Thursday, November 21, 2024
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41. रोमन कैथोलिक चर्च का इतिहास

रोमन कैथोलिक चर्च का आशय किसी एक विशिष्ट भवन से न होकर विश्व-व्यापी संस्था से है। यह विश्व का सबसे बड़ा ईसाई चर्च है। इस चर्च के सदस्यों की संख्या एक सौ करोड़ से अधिक है। उनके नेता पोप हैं जो विश्व भर में फैले हुए ईसाई धर्माध्यक्षों अर्थात् पादरियों, बिशपों एवं कार्डिनलों के समुदाय के प्रधान हैं। रोम का कैथोलिक चर्च पश्चिमी और पूर्वी कैथोलिक चर्चों का एक समागम है। इस चर्च का लक्ष्य यीशू मसीह के सुसमाचार संसार भर के लोगों तक पहुँचाना, श्रद्धालु मनुष्यों को ईसाई संस्कार प्रदान करना तथा दयालुता के प्रयोग करना है। यह चर्च विश्व के सबसे पुराने संस्थानों में से एक है और इसने पश्चिमी सभ्यता के इतिहास में प्रमुख भूमिका निभाई है।

चर्च की स्थापना

ईसाई जगत् में मान्यता है कि रोम के इस कैथोलिक चर्च को यीशू मसीह द्वारा स्थापित किया गया था तथा सेंट पीटर को इस चर्च का पहला बिशप नियुक्त किया था। इस कारण इसे ‘पापल बेसिलिका ऑफ सेंट पीटर’ भी कहा जाता है। कैथोलिक जगत् में यह भी मान्यता है कि सेंट पीटर को स्वर्ग की चाबियां सौंपी गई थीं। रोम का सेंट पीटर कैथोलिक चर्च संसार का सबसे पहला चर्च है। इस चर्च के धर्माध्यक्ष धर्मदूतों के उत्तराधिकारी हैं। इस चर्च के पोप को संत पीटर के उत्तराधिकारी के रूप में सार्वभौमिक प्रधानता प्राप्त है।

चर्च का भवन

ईसा मसीह ने जिस चर्च की स्थापना की थी, उस समय इसका भवन निःसंदेह बहुत साधारण रहा होगा। उसके बारे में कोई उल्लेख नहीं मिलता किंतु सेंट पीटर की मृत्यु के बाद उन्हें उसी चर्च में दफनाया गया था। चौथी शताब्दी ईस्वी में जब रोमन एम्परर कॉस्टेन्टाइन ने पुराने चर्च के स्थान पर एक नए चर्च का निर्माण करवाया तो सेंट पीटर की कब्र को सुरक्षित रखा गया। वर्तमान बेसिलिका का निर्माण ई.1506 में आरम्भ किया गया तथा इसका विशाल भवन और उसके चारों ओर की सरंचनाएं ई.1626 में बनकर पूरी हुईं। सेंट पीटर की कब्र अब भी इसी चर्च के अंदर तथा उसी स्थान पर है, जहाँ उसे मूल रूप से दफनाया गया था।

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पवित्र आत्मा का मार्ग-दर्शन

चर्च का कहना है कि उसे पवित्र आत्मा अर्थात् ईसा मसीह का मार्ग-दर्शन प्राप्त है जिसके कारण वह धार्मिक विश्वास और नैतिकता पर अपनी शिक्षाओं को अचूकता से परिभाषित कर सकता है।

यूकेरिस्ट

कैथोलिक पूजा ‘यूकेरिस्ट’ पर केंद्रित है जिसके अनुसार चर्च की मान्यता है कि ‘रोटी और शराब यीशू मसीह के शरीर और रक्त में अलौकिक रूप से रूपांतरित हैं।’

माता मरियम के प्रति विशेष श्रद्धा

यह चर्च माता मरियम के प्रति विशेष श्रद्धा रखता है। मरियम के सम्बन्ध में कैथोलिक मान्यताओं में उनका मूल, पाप के दाग से रहित, निर्मल गर्भधारण तथा उनके जीवन के अंत में स्वर्ग में स्थाई निवास करने सम्बन्धी धारणाएं सम्मिलित हैं।

कैथोलिक शब्द का अर्थ

कैथोलिक शब्द मूलतः ग्रीक शब्द ‘कैथोलिकोस’ से बना है जिसका अर्थ है- ‘सार्वभौमिक’। इस शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग दूसरी शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में चर्च के वर्णन के लिए किया गया था। ई.1054 में पूर्वी एवं पश्चिमी सम्प्रदायों के विभाजन के बाद जो ईसाई चर्च, रोम के पोप के साथ जुड़े रहे, वे ‘कैथोलिक‘ कहलाए तथा जो चर्च पोप की सत्ता को नहीं मानते थे, वे ‘पूर्वी यूनानी चर्च’ ‘रूढ़िवादी’ या ‘पूर्वी रूढ़िवादी’ (ऑर्थोडोक्स) के नाम से जाने गए।

इस विभाजन के बाद पश्चिमी ईसाइयों का धर्माध्यक्ष ‘पोप’ कहलाता रहा जबकि पूर्वी ईसाइयों का धर्माध्यक्ष ‘पात्रिआर्क’ कहलाया। इस विभाजन के तत्काल बाद पोप तथा पात्रिआर्क दोनों ने एक दूसरे को ईसाई धर्म से बहिष्कृत कर दिया।

16वीं सदी में हुए सुधारों के बाद, रोम के पोप के साथ जुड़े चर्चों ने स्वयं को प्रोटेस्टेंट चर्चों से अलग रखने के लिए अपने लिए ‘कैथोलिक’ शब्द का प्रयोग किया। कैथोलिक चर्च की प्रश्नोत्तरी के शीर्षक में भी ‘कैथोलिक चर्च’ का प्रयोग किया गया है।

इन्हीं शब्दों का प्रयोग पॉल (षष्ठम्) ने दूसरी वेटिकन परिषद् के सोलह दस्तावेजों पर हस्ताक्षर करते समय किया था। पोप के तथा धर्माध्यक्षीय सम्मेलनों के दस्तावेजों में कभी-कभी चर्च का नाम ‘रोमन कैथोलिक चर्च’ प्रयुक्त किया गया है। पोप पायस (दशम्) की प्रश्नोत्तरी में चर्च को ‘रोमन’ कहा गया है।

प्रारंभिक ईसाइयत

कैथोलिक सिद्धांत के अनुसार पोप, संत पीटर के उत्तराधिकारी हैं। कैथोलिक मत बताता है कि कैथोलिक चर्च की स्थापना यीशू मसीह द्वारा प्रथम सदी ईस्वी में की गई एवं धर्म-प्रचारकों पर पवित्र आत्मा आने से इसकी सार्वजनिक सेवा आरम्भ होने का संकेत मिला।

यीशू के धर्म-प्रचारकों ने भूमध्यसागरीय समुद्र के पास यहूदी समुदायों में धर्मांतरितों को पाया। टारसस के पॉल आदि धर्म-प्रचारकों ने गैर-यहूदियों को ईसाई धर्म में धर्मान्तरित करना आरम्भ किया। इसी काल में ईसाई धर्म यहूदी परम्पराओं से अलग हुआ और इसने स्वयं को पृथक धर्म के रूप में स्थापित किया।

रोम के बिशप को अन्य पादरियों पर सर्वोच्चता

प्रारंभिक चर्च का संगठन अधिक शिथिल था और ‘इवेंजिलवाद’ पर आधारित था जिसके परिणाम स्वरूप ईसाई मत की अलग-अलग व्याख्याएं प्रचलित थीं। अपनी शिक्षाओं में एकरूपता लाने के लिए द्वितीय सदी के आरम्भ में, चर्च ने पादरियों की विभिन्न श्रेणियों की सुनिश्चित व्यवस्था आरम्भ की। केन्द्रीय ‘धर्माध्यक्ष’ को अपने शहर में पादरी वर्ग पर सर्वोच्चता का अधिकार दिया गया।

इसके साथ ही एक धर्मप्रदेशीय संगठन स्थापित किया गया जो रोमन साम्राज्य के क्षेत्रों एवं शहरों का प्रतिनिधित्व करता था। राजनीतिक रूप से महत्त्वपूर्ण शहरों के धर्माध्यक्षों ने, निकटवर्ती शहरों के धर्माध्यक्षों पर वृहत् अधिकार प्राप्त करने के प्रयास किए। उस काल में एंटिओक, एलेक्जेंड्रिया एवं रोम के चर्चों के स्थान सर्वोच्च थे।

सार्वभौम धर्म-सभाएं

चर्च के सिद्धांतों को समय-समय पर होने वाली सार्वभौम धर्म-सभाओं द्वारा परिभाषित किया गया। द्वितीय शताब्दी ईस्वी में धर्माध्यक्ष सैद्धान्तिक एवं नीति सम्बन्धी मामलों को सुलझाने के लिए क्षेत्रीय धर्म-सभाओं का आयोजन करते थे। आगे चलकर धर्म-विज्ञानियों एवं धर्म-शिक्षकों की एक शृंखला द्वारा धर्म-सिद्धांतों को और अधिक परिष्कृत किया गया जिन्हें सामूहिक रूप से चर्च-पिताओं (फादर) के नाम से जाना जाता है।

धर्म विषयक विवादों को सुलझाने में सार्वभौम परिषदों को निर्णयकारी माना गया। इन सार्वभौम परिषदों से जो सैद्धांतिक सूत्र निकले वे ईसाई धर्म के इतिहास में मील के पत्थर सिद्ध हुए।

पोप की अपील कोर्ट के रूप में भूमिका

तृतीय शताब्दी ईस्वी तक, रोमन धर्माध्यक्ष ने उन समस्याओं पर ‘अपील कोर्ट’ के रूप में कार्य करना प्रारंभ कर दिया जिन्हें क्षेत्रीय धर्माध्यक्ष नहीं सुलझा पाते थे।

ईसाइयों के बारे में दुष्प्रचार

रोमन साम्राज्य के अधिकांश धर्मों के विपरीत, ईसाई धर्म चाहता था कि उसके अनुयायी अन्य दूसरे ईश्वरों को त्याग दें। ईसाईयों द्वारा गैर-ईसाई समारोहों में शामिल होने से इंकार किया जाता था। इस कारण वे सार्वजनिक जीवन के अधिकांश समारोहों एवं अवसरों में सम्मिलित नहीं होते थे।

इस अस्वीकृति ने गैर-इसाईयों में भय उत्पन्न किया कि ईसाई लोग रोम के देवताओं को नाराज कर रहे हैं। रोम के आरम्भिक ईसाइयों ने अपने कर्मकाण्डों को गोपनीय रखा जिसके कारण जन-साधारण में ईसाइयों के बारे में कई तरह की अफवाहें फैल गईं। कहा जाने लगा कि ईसाई उच्छृंखल, कौटुम्बिक व्यभिचारी एवं नरभक्षी हैं। उस काल के स्थानीय अधिकारियों ने भी इन अफवाहों के कारण ईसाईयों को उपद्रवी मानकर उन्हें सताया।

ईसाई मतावलम्बियों की प्रताड़ना

तीसरी सदी के अंत में इसाईयों को पीड़ित करने का संगठित सिलसिला प्रारंभ हुआ। रोमन एम्परर ने आदेश जारी किया कि ईसाइयों की उपस्थिति के कारण रोम के देवता कुपित हो गए हैं, इस कारण साम्राज्य में सैनिक, राजनीतिक एवं आर्थिक संकट आ रहे हैं। इस आदेश के बाद बहुत से इसाईयों को सजा मिली।

बहुत से बंदी बनाए गए, उत्पीड़ित किए गए, उनसे बल-पूर्वक श्रम करवाया गया, उनमें से बहुत से बधिया कर दिए गए या वेश्यालयों में भेज दिए गए। बहुत से ईसाई चुपचाप रोम छोड़कर भाग गए। जो ईसाई, राजकीय कर्मियों द्वारा पहचाने नहीं जा सके, वे रोम में ही चुपचाप निवास करते रहे। कुछ लोगों ने सम्राट के भय से ईसाई धर्म छोड़ दिया।

डोनाटिस्टों तथा नोवाटिआनिस्टों का विभाजन

इसी काल में कैथोलिक चर्च में धर्मगुरुओं की भूमिका को लेकर मतभेद हो गया तथा ईसाई मतावलम्बी डोनाटिस्टों तथा नोवाटिआनिस्टों में विभाजित हो गए।

ईसाई धर्म को रोमन एम्परर की मान्यता

ई.313 में सम्राट कॉन्स्टेंटाइन द्वारा कैथोलिक इसाईयत को कानूनी मान्यता दी गई।

रोमन साम्राज्य की राजधानी का परिवर्तन

ई.325 में रोम का एम्परर कॉन्स्टेंटीन, रोमन साम्राज्य की राजधानी को बिजैन्तिया (बिजेन्टाइन) ले गया तथा बाद में उसके निकट नई राजधानी का निर्माण किया गया जिसे सम्राट के नाम पर कान्सटेंटिनोपल (कुस्तुंतुनिया) कहा गया।

एरियन एवं कैथोलिक ईसाइयों का विभाजन

ई.325 में रोम के ईसाई समुदाय में इस विचार को लेकर बड़ा विवाद छिड़ गया कि ईसा का अस्तित्व अनन्त काल तक नहीं था बल्कि वे ईश्वर द्वारा निर्मित थे और इसलिए वे पिता-ईश्वर से कमतर हैं। इस सिद्धांत को ‘एरियनवाद’ कहा जाता है। एरियनवाद पर विचार करने के लिए ई.325 में निकाईया में ईसाई संघ की प्रथम परिषद् बुलाई गई जिसमें एरियनवाद को अस्वीकार कर दिया गया तथा ईसा के अस्तित्व एवं ईश्वरत्व सदा स्थायी रहने वाले माने गए। इस पर ‘ऐरियन ईसाई’, ‘कैथोलिक मत’ से अलग हो गए।

ईसाई धर्म को राजधर्म की मान्यता

ई.380 में ईसाई धर्म को रोमन साम्राज्य का राजधर्म घोषित किया गया।

बाईबिल-सम्बन्धी आधिकारिक आदेश

ई.382 में रोम की सभा ने बाईबिल के सम्बन्ध में प्रथम आधिकारिक आदेश जारी किया तथा ओल्ड एवं न्यू टेस्टामेण्ट की मान्य पुस्तकों को सूचीबद्ध किया।

एकीकृत ईसाई जगत् की स्थापना के प्रयास

ई.387 में नाइसिया की द्वितीय परिषद हुई। पहली सात सार्वभौम परिषदों ने ईसाई संघ की मान्यताओं के बारे में एक परम्परागत सर्वसम्मति बनाने और एकीकृत ईसाई जगत की स्थापना करने की दिशा में कार्य किया।

निकेने धर्मसार

ईसाई धर्म के सिद्धान्तों को संक्षिप्त रूप से अभिव्यक्त करने के लिए, सभा ने एक धर्मसार जारी किया जिसे ‘निकेने धर्मसार’ कहा जाता है। इस परिषद् ने चर्च के क्षेत्र को भौगोलिक एवं प्रशासकीय क्षेत्रों में चिह्नित किया जिसे ‘धर्मप्रदेश’ कहा गया।

चर्च द्वारा लैटिन भाषा को मान्यता

रोमन साम्राज्य में अत्यंत प्राचीन काल में संस्कृत भाषा बोली जाती थी। सैंकड़ों साल के अंतराल में उसी संस्कृत से लैटिन भाषा का जन्म हुआ। इस कारण लैटिन भाषा को हिन्द-यूरोपीय भाषा-परिवार की रोमन शाखा में रखा जाता है। यह आज भी संस्कृत से मिलती-जुलती है। फ्रैंच, इटालवी, जर्मन स्पैनिश, रोमानियाई और पुर्तगाली भाषाओं का जन्म लैटिन भाषा से हुआ है किंतु अंग्रेजी भाषा इससे अलग एवं स्वतंत्र मानी जाती है।

चौथी शताब्दी ईस्वी में, पोप डमासस (प्रथम) ने अपने सचिव सेंट जेरोम को उत्कृष्ट क्लासिकल लैटिन भाषा में बाईबिल के नए अनुवाद का कार्य सौंपा। चर्च अब लैटिन भाषा में सोचने एवं पूजा-प्रार्थना करने के लिए प्रतिबद्ध था। लैटिन भाषा ने चर्च के रोमन अनुष्ठान में पूजन पद्धति की भाषा के रूप में अपनी भूमिका जारी रखी और आज भी चर्च की आधिकारिक भाषा के रूप में लैटिन ही प्रयुक्त होती है। यद्यपि वर्तमान में लैटिन को एक मृत भाषा माना जाता है तथापि रोमन कैथोलिक चर्च की धर्मभाषा और वैटिकन सिटी राज्य की राजभाषा यही लैटिन है।

नेस्टोरियनों एवं मोनोफिसाइटों के बीच विभाजन

ई.431 में इफेसस की धर्म-सभा और ई.451 में कैलसीडन की धर्म-सभा ने ईसा मसीह की दिव्यता एवं मानवीय स्वभावों में सम्बन्धों को परिभाषित किया। अनेक ईसाई इन व्याख्याओं से असंतुष्ट थे जिसके कारण वे दो नेस्टोरियन एवं मोनोफिसाइट समुदायों में विभक्त हो गए।

पोप की सर्वोच्चता

ई.325 में रोमन सम्राट कॉन्स्टेंन्टाइन के रोम छोड़कर बेजेन्टाइन (विजेन्तिया) जाने से लेकर ई.500 के बीच पोप के अधिकारों में लगातार वृद्धि हुई।  ई.451 में कैलसीडन की सभा में कॉन्सटेंटिनोपल (कुस्तुंतुनिया) के धर्माध्यक्ष को रोम के धर्माध्यक्ष के बाद प्रमुखता एवं शक्ति में ‘द्वितीय’ घोषित किया गया।

जनजातीय समुदायों का ईसाई बनना

पश्चिमी रोमन साम्राज्य के पतन (ई.410) के समय तक, कई यूरोपीय जनजातियां ईसाई धर्म अपना चुकी थीं किंतु उनमें से अधिकतर जनजातियों जिनमें ओस्त्रोगोथ, विसिगोथ, बुर्गुण्डि और वाण्डाल शामिल थे, ने ईसाई धर्म की शिक्षाओं को ‘अरियासवाद’ के रूप में अपनाया था। यह एक ऐसी धार्मिक पद्धति थी जिसे कैथोलिक चर्च द्वारा पहले ही अमान्य घोषित कर दिया गया था।

यूरोपीय एरियन तथा रोमन कैथोलिकों में विवाद

जब इन जनजातीय कबीलों ने रोमन साम्राज्य के विजित प्रदेशों पर अपने छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना की तो इन जातियों के प्राचीन ईसाई सम्प्रदाय, जिसे यूरोपीय एरियन कहा जाता था और रोमन कैथोलिक सम्प्रदाय के बीच धार्मिक मतभेद उत्पन्न हो गया। अन्य जनजातीय कबीलों के राजाओं के विपरीत, फ्रेंक जाति का शासक क्लोविस (प्रथम), ई.497 में अरियासवाद सम्प्रदाय को छोड़कर कैथोलिक मत में दीक्षित हो गया।

इससे इटली में निवास कर रहे उत्तरी यूरोप के जनजातीय कबीलों में फ्रैंक कबीले की स्थिति अधिक मजबूत हो गई क्योंकि अब उसका कैथोलिक चर्च के पोप के साथ सीधा सम्बन्ध स्थापित हो गया। कुछ अन्य यूरोपीय राज्यों ने भी फ्रैंकों का अनुकरण किया। अंततः ई.589 में स्पेन में विसिगोथ और 7वीं शताब्दी ईस्वी में इटली में लोम्बर्ड्स ने भी कैथोलिक चर्च के धर्म को स्वीकार कर लिया।

सेंट बेनेडिक्ट द्वारा ईसाई मठों की व्यवस्था में सुधार

6वीं शताब्दी के आरम्भ में, यूरोपीय धार्मिक मठों ने संत बेनेडिक्ट के शासन-ढांचे का अनुसरण किया जिससे वे जन सामान्य के लिए आध्यात्मिक केंद्र होने के साथ-साथ कला, शिल्प, लेखन, पुस्तकालय और कृषि केन्द्रों की कार्यशाला आदि विविध उपयोगों के लिए विकसित हो गए। इससे इन चर्चों की लोकप्रियता में अपार विस्तार हुआ।

पोप ग्रेगरी (प्रथम) द्वारा इंग्लैण्ड में ईसाई धर्म का प्रचार

छठी शताब्दी ईस्वी के अंत में पोप ग्रेगरी (प्रथम) (ई.540-604) ने चर्च में प्रशासनिक सुधारों और ग्रेगोरियन मिशन की शुरूआत की। उन्हें पोप ग्रेगरी महान् भी कहा जाता है। ईसाई धर्म का सर्वोपरि नेता चुने जाने के पहले उन्हें रोमन सिनेटर का सम्मान प्राप्त था। वे राजनीति के क्षेत्र को छोड़कर धर्म के क्षेत्र में आ गए।

ई.590 में उन्हें पोप चुना गया। पोप ग्रेगरी ने इंग्लैण्ड में ईसाई धर्म के व्यापक प्रचार में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। पाँचवी शताब्दी ईस्वी के आरम्भ तक इंग्लैंड रोमन साम्राज्य का ही हिस्सा था किंतु रोमन साम्राज्य के बिखर जाने के बाद इंग्लैण्ड से रोमन प्रभाव तथा ईसाई धर्म दोनों का लोप होने लगा।

इस काल में ‘एंजल्स’ नामक एक जर्मन जाति जर्मनी से आकर इंग्लैण्ड में बसने लगी जो विभिन्न देवी-देवताओं की पूजा करती थी। इस जाति ने इंग्लैंड के ईसाई धर्म को नष्ट कर दिया। एक बार पोप ग्रेगरी ने कुछ अंग्रेज बालकों को रोम के बाजार में दास के रूप में बिकते हुए देखा।

पोप इन बालकों की सुंदरता से अत्यंत प्रभावित हुए और उन्होंने निश्चय किया कि ब्रिटिश द्वीप में फिर से ईसाई धर्म का प्रचार किया जाए। उन्होंने आगस्टाइन नामक एक प्रसिद्ध पादरी को इंग्लैंड भेजा। आगस्टाइन ने केंट के राजा एथलबर्ट के दरबार में जाकर ईसाई धर्म का प्रचार प्रारंभ किया।

एथलबर्ट ने फ्रांस की एक ईसाई राजकुमारी से विवाह किया था, अतः एथलबर्ट ने सरलता से ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया और आगस्टाइन को केंटरबरी में एक गिरजाघर बनाने की अनुमति प्रदान की। इस प्रकार पोप ग्रेगरी के प्रयत्नों से इंग्लैंड में ईसाई धर्म का फिर से प्रचार आरम्भ हुआ।

पोप ग्रेगरी द्वारा ईसाई धर्म के ग्रंथों का निर्माण

पोप ग्रेगरी ने ईसाई धर्म के सर्वोच्च नेता के रूप में उच्च-स्तरीय प्रशासकीय प्रतिभा का परिचय दिया। उनके पत्रों से उनकी व्यावहारिक बुद्धि और प्रशासनिक योग्यता का परिचय मिलता है। पोप ग्रेगरी ने ईसाई धर्म के उस समय तक प्रचलित ग्रंथों की समीक्षा की तथा ईसाई धर्म की मुख्य बातों को वार्तालाप के रूप में प्रस्तुत किया।

लैटिन भाषा की इन रचनाओं में उन्होंने गूढ़ विषयों के निरूपण के लिए अधिकांशतः रूपक शैली का प्रयोग किया। इस शैली में शब्द दो अर्थ रखते हैं, एक तो ऊपरी अर्थ जो स्वतः स्पष्ट होता है और दूसरा लाक्षणिक अर्थ जिससे धर्म सम्बन्धी गूढ़ विचार भी सरलता से समझ में आ जाते हैं। पोप ग्रेगरी ने ईसाई धर्म से पहले की कथाओं के स्थान पर ईसाई संतों की कहानियों का प्रचार करवाया।

उन्होंने जो कुछ भी लिखा, धर्म के व्यापक प्रचार की भावना से लिखा। उनका ध्यान विचारों की स्पष्ट अभिव्यक्ति पर था, न कि शैली पर। फिर भी उनकी भाषा में सौंदर्य और प्रभावोत्पादकता का अद्भुत समन्वय हुआ है।

दक्षिणी भूमध्य भागों से पोप के प्रभाव की समाप्ति

7वीं शताब्दी ईस्वी में मुस्लिम आक्रांताओं ने दक्षिणी भूमध्य क्षेत्र के अधिकांश भागों को जीत लिया। इस कारण इन क्षेत्रों से पोप का प्रभाव समाप्त हो गया। यहाँ तक कि स्वयं पश्चिमी ईसाई जगत के लिए भी खतरा उत्पन्न हो गया।

एम्परर और पोप के सम्बन्धों में सुधार से कैथोलिक धर्म का प्रचार

रोम के कैरोलिनगियन राजाओं ने एम्परर और पोप के बीच के सम्बन्धों को सशक्त बनाया। ई.754 में सबसे युवा राजकुमार पीपीन (पेपिन) को रोम के पोप स्टीफन (द्वितीय) द्वारा एक भव्य समारोह में ताज पहनाया गया। पीपीन ने लोम्बर्ड्स को परास्त करके कैथोलिक राज्य का विस्तार किया। जब उसका पुत्र शार्लमेन सम्राट बना तो उसने अपनी शक्ति का तेजी से विस्तार किया।

ई.782 तक वह पश्चिमी राजाओं में सबसे ताकतवर ईसाई शासक हो गया। ई.800 में उसने रोम में कैथोलिक राज्याभिषेक प्राप्त किया। उसने सम्राट के, कैथोलिक चर्च के संरक्षक के रूप में हस्तक्षेप करने के अधिकार की व्याख्या की।

सिरिलिक वर्णमाला का आविष्कार

9वीं शताब्दी ईस्वी में बुल्गारिया में संत स्यरिल और मेथोडिउस द्वारा सिरिलिक वर्णमाला का आविष्कार किया गया।

ऑर्थोडोक्स का कैथोलिक चर्च से अलगाव

9वीं सदी में, मूर्ति-भंजन तथा धार्मिक चित्रों के विनाश ने रोमन चर्च तथा पूर्वी चर्च के बीच नए सिरे से फूट की शुरूआत की। रोमन ईसाई माता मैरी तथा ईसा मसीह के चित्रों एवं मूर्तियों की पूजा करते थे। साथ ही अन्य ईसाई संतों की भी मूर्तियां एवं चित्रों को पूजाघरों में स्थान देते थे। जबकि पूर्वी ईसाई इसके विरोधी थे तथा इसे ईसाई धर्म के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध मानते थे।

9वीं शताब्दी ईस्वी में बीजेन्टाइन (कुस्तुंतुनिया) द्वारा नियंत्रित दक्षिणी इटली एवं बल्गेरियाई मिशनों में गिरिजाघर के क्षेत्राधिकारों को लेकर संघर्ष हुआ जिससे दोनों चर्चों के बीच मतभेद इतना बढ़ा कि ई.1054 में दोनों चर्चों में औपचारिक अलगाव हो गया। फूट के बाद, कुस्तुंतुनिया के ईसाई सम्प्रदाय को रूढ़िवादी चर्च कहा जाने लगा, जबकि रोम के पोप के साथ संलग्नता दिखाने वाले चर्चों को कैथोलिक कहा गया।

बाद में ई.1274 में ल्यों में आयोजित परिषद और ई.1439 में फ्लोरेंस में आयोजित परिषद में दोनों चर्चों के मतभेद दूर करने के प्रयास हुए किंतु इन प्रयासों को सफलता नहीं मिली।

पोप पर एम्परर की सर्वोच्चता सीमित करने के प्रयास

11वीं और 12वीं सदी में रोमन चर्च में आंतरिक सुधार के प्रयास किए गए। ई.1059 में पोप के चुनाव को सम्राट और कुलीनों के हस्तक्षेप से मुक्त कराने के लिए कार्डिनल कॉलेज स्थापित किया गया। ई.1122 में पोप तथा एम्परर के बीच यह सहमति हुई कि चर्च के धर्माध्यक्ष का चयन चर्च के कानून के अनुसार किया जाएगा।

पोप ग्रेगरी (सप्तम्) के काल में पोप और एम्परर के बीच ‘अलंकरण-विवाद’ भड़क उठा। रोम के एम्परर द्वारा धर्माध्यक्षों को अलंकृत किया जाता था। राजा के इस अधिकार के कारण पोप पर राजा की सर्वोच्चता प्रकट होती थी। इसलिए पोप ने एम्परर के इस अधिकार का विरोध किया।

सेंट्रल चर्च ऑर्गेनाइजेशन

14वीं सदी के आरम्भ में रोम में एक केंद्रीकृत चर्च संगठन (सेंट्रल चर्च ऑर्गेनाइजेशन) की स्थापना की गई।

याचक आदेश की स्थापना

फ्रांसिस असीसी और डोमिनिक डी गुजमान के द्वारा शहरी जीवन में पवित्रता लाने के उद्देश्य से याचक आदेश की स्थापना की गई। इन आदेशों ने विश्वविद्यालयों में चर्च के प्रभाव के विकास में बड़ी भूमिका निभाई। डोमिनिकन थॉमस एक्विनास जैसे शैक्षिक ब्रह्मविज्ञानियों ने इस तरह के विश्वविद्यालयों में अध्ययन और अध्यापन का कार्य किया। उन्होंने अरस्तू के विचारों और ईसाइयत के संयोग से ‘सुम्मा थियोलोजिका’ का निर्माण किया जो उनकी महत्त्वपूर्ण बौद्धिक उपलब्धि थी।

जॉन हस वैक्लिफ का जीवित ही अग्नि दहन

ई.1305 में पोप क्लीमेंट (पंचम्) रोम छोड़कर फ्रांस के अविगानो शहर में चला गया। इस कारण पोप का पद फ्रेंच-प्रभुत्व के अधीन हो गया। ई.1376 में पोप के पुनः रोम लौट आने पर अविगानो के पोप का पद समाप्त हो गया किंतु ई.1378 में रोम तथा अविगानो में और ई.1409 में रोम तथा पीसा के बीच पोप के पद के लिए विवाद खड़े हुए।

पश्चिमी ईसाई संघ के मतभेद का कारण कुछ लोगों द्वारा पोप की एकल प्रधानता के स्थान पर सामूहिक अधिकार की मांग करना था। इस मांग को ईसाई संघ का समर्थन भी प्राप्त हुआ परन्तु जब मार्टिन (पंचम्) पोप बना तो ई.1417 में कोंस्टेंस की परिषद् में इस निर्णय को पलट दिया गया और यह घोषणा की गई कि- ‘पोप ने ईसा से अधिकार प्राप्त कर लिया है।

इस घोषणा का समर्थन करते हुए इंग्लैण्ड के निवासी जॉन वैक्लिएफ ने लिखा कि ‘चर्च की चिरकालिक स्थिति को बाइबिल में देखा जा सकता है और यह सभी के लिए उपलब्ध है।’

प्राग के जॉन हस वैक्लिफ ने इस घोषणा का विरोध किया। हस को लोगों का विशाल समर्थन प्राप्त होने लगा। इस कारण कॉन्स्टेंस की परिषद् में हस को धर्मनिन्दा का दोषी घोषित किया गया और उसे जीवित जला देने की सजा सुनाई गई।

चर्च के आंतरिक भ्रष्टाचार में सुधार के प्रयास

कॉन्स्टेंस की परिषद, बेसल की परिषद और पाँचवीं लैटर्न परिषद ने चर्च के आंतरिक भ्रष्टाचार में सुधार लाने के प्रयास किए। ई.1460 में कांस्टेंटिनोपल में तुर्कों के पतन के साथ पोप पायस (द्वितीय) ने एक सामान्य परिषद के गठन से मना कर किया। इस कारण पोप के पद पर रोदेरिगो बोर्गिया (पोप अलेक्जेंडर षष्ठम्) को चुना गया। पोप जूलियस (द्वितीय) ने स्वयं को एक धर्मनिरपेक्ष पोप के रूप में प्रस्तुत किया।

16वीं सदी के प्रारंभिक दिनों में डेसिडेरियस इरास्मस नामक व्यक्ति ने ‘मूर्खता की प्रशंसा’ नामक एक रचना प्रकाशित करवाई जिसमें चर्च में सुधार नहीं करने के लिए चर्च की आलोचना की गई थी। ई.1517 में जर्मनी के मार्टिन लूथर ने कुछ ईसाई धर्माध्यक्षों को अपना एक शोध भेजा जिसमें उसने कैथोलिक सिद्धांत के मुख्य बिंदुओं का उल्लेख करते हुए चर्च द्वारा की जा रही क्षमा-पत्रों की बिक्री का विरोध किया।

इसी प्रकार स्विट्जरलैंड में हुर्ल्द्यच ज्विन्गली, जॉन केल्विन और एनी ने भी कैथोलिक शिक्षाओं की आलोचना की। विभिन्न लोगों द्वारा चर्च के समक्ष खड़ी की जा रही ये चुनौतियां ही आगे चल कर यूरोपीय आंदोलन में बदल गईं जिसे प्रोटेस्टेंट धर्मसुधार कहा जाता है।

जर्मनी में प्रोटेस्टेंट सुधार, स्च्माल्काल्दिक लीग और कैथोलिक सम्राट चार्ल्स (पंचम्) के बीच नौ वर्षीय युद्ध का कारण बना जो ई.1518 में एक बहुत ही गंभीर तीस वर्षीय युद्ध में बदल गया। ई.1562 से 1598 के बीच फ्रांस में संघर्ष की एक लम्बी शृंखला चली जिसे धर्म की फ्रांसिसी लड़ाई कहते हैं। ये युद्ध हुगुएनोट्स और फ्रेंच कैथोलिक लीग की सेनाओं के मध्य लड़े गए। इस संघर्ष में ‘संत बर्थोलोमेव दिवस नरसंहार’ महत्त्वपूर्ण मोड़ सिद्ध हुआ।

ई.1598 के नैनटेस के आदेश के साथ धार्मिक सहिष्णुता का पहला प्रयोग आरम्भ किया गया। इस आदेश  ने प्रोटेस्टेन्ट्स को नागरिक और धार्मिक मान्यता प्रदान की। पोप क्लेमेंट (अष्ठम्) द्वारा अत्यंत हिचहिचाकहट के साथ इस ओदश को स्वीकार कर लिया गया।

इंग्लैण्ड में हेनरी (अष्ठम्) के शासनकाल में एक राजनीतिक विवाद के रूप में धार्मिक सुधार आरम्भ हुए। जब पोप ने सम्राट हेनरी के विवाह के समय सम्राट की एक याचिका को अस्वीकार कर दिया तो सम्राट ने स्वयं को ब्रिटिश चर्च का प्रमुख घोषित कर दिया। हेनरी ने बहुत से ईसाई मठों, फ्रेयारिस, कॉन्वेंट और धार्मिक स्थलों की सम्पत्ति भी जब्त कर ली।

उसके शासनकाल के अंत में एक व्यापक सैद्धांतिक और मरणोत्तर सुधारों की शुरूआत की गई जो एडवर्ड (षष्ठम्) के शासनकाल और आर्क बिशप थॉमस क्रेन्मेर के समय भी जारी रहे। महारानी मैरी (प्रथम) के शासनकाल में इंग्लैंड संक्षिप्त रूप से रोम के चर्च के साथ पुनः संयुक्त हो गया किंतु महारानी एलिजाबेथ (प्रथम) ने अलग चर्च की स्थापना करके कैथोलिक पादरियों पर नियंत्रण स्थापित किया तथा कैथोलिकों को राजनीतिक जीवन में भाग लेने से रोका।

ई.1545-1563 की अवधि में ट्रेंट की परिषद ने काउंटर सुधारों को आगे बढ़ाया। उसने केंद्रीय कैथोलिक शिक्षाओं की पुष्टि की तथा तत्त्वान्तरण और मोक्ष प्राप्ति के लिए प्यार तथा आशा के साथ-साथ श्रद्धा रखने पर बल दिया। इसने संरचनात्मक सुधार भी किया। पादरियों की शिक्षा में सुधार और रोमन करिया के मध्य क्षेत्राधिकार को मजबूत करने का कार्य किया।

काउंटर सुधार की शिक्षाओं को लोकप्रिय बनाने के लिए, चर्च ने कला, संगीत और वास्तुकला में ‘बैरोक शैली’ को प्रोत्साहित किया। 16वीं शताब्दी के मध्य में ‘द सोसायटी ऑफ यीशू’ की औपचारिक रूप से स्थापना की गई। इसी समय टेरेसा ऑफ अविला, फ्रांसिस डि सेल्स और फिलिप्स नेरी जैसे चरित्रों के लेखन ने चर्च में नवीन उत्साह का संचार किया।

17वीं सदी के उत्तरार्द्ध में, पोप इनोसेंट (नवम्) ने चर्च के पदानुक्रम में होने वाली अनियमितताओं में सुधार लाने के प्रयत्न किए। उन्होंने धर्मपद बेचने, भाई-भतीजावाद करने और पोप द्वारा अति-व्यय किए जाने पर रोक लगाई। पोप इनोसेंट को एक बड़ा ऋण-भार विरासत के रूप प्राप्त हुआ था।

उन्होंने मिशनरी की गतिविधियों को बढ़ावा दिया, तुर्की के आक्रमण के खिलाफ यूरोप को एकजुट करने का प्रयास किया, प्रभावशाली कैथोलिक शासकों को प्रोटेस्टेन्ट्स से विवाह करने की छूट प्रदान की तथा धार्मिक उत्पीड़न की दृढ़ता से निंदा की।

मध्यकाल में कैथोलिक मत स्पेन, पुर्तगाल, अमेरिका, एशिया और ओशिनिया में फैल गया। पोप अलेक्जेंडर (षष्ठम्) ने स्पेन और पुर्तगाल को नई खोजी गई भूमियों के सर्वाधिक अधिकार दिए और पत्रेनेतो व्यवस्था के माध्यम से यह सुनिश्चित किया कि औपनिवेशिक व्यवस्था राज्य के अधिकारियों की अनुमति से हो न कि वेटिकन प्रणाली से।

औद्योगिक युग

पोप लियो (तेरहवें) ने औद्योगिक क्रांति के फलस्वरूप उत्पन्न सामाजिक चुनौतियों की प्रतिक्रिया के रूप में ‘एनसाइक्लिकल रेरम नोवार्म’ प्रकाशित किया। उसने कैथोलिक सामाजिक शिक्षण को प्रारम्भ किया तथा कार्यप्रणाली स्थितियों के विनियमन, निर्वाह-मजदूरी की स्थापना तथा व्यापार संघ बनाने के लिए श्रमिकों के अधिकार की वकालत की।

अभ्रांतता के सिद्धांत की पुष्टि

सैद्धांतिक मामलों में चर्च की अभ्रांतता हमेशा से चर्च का सिद्धांत रही थी। ई.1870 में पहली वेटिकन परिषद में पोप ने ‘अभ्रांतता के सिद्धांत’ की औपचारिक रूप से पुष्टि की।

डॉन बॉस्को की सेल्सियन सिस्टर्स

ई.1872 में जॉन बॉस्को और मारिया माजारेल्लो ने इटली में ‘सेल्सियन सिस्टर्स ऑफ डॉन बॉस्को’ नामक संस्था स्थापित की जो वर्ष 2009 में 14,420 सदस्यों के साथ दुनिया में महिलाओं की सबसे बड़ी कैथोलिक संस्था बन गई।

वेटिकन सिटी के प्रभुत्व को स्वीकृति

इटली के एकीकरण के बाद पोप के पद तथा इटैलियन सरकार के बीच विवाद उत्पन्न हो गया। यह विवाद ई.1929 की लेटरन संधि द्वारा वेटिकन के प्रभुत्व को पवित्र स्वीकृत किये जाने के बाद ही सुलझ पाया।

बीसवीं सदी में कैथोलिक पादरियों पर अत्याचार

20वीं सदी में दुनिया के विभिन्न देशों में राजनैतिक कट्टरपंथियों तथा पादरी-विरोधी सरकारों ने कैथोलिक चर्चों को क्षति पहुँचाई। मैक्सिको में 3,000 से अधिक पादरी या तो मार दिए गए  या निर्वासित कर दिये गए। चर्चों को अपवित्र किया गया, उनका मजाक उड़ाया गया, ननों के साथ बलात्कार किया गया तथा पकड़े गए पादरियों को गोली मार दी गई।

सोवियत संघ में ई.1917 की बोल्शेविक क्रांति के बाद चर्चों तथा कैथोलिक पादरियों पर अत्याचार आरम्भ हुए जो ई.1930 में भी जारी रहे। पादरियों की फांसी और निर्वासन, धार्मिक साधनों का अधिग्रहण और चर्चों का बंद होना आम बात थी। स्पेन में भी कैथोलिक पादरियों एवं चर्चों पर भयानक अत्याचार हुए।

रोम के ग्यारहवें पोप पायस ने इन तीन देशों (मैक्सिको, रूस तथा स्पेन) को एक ‘भयानक त्रिभुज’ के रूप में तथा यूरोप और अमेरिका में विरोध की विफलता को एक ‘मौन षड़यन्त्र’ के रूप में उल्लिखित किया।

द्वितीय विश्व युद्ध में कैथोलिक ईसाइयों एवं यहूदियों का उत्पीड़न

द्वितीय विश्वयुद्ध से पहले नाजी जर्मनी में चर्चों को नुक्सान पहुँचाया गया। सितम्बर 1939 में द्वितीय विश्व युद्ध के शुरू होने के बाद, चर्च ने पोलैंड के हमले तथा बाद में 1940 में नाजियों पर हुए हमलों की निंदा की। नाजियों के अधिकार वाले क्षेत्र में हजारों कैथोलिक पादरियों, ननों और भाइयों को जेल भेज दिया गया तथा मार दिया गया।

मैक्सिमिलियन कोल्बे तथा एडिथ स्टैन आदि ईसाई-संत भी इन्हीं में शामिल थे। युद्धकाल में, पोप पायस (तेरहवें) ने चर्च अनुक्रम को निर्देशित किया कि वे नाजियों से यहूदियों की रक्षा करें। कुछ इतिहासकारों द्वारा बारहवें पायस को लाखों यहूदियों को बचाने में मदद देने का श्रेय दिया गया जबकि दूसरी तरफ कुछ इतिहासकारों द्वारा यहूदी विरोधवाद युग को प्रोत्साहित करने तथा पायस द्वारा नाजियों के अत्याचारों को रोकने में नाकामी के लिए चर्च को दोषी माना गया।

कम्युनिस्ट सरकारों द्वारा कैथोलिक पादरियों का उत्पीड़न

द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद पूर्वी यूरोप में अनेक देशों की कम्युनिस्ट सरकारों ने धार्मिक स्वतंत्रता को प्रतिबंधित किया। हालांकि कम्युनिस्ट शासन के साथ कुछ पादरियों और धार्मिक लोगों ने सहयोग किया। इस काल में अनेक कैथोलिक पादरियों को कैद कर लिया गया, उन्हें निर्वासित किया गया या मार दिया गया।

कम्युनिस्ट शासकों की धारणा थी कि यूरोप में साम्यवाद के पतन के लिए चर्च एक महत्त्वपूर्ण खिलाड़ी होगा। ई.1949 में चीन में कम्युनिस्टों की सत्ता में वृद्धि, समस्त विदेशी मिशनरियों का निष्कासन लेकर आयी। नई सरकार ने राष्ट्रवादी चर्चों की स्थापना की तथा अपनी पसंद के पादरी नियुक्त किए। रोम ने इन पादरियों को अस्वीकार कर दिया किंतु जब चीन की सरकार अपनी जिद पर अड़ी रही तो रोम ने इन पादरियों को स्वीकार कर लिया तथा उन्हें कैथोलिक सम्प्रदाय के भीतर मान लिया।

ई.1960 की सांस्कृतिक क्रांति के दौरान चीन में सभी धार्मिक प्रतिष्ठान बंद कर दिए गए। कुछ वर्षों बाद जब चीनी चर्च फिर से खुले तब उन्हें राष्ट्रवादी चर्चों के नियंत्रण में रखा गया। कई कैथोलिक पादरियों तथा याजकों ने रोम के प्रति निष्ठा त्यागने से मना कर दिया। इस पर चीन की सरकार ने उन्हें जेल भेज दिया।

ऑर्थोडॉक्स चर्च एवं प्रोटेस्टेण्ट्स से सम्बन्ध मधुर बनाने की पहल

पोप जॉन (तेबीसवें) द्वारा ई.1962 में द्वितीय वेटिकन परिषद् शुरू की गई। पोप के समर्थकों ने इस परिषद् को ‘झरोखा खुलने की शुरूआत’ कहकर इसका स्वागत किया। इस पारिषद् ने लैटिन चर्च के भीतर उपासना पद्धति में परिवर्तन किया।

चर्च के मिशन का पुनः-संकेन्द्रण किया गया एवं सार्वभौमिकता को पुनः परिभाषित किया गया ताकि पूर्वी पारंपरिक चर्च (ऑर्थोडॉक्स चर्च) एवं प्रोटेस्टेण्ट्स के साथ सम्बन्ध मधुर बनाए रखे जा सकें।

परम्परावादी कैथोलिकों जिनका प्रतिनिधित्व मार्शल लेफेब्रे आदि कर रहे थे, ने परिषद् की कटु आलोचना करते हुए कहा कि इसने लैटिन जनता की पवित्रता को दूषित किया, ‘झूठे धर्मों’ के प्रति धार्मिक उदासीनतावाद को बढ़ावा दिया और ऐतिहासिक कैथोलिक धर्म-सिद्धांत एवं परम्परा के साथ समझौता किया।

बिशप कार्लोस को नोबल पुरस्कार

ई.1966 में बिशप कार्लोस फिलिप जिमेनेन्स बेलो को ईस्ट तिमोर युद्ध में उचित एवं शांतिपूर्ण समाधान के लिए कार्य करने पर नोबल पुरस्कार दिया गया।

प्रथम गैर-इटालवी पोप

ई.1978 में, पोप जॉन पॉल (द्वितीय) 455 वर्षों में प्रथम गैर-इटालवी पोप बने। उनका 27 वर्षों का कार्यकाल, रोम के पोपों के इतिहास में सबसे लंबे कार्यकालों में से एक था। सोवियत संघ के अंतिम शासक मिखाइल गोर्बाचोव ने पोप जॉन पोल (द्वितीय) को ही यूरोप में साम्यवाद के पतन को तीव्र करने के लिए जिम्मेवार माना।

उन्होंने तृतीय विश्व में ऋण राहत एवं इराकी युद्ध के विरुद्ध आंदोलन का समर्थन किया। पोप ने यौन-नैतिकता के प्रश्न पर पक्के रूढ़िवादी ओपस देई को एक वैयक्तिक धर्माधिकारी बनाया। पोप जॉन पॉल (द्वितीय) के कार्यकाल में ई.1979 में कलकत्ता की कैथोलिक नन मदर टेरेसा को भारत के गरीब लोगों के बीच मानवतावादी कार्य करने के लिए नोबल शांति पुरस्कार दिया गया।

1980 के दशक में पोप जॉन पॉल (द्वितीय) ने लैटिन अमेरिका में उदारवादी धर्मविज्ञान पर मार्क्सवादी प्रभाव को अस्वीकृत करते हुए कहा कि चर्च को गरीब एवं पीड़ित के लिए विभेदकारी राजनीति या क्रांतिकारी हिंसा से कार्य नहीं करना चाहिए। उन्होंने अपने कार्यकाल में 483 संतों को संत का दर्जा दिया।

यह अपने सभी पूर्ववर्ती पोपों द्वारा घोषित किए गए संतों की कुल संख्या के जोड़ से भी अधिक था। उन्होंने यहूदियों एवं मुस्लिमों के साथ मेल-मिलाप के लिए कार्य किया, चर्च के उत्पीड़कों को क्षमा किया एवं चर्च द्वारा की गई ऐतिहासिक गलतियों के लिए क्षमा मांगी, जिसमें यहूदी औरतें, स्वदेशी लोग, मूलनिवासी, अप्रवासी, गरीब एवं अजन्मों के विरुद्ध की गई धार्मिक असहिष्णुता एवं अन्याय शामिल हैं। ई.1986 में उन्होंने विश्व युवा दिवस स्थापित किया।

इस काल में मानव अधिकारों एवं सामाजिक न्याय हेतु चल रहे आंदोलनों के कारण कैथोलिक पादरियों एवं बिशपों को शहादत देनी पड़ी, विशेषकर लैटिन अमेरिका में। ई.1980 में अल सल्वाडोर के आर्क-बिशप आस्कर रोमेरियो को वेदी पर मार दिया गया एवं ई.1989 में मध्य अमेरिकी विश्वविद्यालय के छः जेसुसुईटों की हत्या कर दी गई।

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