Thursday, November 21, 2024
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अहमदपुर चौरोली

अंग्रेजों का बनाया हुआ यूनाईटेड प्रोविंस (यू.पी.) अब उत्तर प्रदेश (यू.पी.) कहलाता है। इस प्रांत के पश्चिमी हिस्से में एक छोटा सा गांव है अहमदपुर चौरोली।

यह गांव अविभाजित पंजाब एवं संयुक्त प्रांत की सीमा पर बहने वाली यमुना नदी से लगभग 10-12 किलोमीटर दूर था। गांव के चारों ओर गेहूँ और गन्ने के विशाल खेत लहलहाते थे और धरती के चप्पे-चप्पे पर खुशहाली का साम्राज्य था।

अहमदपुर चौरोली गांव में सभी जातियों के लोग सदियों से मिलजुल कर रहते आए थे। गांव के शांत वातावरण एवं खुशहाली को देखते हुए ही मुगलों के समय में निकटवर्ती रन्हेरा गांव से शाहजी सेढ़ूराम ने अहमदपुर चौरोली में आकर डेरा जमाया। उनके दो पुत्र थे- लाला केवलराम एवं लाला काशीराम।

समय के साथ शाहजी सेढ़ूराम के परिश्रमी वंशजों ने बहुत उन्नति की। जब इलाहाबाद की संधि के बाद ई.1765 में अंग्रेजों ने मुगल बादशाह को पेंशन पर भेज दिया तो अहमदपुर चौरोली का क्षेत्र भी अंग्रेजों के अधीन हो गया।

अंग्रेजों ने देश में नया राजस्व ढांचा खड़ा किया जिसका आधार जमींदारी प्रथा थी। लाला काशीराम के वंशजों ने भी अहमदपुर चौरोली एवं उसके आसपास बड़ी-बड़ी जमींदारियां खरीदीं तथा वे रईस कहलाने लगे। आसपास के सारे गांवों से बिल्कुल अलग इस गांव में लालाओं की बड़ी हवेलियां, नोहरे एवं दुकानें थीं।

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जब 4 जून 1947 को माउण्टबेटन योजना घोषित हो गई और भारत विभाजन में कुछ ही दिन रह गए तब चौरोली गांव के लोगों में भी वैसी ही बेचैनी फैल गई, जैसी उन दिनों भारत के प्रत्येक गांव में देखी जा सकती थी। गांव में एकाध मुस्लिम परिवार भी रहा करता था जिसके कुछ युवक तांगा चलाया करते थे। एक युवक हर शुक्रवार को नमाज पढ़ने के लिए निकटवर्ती जेवर कस्बे में भी जाया करता था जहाँ मस्जिद थी। उन्हीं दिनों कुछ मस्जिदों में पाकिस्तान निर्माण के लिए चंदा एकत्रित किया जाने लगा। गांव के एक युवक ने भी दो सौ रुपए दिए ताकि किसी तरह पाकिस्तान बन जाए। उन दिनों एक तांगा चलाने वाले परिवार के लिए 200 रुपया बहुत बड़ी बात थी। तब जार्ज षष्ठम् का आधी चांदी वाला एक रुपया, एक रुपए में ही चला करता था जो अब लगभग 400 रुपए मूल्य का है।

उन दिनों पूरे क्षेत्र में यह अफवाह जोरों पर थी कि आने वाली 15 अगस्त को पूरे देश में बहुत बड़ा बलवा होगा। ग्रंथ लेखक के पिता श्री गिरिराज प्रसाद गुप्ता को भी उन्हीं युवकों में से किसी ने संभावित बलवे की बात बताई थी। उन्होंने (ग्रंथ लेखक के पिता ने) अपने विद्यालय के शिक्षक पण्डित कर्णसिंहजी से इस बारे में पूछा जो कि दूर-दूर तक के गांवों में बहुत ख्याति-प्राप्त एवं सम्मानित व्यक्ति थे।

पण्डितजी ने जवाब दिया कि उस दिन कुछ नहीं होगा, पूरी तरह शांति रहेगी। पण्डितजी की बात पूरी तरह सही निकली क्योंकि जब 15 अगस्त आया तो अहमदपुर चौरोली गांव वैसे ही शांत और सामान्य बना रहा जैसा अन्य दिनों में रहा करता था।

गांव के लोगों के भाईचारे के कारण चौराली गांव तथा उसके आसपास के लगभग सारे गांव पूरी तरह शांत रहे किंतु अहमदपुर चौरोली गांव से लगभग 10-12 किलोमीटर दूर बहने वाली यमुनाजी के उस पार से चिंताजनक खबरें आने लगीं। यमुना-पार का वह क्षेत्र उन दिनों अविभाजित पंजाब में था तथा आजकल हरियाणा प्रांत में है। इस क्षेत्र से कुछ दूरी पर रेवाड़ी-गुड़गांव का इलाका लगता था जहाँ उन दिनों मेवों ने पृथक् मेवस्थान के लिए हिंसक कार्यवाहियां चला रखी थीं।

महाभारत में आए प्रसंग एवं पौराणिक आख्यानों के अनुसार, प्रस्तावित मेवस्थान वही क्षेत्र था जहाँ भगवान श्रीकृष्ण और अर्जुन ने खाण्डव वन का दहन करके नागों का सफाया किया था। ई.1947 के आसपास इस पूरे क्षेत्र में मेव जाति बड़ी संख्या में निवास करती थी। एक दिन गांव में खबर आई कि मेव बड़ी संख्या में एकत्रित होकर यमुना-पार के गांवों पर हमला करेंगे।

मेवों की योजना यह थी कि हिन्दुओं से यह पूरा इलाका खाली कराकर इसे मेवस्थान में बदल दिया जाए। उनकी धारणा थी कि चूंकि पंजाब पाकिस्तान में जा रहा है इसलिए मेवों द्वारा बनाया जा रहा मेवस्थान भारत-पाकिस्तान के बीच में होगा तथा आसानी से पाकिस्तान में शामिल हो जाएगा।

जब मेवों के आक्रमण के समाचार आए तो चौरोली एवं उसके आस-पास के बहुत से गांवों के हिन्दू युवक लाठी, बल्लम और भाले लेकर यमुना पार के उन गांवों में जाकर जमा हो गए जहाँ मेवों के हमले होने की आशंका थी। ये खेतीहर गांव थे जिनमें किसी भी घर में तलवार का पाया जाना एक कठिन बात थी। गांव के लोग जानवरों से अपने खेतों को बचाने के लिए लाठी, बल्लम एवं भाले ही रखा करते थे।

जब सशस्त्र मेवों ने हमले किए तो हिन्दू युवकों ने उनका मार्ग रोका और उन्हें सफलता पूर्वक रेवाड़ी की ओर खदेड़ दिया। इस संघर्ष में भाग लेने वालों में ग्रंथ लेखक के पितामह श्री मुकुंदीलाल गुप्ता भी थे, हालांकि उस समय अपने परिवार में वे अकेले वयस्क पुरुष थे तथा घर की महिलाओं के मना करने पर भी वे इस संघर्ष में भाग लेने के लिए गए। मेवों के भाग जाने के तीन-चार दिन बाद गांव के युवक वापस लौटकर आए।

उन दिनों गढ़-गंगा में प्रत्येक पूर्णिमा को मेला लगता था। इस अवसर पर चौरोली गांव से लगभग 20-25 गाड़ियों में बैठकर लोग गंगा-स्नान को जाया करते थे। इस क्षेत्र में मुसलमानों के कई गांव थे। जब साम्प्रदायिक दंगे अपने चरम पर थे तो एक बार पूर्णिमा के मेले में बलवा मचा इस अवसर पर निकटवर्ती भुन्ना गांव के जाट लड़कों ने बड़े पराक्रम का प्रदर्शन किया। उस समय यह कहावत चल पड़ी थी- ‘गढ़ गंगा के जाट न होते, तो लोगों के ठाठ न होते।’

इस दंगे के बाद मची भगदड़ में कुछ युवकों ने लगभग 25-30 औरतों को पकड़ लिया। उन्होंने अपनी गाड़ियों में से सवारियां उतार दीं और इन पकड़ी हुई औरतों को बैठा लिया। अहमदपुर चौरोली तथा उसके आसपास के कुछ गांवों के युवक जिनके विवाह नहीं हो रहे थे, उन्होंने उन औरतों से विवाह करके गृहस्थियां बसा लीं। इस सम्बन्ध में एक मुक्तक भी बना था जिसके कुछ अंश इस प्रकार थे-

संवत् 2003 का किस्सा तुम्हें सुनाते हैं…….

सुतन्ने उनके फाड़-फाड़ धोती उनको पहराय दई……..

गंगाजी उनको नह्वा-नह्वा गंगादेई उनका नाम धरा……..।

कहने को यह अहमदपुर चौरोली जैसे एक छोटे से गांव की छुट-पुट घटनाएं हैं किंतु उन दिनों उत्तर भारत के गांवों में इस तरह के दृश्य बहुत साधारण बात बन गए थे। इन दंगों में बहुत से लोगों को अपने प्राणों से हाथ धोने पड़े। बहुत से घायल हुए और अनगिनत स्त्रियों का सतीत्व भंग किया गया। वे स्त्रियां सचमुच भाग्यशाली थीं जिन्हें दंगों की हिंसा के बाद भी अपना लिया जाता था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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