जब महाराणा सांगा का कालपी में निधन हो गया तो राजपूतों का संघ बिखर गया। सांगा के बाद राजपूतों का नेतृत्व करने वाला कोई प्रभावशाली हिन्दू नरेश नहीं रहा। इस कारण हिन्दुओं के प्रभाव को बड़ा धक्का लगा और पास-पड़ौस के मुसलमान राज्यों में राजपूतों का भय समाप्त हो गया।
इब्राहीम लोदी के समय में लोदी-सल्तनत के कमजोर पड़ जाने के समय से ही हिन्दू-शासक उत्तरी भारत में अपनी शक्ति बढ़ाने का स्वप्न देख रहे थे किंतु खानवा के मैदान में हिन्दू-राजाओं की हार के कारण वह स्वप्न बिखर गया। भारत पर राज्य करने के लिए तुर्क भले ही जीवित नहीं बचे थे किंतु अब उनका स्थान मुगलों ने ले लिया।
इस प्रकार खानवा की पराजय हिन्दुओं के लिए अतीत में हो चुकी एवं भविष्य में होने वाली ढेर सारी पराजयों की तरह एक सामान्य पराजय नहीं थी अपितु यह एक युगांतकारी पराजय थी। इस युद्ध में पराजय के कारण हिन्दू नरेशों के हाथों से हिन्दुस्तान का राज्य मुट्ठी में बंद रेत की तरह फिसल गया।
यह पराजय इतनी ही दुर्भाग्यपूर्ण थी जितनी कि ई.1192 में हुई सम्राट पृथ्वीराज चौहान की पराजय, जितनी कि ई.1556 में हुई दिल्ली के हिन्दू सम्राट विक्रमादित्य हेमचंद्र की पराजय, जितनी कि ई.1761 में हुई मराठा सेनापति सदाशिव राव भाऊ की पराजय।
खानवा युद्ध की पराजय के बाद राजपूताना एक बार फिर असुरक्षित हो गया और उस पर पास-पड़ोस के राज्यों के आक्रमण आरम्भ हो गये। राजपूताना की स्वतन्त्रता फिर से खतरे में पड़ गई। खानवा युद्ध ने भारत में विशाल मुगल साम्राज्य की स्थापना का मार्ग खोल दिया। अब बाबर की रुचि अफगानिस्तान से समाप्त होकर पूरी तरह भारत में हो गई।
खानवा विजय के उपरान्त बाबर बयाना चला गया। उन दिनों बयाना को राजपूताने का दरवाजा कहा जाता था जहाँ से बाबर राजपूताना के भीतर घुसना चाहता था परन्तु भीषण गर्मी के कारण वह अलवर से आगे नहीं बढ़ सका। चूंकि हसन खाँ मेवाती की मृत्यु हो चुकी थी और उसके पुत्र नाहर खाँ को बाबर ने फिर से बंदी बना लिया था, इसलिए मेवात की रक्षा करने वाला कोई नहीं था। यही कारण था कि बाबर ने थोड़े से ही प्रयास से मेवात पर अधिकार कर लिया। बाबर ने लिखा है कि मेवात से सालाना चार करोड़ रुपए मालगुजारी प्राप्त होती थी।
सांगा से मुक्ति पाने के बाद बाबर को अपने पक्ष की आंतरिक समस्याओं पर ध्यान देने का समय मिला। बाबर ने बदख्शां, काबुल, कांधार, गजनी एवं मध्य-एशिया के अन्य देशों से अपने साथ आए सिपाहियों से वायदा किया था कि जब खानवा का युद्ध समाप्त हो जाएगा, तब जो भी सिपाही अपने देश जाना चाहेगा, उसे लौटने की अनुमति दी जाएगी।
अब वे सिपाही फिर से अपने देश जाने की मांग करने लगे। इस पर बाबर ने हुमायूँ को आदेश दिया कि वह इन सिपाहियों को अपने साथ लेकर काबुल चला जाए। इसका कारण यह था कि बाबर की सेना में अधिकांश सैनिक बदख्शां तथा उसके आसपास के क्षेत्रों के रहने वाले थे और वे किसी भी कीमत पर भारत में रहने को तैयार नहीं थे।
बाबर का दायां हाथ समझा जाने वाला महदी ख्वाजा भी अपने देश लौट जाने को बड़ा व्याकुल था। उसे भी काबुल जाने की अनुमति दी गई। महदी ख्वाजा के पुत्र जाफर ख्वाजा ने भारत में रहना स्वीकार किया इसलिए उसे इटावा का गवर्नर नियुक्त किया गया। खानवा के युद्ध के बाद बाबर ने फतहनामा लिखवाया जिसमें उसने अपनी भारत- विजय का वर्णन विस्तार से करवाया तथा उसे मोमिन अली तवाची के साथ काबुल भेजा गया।
बाबर ने अपनी पुस्तक बाबरनामा में लिखा है- ‘इस दौरान हसन खाँ मेवाती का पुत्र नाहर खाँ अब्दुर्रहीम की निगरानी से भाग गया।’
बाबर ने चंदवार तथा रापरी के लिए कुछ सैनिक टुकड़ियां रवाना कीं जहाँ इन स्थानों के पुराने तुर्क शासकों ने बाबर को खानवा के युद्ध में व्यस्त जानकर अधिकार कर लिया था। कुछ ही दिनों में चंदवार तथा रापरी फिर से बाबर के अधीन हो गए।
इटावा पर भी कुतुब खाँ ने अधिकार कर लिया था किंतु जब उसे ज्ञात हुआ कि महदी ख्वाजा का पुत्र जाफर ख्वाजा इटावा आ रहा है तो कुतुब खाँ इटावा छोड़कर भाग गया। इस प्रकार इटावा भी पुनः बाबर के अधिकार में आ गया।
बाबर ने सुल्तान मुहम्मद दूल्दाई को कन्नौज का गवर्नर नियुक्त किया था किंतु कन्नौज वालों ने उसे मारकर भगा दिया। इस पर बाबर ने दूल्दाई को सरहिंद का गवर्नर नियुक्त कर दिया तथा कन्नौज मुहम्मद सुल्तान मिर्जा को प्रदान कर दिया। कासिम हुसैन सुल्तान को बदायूं का गवर्नर नियुक्त किया गया।
मेवात पर विजय प्राप्त करने के बाद बाबर सम्भल गया और वहाँ से चन्देरी पर आक्रमण करने की योजनाएँ बनाने लगा। चन्देरी का दुर्ग चन्देरी नगर के सामने 230 फुट ऊँची चट्टान पर स्थित था। यह दुर्ग मालवा तथा बुन्देलखण्ड की सीमाओं पर स्थित था और मालवा से राजपूताना जाने वाली सड़क पर बना हुआ था। इस कारण चंदेरी व्यापारिक तथा सामरिक दोनों ही दृष्टियों से अत्यंत महत्त्वपूर्ण था। चन्देरी दुर्ग पर इन दिनों राणा सांगा के दुर्गपति मेदिनी राय का अधिकार था तथा चन्देरी नगर में बहुत से धनपति रहते थे।
राणा सांगा की पराजय के बाद भी मेदिनी राय ने बाबर के प्रभुत्व को स्वीकार नहीं किया था। इसलिए जनवरी 1528 में बाबर अपनी सेना के साथ चन्देरी पहुँचा। बाबर ने अपने सैनिकों को युद्ध के लिये प्रेरित करने हेतु इस युद्ध को भी ‘जेहाद’ का नाम दिया।
बाबर ने चन्देरी के दुर्ग पर आक्रमण कर दिया। राजपूतांे ने अपनी पराजय निश्चित जानकर अपनी स्त्रियों को मौत के घाट उतार दिया तथा मरते दम तक मुगलों का सामना करते हुए रणखेत रहे। भीषण युद्ध के उपरान्त बाबर ने दुर्ग पर अधिकार कर लिया। इस युद्ध में भी राजपूतों का भीषण संहार हुआ। अहमदशाह को चन्देरी का शासक नियुक्त किया गया। राजा मेदिनी राय की दो कन्याएँ इस युद्ध में पकड़ी गईं जिनमें से एक कामरान को और दूसरी हुमायूँ को भेजी गई।
बाबर ने मेदिनी राय की कन्याओं के पकड़े जाने का उल्लेख नहीं किया है। वह लिखता है- ‘जब मेरे सैनिक मेदिनीराय के घर में घुसे तो उन्होंने देखा कि मेदिनीराय के आदमी मेदिनीराय के घर के सदस्यों की हत्या कर रहे थे। एक आदमी हाथ में तलवार लेकर खड़ा होता था और घर के सदस्य उस तलवार के नीचे गर्दन रखकर गर्दन कटवाते थे।’ यहाँ बाबर ने आधा सत्य बोला है। वस्तुतः मेदिनी राय के आदेश से उसके परिवार की महिलाओं की गर्दनें काटी गई थीं ताकि वे शत्रु के हाथों में न पड़ें और दुर्गति होने से बच सकें।
चंदेरी विजय बाबर की बड़ी विजयों मे से एक मानी जाती है। यहाँ से बाबर को विपुल धन राशि प्राप्त हुई।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता