जालौर के चौहान शासक उदयसिंह तथा मेवाड़ के गुहिल शासक जैत्रसिंह ने दो अलग-अलग युद्धों में इल्तुतमिश की सेना को परास्त किया। इस कारण वह गुजरात की ओर नहीं बढ़ सका तथा उसने अपना ध्यान राजपूताने एवं गुजरात से हटाकर मध्य-गंगा क्षेत्र की ओर किया।
ई.1226 में इल्तुतमिश ने पुराने गाहड़वाल राज्य के अंतर्गत स्थित चंदावर पर हमला किया। अजमेर के चौहानों की एक शाखा चंदावर में आकर शासन करने लगी थी। इस काल में राजा भरतपाल चौहान चंदावर राज्य का स्वामी था। राजा भरतपाल को भारत के इतिहास में समुचित स्थान नहीं मिल सका है। जबकि भरतपाल चौहान ने मुसलमानों के विरुद्ध जो सफलता अर्जित की थी, वह तो स्वयं सम्राट पृथ्वीराज चौहान ने भी प्राप्त नहीं की थी।
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ई.1226 में सुल्तान इल्तुतमिश ने अपने पुत्र नासिरुद्दीन महमूद को अवध का सूबेदार नियुक्त किया। मिनहाज उस् सिराज ने अपनी पुस्तक ‘तबकाते नासिरी’ में लिखा है कि जब नासिरुद्दीन एक विशाल सेना के साथ अवध में पहुंचा तो राजा भरतपाल चौहान ने नासिरुद्दीन की सेना पर आक्रमण करके नासिरुद्दीन महमूद के 1,20,000 सैनिकों को मौत के घाट उतार दिया।
इस घटना से दिल्ली सल्तनत में राजा भरतपाल का आतंक छा गया। अतः इल्तुतमिश ने दिल्ली सल्तनत की बहुत सी सेनाओं को इकट्ठा करके भरतपाल पर आक्रमण किया। चंदावर के निकट पुनः दोनों पक्षों में भयानक युद्ध हुआ जिसमें राजा भरतपाल चौहान लड़ते हुए काम आया। राजा भरतपाल के एक पुत्र को लद्दातिमुर खाँ नामक सेनापति द्वारा बंदी बना लिया गया। चौहान राजकुमार को पकड़कर दिल्ली लाया गया और बेरहमी से मारा गया। फिर भी इस राजवंश के राजकुमारों ने अपनी पराजय स्वीकार नहीं की। उनका राज्य बना रहा तथा इस राज्य में भरतपाल के बाद जाहड़, बल्लाल, आहबमल्ल और रायबद्दिय नामक राजा हुए।
राजा आहबमल्ल के दरबार में लक्ष्मण नामक एक कवि रहता था। उसने राजा आहबमल की प्रशंसा करते हुए अपने ग्रंथ ‘अनृवर्त रत्न प्रदीप’ में लिखा है कि- ‘उसने शत्रुओं का मण्डल उजाड़ दिया। वह छल, बल, नीति और नयार्थ में निपुण था। दुष्पेक्ष्य म्लेच्छ से रणरंग में भिड़ने वाला वही एक मल्ल था। मुसलमानों के हृदय में वह कांटे की तरह चुभता था।’
ई.1226 में इल्तुतमिश ने रणथम्भौर का घेरा डाला। पाठकों को स्मरण होगा कि अजमेर के राजा पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद मुहम्मद गौरी ने पृथ्वीराज के पुत्र गोविंदराज को अजमेर का शासक नियुक्त किया था किंतु पृथ्वीराज चौहान के भाई हरिराज ने गोविंदराज चौहान को अजमेर से मार भगाया था। इस पर गोविंदराज रणथंभौर आ गया। तब से चौहानों की एक शाखा रणथंभौर में स्थापित हो गई। राजा गोविंदराज के बाद उसका पुत्र बाल्हण, बाल्हण के बाद प्रहलाद और उसके बाद वीरनारायण चौहान रणथंभौर के राजा बने। ये सभी दिल्ली सल्तनत के अधीन करद राजा थे।
वीरनारायण के अल्पवयस्क होने के कारण उसका चाचा वागभट उसका संरक्षक बना। जब इल्तुतमिश अपने शत्रुओं से लड़ने में व्यस्त था, तब अवसर देखकर वागभट ने रणथंभौर को दिल्ली सल्तनत से स्वतंत्र कर लिया। ई.1226 में जब इल्तुतमिश ने अपने शत्रुओं से छुटकारा पाया तो उसने एक विशाल सेना लेकर रणथंभौर पर आक्रमण किया। मिनहाज उस् सिराज ने लिखा है कि अल्लाह की रहमत से ई.1226 में रणथंभौर के उस मजबूत किले पर अधिकार हो गया, जिसे लेने में 70 बादशाह असफल हो गए थे।
रणथंभौर में असफल होने वाले 70 बादशाह कौनसे थे, इसके बारे में मिनहाज कुछ भी सूचना नहीं देता है। फिर भी मिनहाज के इस कथन से इस बात का आभास हो जाता है कि दिल्ली के मुसलमानों को रणथंभौर पर आसानी से जीत नहीं मिल सकी थी।
‘हम्मीर महाकाव्य’ में भी इस युद्ध का वर्णन हुआ है। इसके अनुसार एक बार राजा वीरनारायण चौहान कच्छवाहों की राजकुमारी से विवाह करने ढूंढाड़ गया। मार्ग में उस पर शम्सुद्दीन शक ने आक्रमण किया। फलस्वरूप वीरनारायण रणथंभौर आकर शम्सुद्दीन का मुकाबला करने लगा। मुसलमान जब शक्ति एवं बल से दुर्ग लेने में असफल हो गए तो उन्होंने राजा वीरनारायण के साथ मित्रता करने का छल किया। वीरनारायण के चाचा वागभट ने राजा को चेताया तथा कहा कि इस मित्रता के भ्रम में न रहे किंतु वीरनारायण ने अपने चाचा की सलाह अनसुनी कर दी तथा वह इल्तुतमिश के निमंत्रण पर दिल्ली चला गया।
इस पर वागभट चौहान नाराज होकर रणथंभौर छोड़कर मालवा चला गया। उधर जब वीरनारायण चौहान दिल्ली पहुंचा तो इल्तुतमिश के अमीरों ने धोखे से वीरनारायण की हत्या कर दी। इसके बाद मुस्लिम सेना ने फिर से रणथंभौर पर आक्रमण किया तथा किले पर अधिकार कर लिया। रणथम्भौर पर तुर्कों का अधिकार हो गया और उसकी सुरक्षा के लिए मुस्लिम सेना नियुक्त की गई।
इसके बाद पूरे दस साल तक रणथंभौर दुर्ग पर मुसलमानों का अधिकार रहा। जब इल्तुतमिश की मृत्यु हो गई तब वागभट मालवा से पुनः रणथंभौर आया तथा उसने मुसलमानों की सेना से रणथंभौर पुनः छीन लिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता