोग पान की थड़ी पर पान खाने रुकते हैं और कुछ लोग बुढ़िया पर सरसरी दृष्टि डालकर आगे बढ़ जाते हैं। बुढ़िया की आँखों पर चश्मा लगा हुआ है। वह बार-बार चश्मा ठीक करके आते-जाते लोगों को देखती है।
बुढ़िया का चश्मा
रामबाबू तेजी से कदम बढ़ाते हुए मंच पर प्रवेश करते हैं। उन्होंने सफेद पैण्ट-शर्ट पहन रखी है। शर्ट की जेब में दो पैन रखे हुए हैं तथा आँखों पर मोटा सा चश्मा लगा है। रामबाबू पान की थड़ी के पास खड़े लोगों पर उड़ती हुई दृष्टि डालते हैं और सधे हुए कदमों से चलते हुए बुढ़िया के सामने से होकर आगे निकल जाते हैं। बुढ़िया अपने हाथ का कटोरा ऊँचा करके उन्हें आवाज लगाती है। जब बुढ़िया आवाज लगाती है तो कन्हैया टेपरिकॉर्डर बंद कर देता है।
बुढ़िया : बाबूजी, ओ ऽ ऽ ऽ बाबूजी! बच कर कहाँ जा रहे हैं ? इस बुढ़िया को कुछ देते जाइये।
रामबाबू : (झुंझलाकर पीछे की ओर मुड़ते हैं) ओफ्फओह! क्या मुसीबत है। जाने क्यों तू इतने सारे लोगों को छोड़कर केवल मुझी से पैसे मांगती है! यहाँ सड़क पर इतने सारे लोग आते-जाते हैं, किसी और से भी तो कुछ मांगा कर। जो लोग यहाँ पान खाने रुकते हैं, उन्हीं से कुछ मांग लिया कर। जब देखो तब (मुँह बिगाड़कर) बाबूजी, ओ ऽ ऽ ऽ बाबूजी! इस बुढ़िया को कुछ देते जाइये।
बुढ़िया : (हैरान होकर) कमाल करता है बेटा, तुझसे नहीं मांगूं तो और किससे मांगूं ?
रामबाबू : पहले तो तू सबसे पैसे मांगती थी!
बुढ़िया : हाँ मांगती थी किंतु अब केवल तुझसे ही मांगती हूँ और आगे भी तुझसे ही मांगूंगी।
रामबाबू : (खीझकर) मुझसे ही क्यों, क्या मैं तुझे करोड़पति दिखाई देता हूँ ?
बुढ़िया : (स्नेह से) करोड़पतियों के रुपये नहीं चाहिये रे, मुझे तो केवल तेरे रुपये चाहिये।
रामबाबू : (रुष्ट होकर) केवल मेरे रुपये चाहिये ! क्यों ? तू मेरे ही रुपयों की दुश्मन क्यों है ? क्या मेरे रुपये हराम के हैं ?
बुढ़िया : तेरे रुपये हराम के क्यों होंगे बेटा, तू ही तो एक इन्सान है जो इस सड़क से होकर निकलता है।
रामबाबू : तो क्या इस सड़क पर मैं अकेला ही इंसान हूँ ? बाकी के सब लोग क्या जानवर हैं ?
बुढ़िया : (हैरान होकर) बाकी के सब लोग ?
रामबाबू : (और भी अधिक हैरानी से) क्यों क्या हुआ ? यहाँ आदमी दिखाई नहीं दे रहे तुझे ?
बुढ़िया : होना क्या है, बात क्यों बढ़ाता है, मुझे कुछ पैसे दे और अपना रास्ता नाप।
रामबाबू : (स्वगत) बुढ़िया कुछ रहस्यमयी लगती है। (प्रकट में) मैंने क्या बात बढ़ाई तुझसे ?
बुढ़िया : (रुष्ट होकर) मैंने कहा ना, बात मत बढ़ा, रहस्यों पर पर्दा पड़ा रहने दे, मुझे कुछ पैसे दे और आगे बढ़ जा।
रामबाबू : (चारों ओर देखकर) क्या बात है, कौनसे रहस्य की बात कर रही है तू ?
बुढ़िया : कोई रहस्य नहीं है बेटा, मेरा चश्मा, (आँखों पर से चश्मा उतार कर हाथ में ले लेती है) यह सारा चक्कर इसी का चलाया हुआ है।
रामबाबू : चश्मे का चक्कर चलाया हुआ है ! क्या चक्कर चलाया हुआ है इस चश्मे ने ? देखूं तो !
बुढ़िया : इंसान का दिमाग खराब हो जाता है इस चश्मे को लगाकर, इसलिये तू न ही देखे तो अच्छा। मैं ही इस चश्मे के चक्कर में पड़कर भुगत रही हूँ ……. भूखी मर रही हूँ।
रामबाबू : तेरी अटपटी बातें मेरी समझ में नहीं आतीं। दिखा तो अपना चश्मा।
बुढ़िया : यही तो ऽ ऽ ऽ……, यही तो डर था मुझे। मांग लिया ना तूने चश्मा ! अब देखना तेरा भी दिमाग खराब हो जायेगा।
रामबाबू : जल्दी कर मुझे देर हो रही है, यदि चश्मा नहीं दिखाया तो मैं तुझे पैसे दिया बिना ही यहाँ से चला जाउंगा।
बुढ़िया : देख बेटा! मैं तुझे इस चश्मे के बारे में बताना तो नहीं चाहती थी किंतु तूने ज़िद ही पकड़ ली है तो मुझे बताना पड़ेगा। (चश्मा रामबाबू को देती है) जिसने मुझे यह चश्मा दिया था, उसने कहा था कि इस चश्मे के बारे में किसी को मत बताना किंतु तू ज़िद करता है तो ले यह, लगा कर देख।
रामबाबू : (बुढ़िया से चश्मा लेकर आँखों पर रखते हैं और फिर पूरा जोर लगाकर चीख पड़ते हैं) यह मुझे क्या दिखाई दे रहा है ?
बुढ़िया : (नाराज होकर) मैंने मना किया था न तुझे, किंतु तू मानता कहाँ है ? अब भुगत।
रामबाबू : (चश्मा उतारकर चारों तरफ देखते हैं) वो सारे जानवर कहाँ गये?
बुढ़िया : (उत्सुकता से) कौन-कौन से जानवर देखे तूने ?
रामबाबू : (उत्तेजित स्वर में) मैंने उस चौराहे पर बहुत से घड़ियाल, मगरमच्छ और गैण्डे देखे जो शोर मचाते हुए भागे चले जा रहे थे। यहाँ ठीक मेरे पास से एक बंदर बहुत तेजी से साइकिल चलाता हुआ भागा। थोड़ी दूरी पर कुछ चिम्पैंजी कार चला रहे थे। उनमें से कई चिम्पैंजियों के कानों पर मोबाइल लगा हुआ था और वे तेजी से चौराहे पर मुड़ रहे थे। उन्हें इस बात की परवाह नहीं थी कि उनकी कार के नीचे आकर कोई कुचला जा सकता है। यहाँ पान की थड़ी पर कुछ भेड़िये, लक्कड़बग्घे और लोमड़े पान खा रहे थे। हे भगवान! (सिर पकड़ लेते हैं।) यह कैसा जादू है ! (बुढ़िया के पास धरती पर बैठ जाते हैं और हाथ जोड़कर गिड़गिड़ाते हैं) सच बता तू कौन है ?
बुढ़िया : मैं तो वही रोज वाली बुढ़िया हूँ बेटा जो केवल तुझसे पैसे मांगती हूँ। (शिकायत के स्वर में) तू भी तो मुझे रोज पैसे नहीं देता, आजकल मुझे भूखे ही सोना पड़ता है।
रामबाबू : (मुलायम स्वर में) मैं तुझे खूब सारे पैसे दूंगा। मेरी जेब में जितने पैसे हैं, सारे दे दूंगा। पहले बता तू कौन है ? कोई चमत्कारी साधवी है ? योगिनी है ? महान आत्मा है या बुढ़िया के वेश में कोई देवी है ? जादूगरनी है तू ?
बुढ़िया : पड़ गया न तू फालतू के सवालों में ! इसी से कहती थी बात मत बढ़ा, पैसे दे और आगे चल।
रामबाबू : (जेब से दो रुपये निकालकर बुढ़िया को देते हैं) ऐ माई बता ना, कौन है तू और तूने मुझे यह कौन सा चमत्कार दिखाया?
बुढ़िया : मैंने नहीं रे! जो कुछ दिखाया इस चश्मे ने दिखाया।
रामबाबू : चश्मे ने! (फिर से चश्मा आँखों पर रखते हैं और उत्तेजित होकर चीख पड़ते हैं) हाँ-हाँ मुझे फिर से कुछ भालू मोटर साइकिल चलाते हुए दिखाई दे रहे हैं जिन्होंने एक लोमड़े को टक्कर मारकर सड़क पर गिरा दिया है। सड़क पर गिरे लोमड़े के सिर से खून बह रहा है। जो भेड़िये और लक्कड़बग्घे यहाँ पान की थड़ी पर लोमड़े के साथ खड़े हुए पान खा रहे थे, वे उस घायल लोमड़े की सहायता करने की बजाय उस पर हँस रहे हैं।
बुढ़िया : (तेज आवाज में) उतार दे, उतार दे, यह चश्मा अपनी आँखों से उतार दे, नहीं तो पागल हो जायेगा।
रामबाबू : (चश्मा उतारकर) कहाँ से मिला तुझे यह चश्मा ?
बुढ़िया : (फुसफुसा कर) एक साधु बाबा ने दिया था।
रामबाबू : क्यों दिया था ?
बुढ़िया : अरे कुछ दिन पहले की बात है। मैं यहाँ बैठकर भीख मांग रही थी। मैंने एक सूट-बूट और चश्मा पहने हुए आदमी से पैसे मांगे तो उसने मुझे पैसे देने की बजाय कसकर लात मारी।
कन्हैया : (पान लगाना छोड़कर) पूरी बात बता माई। (पास खड़े आदमी को एक ओर हटाता है) ऐ ऽ ऽ ऽ………. साइड में हट।
बुढ़िया : तू बता दे ना, मुझे तो समझ में नहीं आया कि उसने क्या कहा ? अंग्रेजी में गिटर-पिटर कर रहा था।
कन्हैया : मास्टरजी ! उसने माई से कहा कि इण्डिया के हर सिटी में बैगर्स की क्यू लगी हुई है। इनके कारण देश कितना अगली दिखाई देता है। फोरेनर्स इनकी फोटो खींचते हैं, इनकी फिल्में उतारकर अपने देशों में दिखाते हैं जिससे इण्डिया डीफे़म होती है। इन्हें तो एक साथ हैंग कर देना चाहिये।
रामबाबू : (हैरानी से) आगे क्या हुआ ?
बुढ़िया : आगे क्या होना था, उसने मुझे कसकर लात मारी तो मैं गिर पड़ी और घबराकर जोर-जोर से रोने लगी।
रामबाबू : (सहानुभूति दिखाते हुए) वो आदमी था कि कसाई !
बुढ़िया : मैं तो उसे आदमी ही समझी थी किंतु वह तो गैण्डा था।
रामबाबू : (हैरान होकर) गैण्डा था ! तुझे कैसे पता चला!
बुढ़िया : जैसे ही मैं घबराकर चीखी, एक साधु महात्मा यहाँ से निकले। मुझे रोते हुए देखा तो उन्हें मुझ पर बड़ी दया आई। वे बोले चुप हो जा माई। गलती तेरी ही है। मैंने पूछा मेरी क्या गलती है ? मेरे दो हट्टे-कट्टे और खाते-पीते बेटे हैं जिन्होंने अपनी बहुओं के कहने पर मुझे घर से धक्के मारकर निकाल दिया। अब मैं भीख मांगकर गुजारा करती हूँ तो इसमें मेरी क्या गलती है ? (रुककर) मैं फिर से रोने लगी तो साधु बाबा ने मुझे यह चश्मा दिया और बोले, रो मत माई! यह चश्मा लगाकर देख, तुझे अपनी गलती समझ में आ जायेगी। मैंने यह चश्मा लगाकर देखा तो मुझे सूट-बूट पहनकर खड़े हुए आदमी के स्थान पर एक गैण्डा दिखाई दिया। साधु बाबा बोले, अब समझ में आया कि इसने तुझे लात क्यों मारी !
रामबाबू : क्या मतलब ?
कन्हैया : मतलब साफ है। वह आदमी की देह में गैण्डा था। उसकी चमड़ी बहुत मोटी थी। वह यह तो सोचता था कि भिखारियों के कारण देश बदसूरत दिखाई देता है किंतु यह नहीं सोचता था कि लोग आखिर भिखारी क्यों बनते हैं ? न यह सोचता था कि भिखारी भी इंसान हैं, उन्हें लात नहीं मारनी चाहिये।
बुढ़िया : उसी दिन मुझे मालूम हुआ कि उस आदमी की तरह बहुत से लोग दिखने में तो आदमी होते हैं किंतु वास्तव में वे आदमी नहीं होते, वे तो गैण्डे, भेड़िये, बंदर और चिम्पैंजी होते हैं। उनके भीतर दूसरों के लिये कोई संवदेना नहीं होती। इसलिये वे मुझे पैसे देने के स्थान पर गालियां देते हैं, कुछ लोग धक्का देते हैं और कुछ लोग तो लात भी मार देते हैं।
रामबाबू : (हैरानी से) अच्छा, ऐसा क्या ! (फिर से खड़े होकर चश्मा लगाते हैं) अरे ऽ ऽ ऽ …..। सच कह रही है तू (इधर-उधर देखकर) मुझे फिर से कोट पैण्ट पहने हुए बंदर, भालू चिम्पैंजी और गैण्डे दिखाई दे रहे हैं। कुछ घड़ियाल भी हैं। (अचानक चश्मा उतारकर) लेकिन इस चश्मे से यह कैसे मालूम पड़ा कि तू मुझसे ही पैसे मांगे ? (आवेश में आकरं) मुझे बेवकूफ बनाती है ?
बुढ़िया : (हँसकर) मैं जानती थी, तू यही कहेगा। अरे भोले मानुस, जब मुझे यह चश्मा मिला तो मैं इसे पहनकर भीख मांगने लगी ताकि मैं किसी जानवर से भीख न मांग बैठूं, केवल इंसान से ही भीख मांगूं और मुझे गालियां, धक्के या लात नहीं खाने पड़ें लेकिन क्या करूं (उदास होकर) मैं कई दिनों से चश्मा लगाकर देख रही हूँ किंतु पूरी सड़क पर एक तू ही मुझे इंसान के रूप में दिखाई देता है। तेरे अतिरिक्त और कोई इंसान इस सड़क से होकर नहीं गुजरता।
रामबाबू : (हैरानी से) यह क्या कह रही है तू ? मैं तो एक साधारण स्कूल मास्टर हूँ। दिन में स्कूल के बच्चों को पढ़ाता हूँ और रात में पेटभर खाकर सो जाता हूँ। मैंने तो आज तक कोई पुण्य का काम भी नहीं किया। इस सड़क से होकर नित्य ही बहुत से ज्ञानी-ध्यानी, धनी-मानी, त्यागी और तपस्वी लोग निकलते होंगे। वे समाज के जाने-माने लोग हैं, लाखों रुपये का दान पुण्य करते हैं। नेत्रहीनों, विधवाओं और विकलांगों की संस्थाओं को चंदा देते हैं। मैं उनका मुकाबला थोड़े ही कर सकता हूँ।
बुढ़िया : पहले मैं भी तेरी तरह सोचती थी। (सड़क की ओर संकेत करके) लोगों की चमचमाती गाड़ियां, इस्तरी करे हुए सूट, माथे पर लगे हुए तिलक और कंधों पर पड़े हुए दुशाले देखकर मेरे मन में उनके त्यागी-तपस्वी और धर्मात्मा होने के बारे में विश्वास जगता था और मैं उनसे भीख मांगती थी। उनमें से बहुत से लोग मुझे भीख भी देते थे किंतु अब मैं उन लोगों को इस चश्मे से देखती हूँ तो मुझे इंसान की जगह तरह-तरह के जानवर दिखाई देते हैं।
रामबाबू : (आवेश में आकर जोर से चिल्लाते हैं) लेकिन इस देश में इतने सारे जानवर कहाँ से आये ? यह देश तो ऋषियों-मुनियों का देश है। इस धरती पर वेद प्रकट हुए, इसी धरती पर भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेश दिये। इस धरती पर गौतम बुद्ध ने विहार किया और इसी धरती पर भगवान महावीर ने तपस्या करके इन्द्रियों को जीतने का मार्ग सुझाया। इस देश को नानक और कबीर ने सच्चाई का मार्ग दिखाया। सूर, तुलसी, रहीम और रसखान के पद आज भी इस देश की हवाओं में घुले हुए हैं। गंगा और यमुना आज भी इस देश में बहती हैं। फिर इस देश में आदमियों के स्थान पर इतने सारे जानवर कहाँ से आये? (सुबकने लगते हैं।)
कन्हैया : गांधीजी को तो भूल गये मास्टरजी !
रामबाबू : हाँ, मैं गांधी को भूल गया। मैं क्या पूरा देश गांधी को भूल गया। और भी अच्छा होता कि यह देश गांधी को आज से साठ साल पहले भूल गया होता। कम से कम इस देश के सफेद पोश लुटेरे, गांधी का नाम ले-लेकर इस देश को लूट तो न पाते।
कन्हैया : वो कैसे मास्टरजी ?
रामबाबू : तुमने एक कहावत सुनी होगी, मुँह में राम, बगल में छुरी। मैं कहता हूँ अब उस कहावत को ऐसे कर देना चाहिये, मुंह में गांधी, बगल में छुरी। आज हर सरकारी कार्यालय में गांधी का चित्र लगा हुआ है और लोग उसके नीचे बैठकर घूस खा रहे हैं, काम चोरी कर रहे हैं, लोगों के साथ बुरा व्यवहार कर रहे हैं और उनका हिस्सा मार रहे हैं।
बुढ़िया : दुखी मत हो मेरे लाल।
रामबाबू : (कमीज की आस्तीन से आँखें पौंछते हैं) पहले तो तू मुझे दुखी करती है और फिर…….।
बात अधूरी रह जाती है। कन्हैया पान की थड़ी पर रखे टेपरिकॉर्डर को ऑन कर देता है। तेज आवाज में गीत बजने लगता है- दे दी हमें आजादी बिना खड्ग बिना ढाल, साबरमती के संत तूने कर दिया कमाल।
रामबाबू : (जोर से चीखकर) गलत बात है यह ! (कन्हैया टेपरिकॉर्डर बंद कर देता है) बिना खड्ग और बिना ढाल के कभी आजादी नहीं मिलती। यदि खड्ग और ढाल इतनी बुरी चीजें हैं तो इस देश में झांसी की रानी लक्ष्मी बाई, चंद्र शेखर आजाद, सुभाषचंद्र बोस और भगतसिंह के गीत गाने का क्या मतलब है ? बच्चों की किताबों में महाराणा प्रताप के होने का क्या मतलब है ? उन्नीस सौ बांसठ, पैंसठ और इकहत्तर की लड़ाइयाँ जीतने का क्या मतलब है ?
कन्हैया : (हँसकर) आज तो गांधी बाबा के खिलाफ बोल रहे हो मास्टरजी।
रामबाबू : (आवेश में) गांधी के खिलाफ नहीं बोल रहा मैं। मैं तो उन लोगों के खिलाफ बोल रहा हूँ जिन्होंने गांधी के नाम को भुनाने के लिये इस देश में कितनी तरह के भ्रम फैला दिये। क्या गांधी ने करो या मरो का नारा नहीं दिया ? क्या गांधी ने अंग्रजों भारत छोड़ो का नारा नहीं दिया ? क्या गांधी ने अंग्रेजों को उनके अपने देश में जाकर, भारत खाली करने के लिये नहीं ललकारा। और तुम कह रहे हो कि मैं गांधी के खिलाफ बोल रहा हूँ !
कन्हैया फिर से टेपरिकॉर्डर चलाता है। तेज आवाज में गीत बजता है- सारे जहां से अच्छा, हिन्दुस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी……।
रामबाबू : (कन्हैया की ओर देखकर चिल्लाते हैं) अबे बंद कर इस गाने को।
कन्हैया : (टेपरिकॉर्डर बंद करके) ये लो बाबूजी। बंद कर दिया, चिल्लाते क्यों हो ?
रामबाबू : (गुस्से में कांपते हुए) सारे जहां से अच्छा है यह देश ? सारे जहां से ? अरे इस देश के नगर-नगर में नकली घी बनाने के कारखाने हैं। कहीं पशुओं की चर्बी निकालकर घी में मिलाई जा रही है तो कहीं आदमियों की हड्डियों में से चर्बी निकाली जा रही है। अस्पतालों में लोगों को आदमी के स्थान पर जानवरों का खून चढ़ाया जा रहा है। कचरे के ढेरों में कन्याओं के भू्रण पड़े हैं। लोगों की किडनियां चुराई जा रही हैं। निठारी के नाले मासूम बच्चों के शवों से भरे पड़े हैं और सारा देश गीत गाते नहीं थकता (व्यंग्य से) सारे जहां से अच्छा, हिन्दुस्तां हमारा, हम बुलबुलें हैं इसकी………..। अरे हम वो बुलबुलें हैं जो इस देश का दाना तो खाती हैं किंतु इस देश को अपनी बीटों से गंदा भी करती हैं।
बुढ़िया : इस चश्मे में यही बुराई है। जो भी इसे लगाता है, पागल हो जाता है।
रामबाबू : (दर्शकों की ओर देखकर चिल्लाते हैं) ये बुढ़िया कहती है कि मैं पागल हो गया हूँ ? अरे ऽ ऽ ऽ ! मैं कहता हूँ कि इस देश के हालात को देखकर जो लोग पागल नहीं होते, वे पागल हो गये हैं। जिस देश के लोगों ने अपने ही देश के पच्चीस लाख करोड़ रुपये चुराकर स्विस बैंकों में छिपा दिये हों, जिस देश में एक लाख सत्तर हजार करोड़ रुपये की नकली मुद्रा चलती हो, जिस देश में खेलों के आयोजन पर चालीस लाख करोड़ रुपये का घोटाला होता हो, जिस देश में एक कर्णधार पौने दो लाख करोड़ रुपये डकारने के जुर्म में जेल में बंद हो, जिस देश के एक प्रदेश का मुखिया चार हजार करोड़ रुपये ठोकने के जुर्म में जेल में पड़ा हो, उस देश में भी यदि लोग पागल नहीं होते तो……….पागल नहीं होते तो……….। (बोलते-बोलते हांफ जाते हैं आगे कुछ सूझता नहीं है।)
कन्हैया : अच्छा मास्टरजी! आप पागल मत बनो। अरे जिन्होंने चोरी की है, वे जेल में पड़े हैं ना ! कौनसा सुख भोग रहे हैं ! आप तो ये दूसरा गीत सुनो !
कन्हैया फिर से टेपरिकॉर्डर चला देता है। टेप से गीत बजता है- जो जिससे मिला सीखा हमने। गैरों को भी अपनाया हमने। मतलब के लिये अंधे होकर रोटी को नहीं पूजा हमने। दो लाइन बजाकर टेपरिकॉर्डर बंद कर देता है।
रामबाबू : (व्यंग्य से) बहुत ठीक सुना रहे हो! जो जिससे मिला सीखा हमने! इस देश के लोगों ने दूसरों से इतना सीखा कि देश के लोगों की भाषा बदल गई। इतना सीखा कि देश के लोगों की वेषभूषा बदल गई। खानपान बदल गया, चिंतन बदल गया, जीवन शैली बदल गई। हमने दूसरों से इतना सीखा कि इस देश की औरतें माताजी और बहिनजी से मैडम हो गईं तथा आदमी काका और भाईसाहब से सर हो गये।
कन्हैया : (खीझकर) तो फिर कौनसा गीत सुनाऊं आपको ! लो ये वाला सुनो।
कन्हैया फिर से टेपरिकॉर्डर चलाता है- ये देश है वीर जवानों का, अलबेलों का मस्तानों का, इस देश का यारों क्या कहना, ये देश है दुनिया का गहना।
रामबाबू : (और भी ज्यादा भड़क जाते हैं) सचमुच ये देश वीर जवानों का है। तभी तो इस देश में रात को कोई अकेली लड़की घर से नहीं निकल सकती। सफेद पोश लोग लड़कियों को तंदूर में झौंक देते हैं। चलती हुई रेलगाड़ियों और सड़क पर दौड़ती हुई कारों में बलात्कार होते हैं। अरे दूर क्यों जाते हो, इस देश में प्रशासकों के अपहरण होते हैं और आंदोलनकारी जनता, पुलिस वालों के हाथ पैर काटकर सड़कों पर डाल देती है।
कन्हैया : ओफ्फोह! ये भी नहीं ! तो फिर ये सुनो, ये गाना आपको जरूर पसंद आयेगा।
कन्हैया फिर से टेप रिकॉर्डर चालू करता है। गीत बजता है- जहाँ सत्य अहिंसा और धर्म का पग-पग लगता डेरा, वो भारत देश है मेरा। रामबाबू कन्हैया को घूर कर देखते हैं, कन्हैया सहम कर टेपरिकॉर्डर बंद कर देता है।
रामबाबू : बजाओ-बजाओ, बंद क्यों कर दिया। शायद पग-पग पर धर्म, अहिंसा और धर्म के डेरे देखने वालों को दिखाई नहीं देता कि इस देश के कितने पबों में बैठी लड़कियां शराब पी रही हैं। स्कूल-कॉलेजों में पढ़ने वाले लड़के-लड़कियां एक दूसरे की कमर में हाथ डालकर मॉल और रेलवे स्टेशनों पर घूम रहे हैं। देश में किशोरियों के गर्भपातों की संख्या नित नये रिकॉर्ड बना रही है।
कन्हैया रामबाबू की बात अनसुनी करके फिर से टेपरिकॉर्डर चालू कर देता है। गीत बजता है- मेरा रंग दे बसंती चोला, माँ ए ऽ रंग दे बसंती चोला।
रामबाबू : बंद कर, बंद कर। भगवान के लिये अब तू कोई और गीत न बजा। इन गीतों को सुनकर मेरा मन अशांत होता है।
लम्बी दाढ़ी और सफेद धोती-कुर्ते वाला ढोंगी बाबा प्रवेश करता है। गले में मोटे-मोटे रुद्राक्षों की मालायें लटक रही हैं।
ढोंगी बाबा : क्यों अशांत हो पुत्र! यदि शांति चाहते हो तो मेरे आश्रम में आओ। एक हजार एकड़ में फैले मेरे दिव्य आश्रम की बहिनें तुम्हें सहज शांति की प्राप्ति के लिये मार्ग बतायेंगी। तुम्हंे प्रेम और शांति की बांसुरी सुनायेंगी।
रामबाबू : (चौंककर) अरे बाबा, आप कब आये ?
ढोंगी बाबा : जहाँ मेरी आवश्यकता होती है, वहाँ मैं कभी भी पहुँच जाता हूँ पुत्र। बताओ तुम्हारा चित्त क्यों अशांत है ?
रामबाबू : मेरा चित्त इस कन्हैया ने अशांत कर दिया है। नहीं-नहीं कन्हैया ने नहीं, इस माई ने अशांत कर दिया है ? (बाबा के पैरों में गिरकर) मुझे शांति दो बाबा।
ढोंगी बाबा : (हँसकर) इस फरेबी बुढ़िया के फेर में मत पड़ो पुत्र। तुम कुछ दिन मेरे आश्रम में ज्ञान और अध्यात्म की प्राप्ति करो। बड़े-बड़े सरकारी अफसर, नेता, बिजनिस टाइकून, मंत्री और मीडिया के लोग मेरे आश्रम में आते हैं। उन्हें बहुत लाभ हुआ है।
रामबाबू क्षण भर के लिये कुछ सोचते हैं और फिर अपनी आँखों पर चश्मा रखकर ढोंगी बाबा की ओर देखते हैं।
रामबाबू : (चीखकर) अरे हरामखोर तू ! तू तो वही है न जिसके आश्रम में वेश्यावृत्ति का अड्डा चलता है। धर्म के नाम पर भोली-भाली लड़कियों को फंसाकर तू उन्हें समाज के शक्तिशाली सफेदपोशों को सप्लाई करता है। यही है तेरा शांति का मार्ग? नीच ! ढोंगी ! पाखण्डी !
ढोंगी बाबा अपनी नकली दाढ़ी मूंछ निकाल कर फैंक देता है।
ढोंगी बाबा : (हैरान होकर) कमाल है। आज तक मुझे किसी ने नहीं पहचाना। तू पहला व्यक्ति है जिसने बिना कोई समय गंवाये मेरा सारा धंधा उजागर कर दिया।
रामबाबू : (क्रोध से) हरामखोर पाखण्डी ! तेरे जैसे लोगों के कारण इस देश में साधु महात्मा बदनाम हो गये, लोगों का धर्माचरण से विश्वास उठ गया। भाग जा यहाँ से वरना……..।
ढोंगी बाबा : वरना क्या ?
रामबाबू : यदि तू नहीं गया तो मैं तुझे जान से मार डालूंगा।
ढोंगी बाबा : (हैरान होकर) इतना समझदार होकर भी गैर कानूनी काम करेगा !
रामबाबू : (दुखी होकर) यही तो, यही तो दुख है। इस देश की कानूनी व्यवस्था का लाभ तुझ जैसे अपराधी उठा रहे हैं।
ढोंगी बाबाः (हँसकर) देश की कानूनी व्यवस्था पर अंगुली उठाना अपराध है बच्चा। अदालत की मानहानि के जुर्म में पकड़ लिये जाओगे।
रामबाबू : मानहानि ! कैसी मानहानि ! यदि तुम लोग पाप से कमाये हुए पैसे के बल पर महंगे से महंगे वकीलों की फौज खड़ी करके कोर्ट में तथ्यों को बदल डालते हो, गवाहों को खरीद लेते हो, मुकदमों का फैसला होने नहीं देते, तारीखें पर तारीखें डलवाते हो तो इसमें अदालतें क्या करें ! यदि तुम लोग जांच ऐजेंसियों का मुँह बंद करके सच को सामने आने ही नहीं देते तो इसमें अदालतें क्या करें ! (हांफने लगते हैं।)
ढोंगी बाबा : क्या हुआ बच्चा ! रुक क्यों गया ?
रामबाबू : यदि देश के उच्च न्यायालयों में जजों के आठ सौ बारह में से दो सौ अस्सी पद खाली पड़े हैं और पाँच सौ बत्तीस जजों के सामने बयालीस लाख मुकदमों का ढेर पड़े हैं तो इसमें अदालतें क्या करें ! मैंने यदि देश की कानून व्यवस्था पर प्रश्न उठाया तो मैंने किसी अदालत की मानहानि नहीं की। तू मुझे फंसाने की कोशिश क्यों कर रहा है ?
ढोंगी बाबा : (व्यंग्य से) तो क्या देश की इस कानून व्यवस्था में मेरा कोई दोष है ?
रामबाबू : नहीं दोष किसी एक या कुछ लोगों का नहीं, दोष तो पूरे देश का है। इस देश की प्राथमिकताएं बदल गई हैं। न्याय पाना अब इस देश के लोगों की प्राथमिकताओं में नहीं रहा।
ढोंगी बाबा : तुझे तो इस देश में हर जगह बुराई दिखाई देती है, इतने सारे लोग बुरे नहीं सकते। अवश्य ही तू स्वयं बुरा है। कबीरदासजी ने कहा है- बुरा जो देखन मैं चला, बुरा न मिलिया कोय। जो मन खोजा आपना, मुझसा बुरा न कोय। तू बुरा है, इसीलिये तू इतना दुखी भी है। लोगों की ओर देख, लोग कितने सुखी हैं !
रामबाबू : हाँ-हाँ मैं बुरा हूँ और इसीलिये दुखी भी हूँ किंतु तू भी सुन ले, कबीरदासजी ने यह भी कहा है, सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै, दुखिया दास कबीर है, जागै और रोवै। कबीर भी दुखी थे, इसलिये तेरे हिसाब से वे भी अवश्य ही बुरे थे !
ढोंगी बाबा : मैं तुझसे बहस नहीं करता, तू तो स्कूल मास्टर है। मास्टर लोग बहस बहुत करते हैं।
रामबाबू : (दर्शकों की तरफ देखकर) ठीक कह रहा है ये। क्योंकि ये जानता है कि जिस दिन इस देश का स्कूल-मास्टर, बहस करनी बंद कर देगा, उस दिन इसके जैसे धूर्त लोग अपने उद्देश्यों में पूरी तरह सफल हो जायेंगे और इस देश को जल्दी ही लूट खसोट कर पूरी तरह बर्बाद कर देंगे। ले माई ! अपना चश्मा ले, कितनी देर हो गई। ये दो रुपये और ले। (जेब से निकाल कर दो रुपये और देते हैं।) माई तूने मुझे यह चश्मा दिखाकर अच्छा नहीं किया। दिल का दर्द दिल में ही छुपा रहता तो अच्छा था।
मंच पर प्रकाश कम होने लगता है। कन्हैया फिर से टेप रिकॉर्डर चालू कर देता है। गीत बजता है- पिंजरे के पंछी रे ऽ ऽ ऽ। तेरा दरद न जाने कोय। बाहर से तो खामोश रहे तू, भीतर-भीतर रोय। तेरा दरद न जाने कोय।
परदा गिरता है।