डॉ. मोहन लाल गुप्ता द्वारा लिखित पुस्तक उर्दू बीबी की मौत में आजादी से पहले एवं आजादी के बाद हिन्दी एवं उर्दू भाषा की स्वीकार्यता को लेकर हुए विवाद का इतिहास दिया गया है।
भारत में भाषा एवं मजहब को लेकर विगत कई शताब्दियों से झगड़े चल रहे हैं। काल के प्रवाह में ये झगड़े कभी-कभी एक-दूसरे पर इतनी बुरी तरह से छा जाते हैं कि पता ही नहीं चलता कि झगड़ा भाषा का है या मजहब का, या राजनीति का!
वस्तुतः हिन्दी और उर्दू का झगड़ा दो भाषाओं का झगड़ा नहीं है, यह हिन्दुओं और मुसलमानों के बीच होने वाले तरह-तरह के झगड़ों में से एक है। हिन्दू जाति संस्कृत को अपने पूर्वजों की भाषा का आदर देती है तथा हिन्दी भाषा को संस्कृत भाषा की पुत्री मानती है। इसलिए हिन्दी भाषा हिन्दुओं के लिए अस्मिता का प्रश्न है।
इसी प्रकार मुसलमानों की सांस्कृतिक पृष्ठभूमि मध्य एशियाई देशों से आई है जहाँ फारसी, चगताई और तुर्की आदि भाषाएं बोली जाती हैं। उर्दू का जन्म हिन्दी भाषा में इन्हीं मध्य एशियाई देशों से आई भाषाओं के मिश्रण से हुआ है। इसलिए मुसलमानों के लिए उर्दू भाषा मुसलमानियत की अस्मिता का प्रश्न है। हिन्दी उर्दू भाषा के इन्हीं झगड़ों को लेकर उर्दू बीबी की मौत नामक पुस्तक की रचना की गई है।
इस पुस्तक में ब्रिटिश शासन काल में आरम्भ हुए हिन्दी एवं उर्दू भाषा के झगड़े का रोचक इतिहास लिखा गया है। इस झगड़े को तब तक उसके वास्तविक रूप में नहीं समझा जा सकता जब तक कि पाठकों को भारत के इतिहास की उस पृष्ठभूमि की जानकारी न हो, जिसके कारण यह समस्या उत्पन्न हुई। इसलिए इस पुस्तक के प्रारम्भ में भारत के इतिहास की अतिसंक्षिप्त पृष्ठभूमि को भी लिखा गया है।
इस पुस्तक को पाठकों के समक्ष लाने का उद्देश्य भारतीयों को उनके गौरवमयी इतिहास से परिचित कराना है। आशा है यह इतिहास पाठकों के लिए रुचिकर सिद्ध होगा। सभी भाषाओं, पंथों एवं मजहबों के पाठक प्रत्येक प्रकार के दुराग्रहों से मुक्त होकर इसका आनंद लें।