विलियम हडसन ने महंगे रत्न हड़पने के लिए मुगल शहजादों की हत्या कर दी। उसने दिल्ली के जिहादी नौजवानों के सामने ही बहादुरशाह के पुत्रों को नंगा किया और उन्हें गोली मार दी। जिहादी कुछ भी नहीं कर सके।
20 सितम्बर 1857 की रात्रि में विलियम हॉडसन बादशाह बहादुरशाह जफर, बेगम जीनत महल एवं शहजादे जवांबख्त को बंदी लेकर हुमायूँ के मकबरे से लाल किले में ले आया किंतु बादशाह के दो शहजादे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान तथा बादशाह का पोता अबू बकर अभी भी विलियम हॉडसन की पकड़ से दूर थे।
इलाही बख्श जानता था कि ये तीनों शहजादे कहाँ हैं किंतु उसने जानबूझ कर यह सूचना विलियम हॉडसन से छिपाई थी। इसके दो कारण थे। पहला कारण तो यह था कि इलाही बख्श यह देखना चाहता था कि विलियम हॉडसन अपने उस वचन पर स्थिर रहता है या नहीं कि यदि बादशाह आत्म समर्पण कर देगा तो हॉडसन बहादुरशाह जफर, बेगम जीनत महल, उसके पिता मिर्जा कुली खाँ और शहजादे जवांबख्त को जान से नहीं मारेगा।
दूसरा कारण यह था कि बादशाह का पोता मिर्जा अबू बकर इलाही बख्श की बेटी का पुत्र था। इलाही बख्श नहीं चाहता था कि अबू बकर हॉडसन के हाथ लगे किंतु जब इलाही बख्श ने देखा कि हॉडसन ने शाही परिवार के किसी भी व्यक्ति को जान से नहीं मारा तो 21 सितम्बर 1857 की प्रातः दुष्ट इलाही बख्श ने हॉडसन को यह सूचना दे दी कि शहजादे मिर्जा मुगल और खिजर सुल्तान तथा बादशाह का पोता अबू बकर भी हुमायूँ के मकबरे में छिपे हुए हैं।
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यह सूचना पाते ही विलियम हॉडसन की बांछें खिल गईं। संभवतः इलाही बख्श यह सोचता था कि वह अपने दौहित्र को मरने से बचा लेगा इसलिए उसने शहजादों के प्राण बख्शने की प्रार्थना की किंतु विलियम हॉडसन ने इलाही बख्श की एक भी दलील नहीं सुनी और वह सीधा मेजर जनरल विल्सन के पास पहुंचा।
हॉडसन ने जब विल्सन को बताया कि तीन शहजादे अब भी मकबरे में छिपे बैठे हैं और मुझे उन्हें पकड़ने की अनुमति चाहिए तो विल्सन भड़क गया। वह इस बात से चिढ़ा हुआ बैठा था कि हॉडसन बड़ी चालाकी से जीत का सेहरा अपने सिर पर बांधता जा रहा है। इसलिए विल्सन ने विगत रात्रि की ही भांति जवाब दिया कि जो करना है, अपने बलबूते पर करो। यह सुनते ही हॉडसन अपने एक सौ घुड़सवारों को लेकर हुमायूँ के मकबरे की तरफ चल दिया। इस समय सुबह के आठ बजे थे। मौलवी रजब अली तथा इलाही बख्श आज भी हॉडसन के साथ थे।
हुमायूँ के मकबरे का दृश्य एक ही रात में बदल चुका था। आज वहाँ कल की तरह मुट्ठी भर जिहादी नहीं थे। केवल एक रात में शहजादों ने पूरी तैयारी कर ली थी। आज हुमायूँ के मकबरे में तीन हजार सशस्त्र मुसलमान मौजूद थे जो शहजादों को अंग्रेजों द्वारा बंदी बनाए जाने से रोकने के लिए अपने प्राण न्यौछावर करने को आए थे।
हॉडसन ने मौलवी रजब अली तथा इलाही बख्श से कहा कि कि वे मकबरे के भीतर जाएं तथा शहजादों से बात करके उन्हें आत्मसमर्पण के लिए तैयार करें। मौलवी रजब अली तथा इलाही बख्श को जिहादियों के विरोध का सामना करना पड़ा। जिहादी हर हाल में लड़ते हुए मरना चाहते थे किंतु शहजादों ने उन्हें शांत किया तथा अपनी ओर से प्रस्ताव भिजवाया कि यदि उनकी जान बख्शने का वचन दिया जाए तो वे आत्मसमर्पण करने को तैयार हैं।
इस पर हॉडसन ने जवाब भिजवाया कि समर्पण बिना शर्त होगा। मेजर मॉकडॉवेल भी इस अवसर पर हुमायूँ के मकबरे पर मौजूद था। उसने लिखा है कि हम केवल एक सौ घुड़सवारों को लेकर आए थे तथा दिल्ली यहाँ से 6 मील दूर था जबकि मकबरे में इस समय लगभग तीन हजार सशस्त्र जिहादी मौजूद थे। मकबरे के निकट निजामुद्दीन की बस्ती में भी हथियारों से लैस तीन हजार मुसलामन तैयार थे जो किसी भी समय मकबरे में पहुंच सकते थे। जब हॉडसन ने शहजादों के बिना शर्त आत्मसमर्पण की बात कही तो जिहादियों में उत्तेजना बढ़ गई किंतु अंत में शहजादों ने आत्मसमर्पण करने का ही निर्णय लिया। संभवतः उन्हें लगता था कि शाही परिवार के सदस्यों को जान से नहीं मारा जाएगा।
वीर सावरकर ने लिखा है- ‘उसी समय विश्वासघाती इलाही बख्श और मुंशी रजबअली ने अंग्रेज अधिकारियों के चरणों में उपस्थित होकर उन्हें यह सूचना दी कि शहजादे तो अभी भी हुमायूँ के मकबरे में छिपे बैठे हैं। यह सूचना मिलने पर कैप्टन हडसन ने तुरंत ही प्रस्थान कर दिया तथा शहजादों को बंदी बनाकर एक गाड़ी में बैठा दिया।’
शहजादों को बंदी बनाते ही हॉडसन ने जिहादियों को आदेश दिया कि यदि वे शहजादों की सलामती चाहते हैं तो अपने हथियार धरती पर रख दें। हॉडसन को भय था कि यदि वह इन लोगों को निशस्त्र किए बिना ही यहाँ से निकल गया तो ये लोग पीछे से आकर हॉडसन एवं उसके साथियों पर हमला बोल देंगे। शहजादे अब हॉडसन्स हॉर्स के सिक्ख सिपाहियों के नियंत्रण में थे। इसलिए जिहादियों ने अपने हथियार धरती पर रख दिए।
हॉडसन ने अपने सिपाहियों को आदेश दिया कि वे इन हथियारों को गाड़ी में रख लें। हथियार एकत्रित करने में दो घण्टे का समय लग गया। इसके बाद हॉडसन अपने बंदियों को लेकर दिल्ली के लिए रवाना हुआ।
जब विलियम हॉडसन एवं उसके घुड़सवार, शहजादों को लेकर दिल्ली शहर के परकोटे तक पहुंचे तो जिहादियों की एक भीड़ ने उन लोगों का रास्ता रोका। हॉडसन ने लिखा है कि शहजादों के चारों ओर एक खतरनाक मजमा जमा हो गया। ऐसा लगता था कि वह उनको छुड़ाने ही वाले हैं। कुछ लोगों के अनुसार मजमा बहुत छोटा था तथा उसका कोई खतरनाक इरादा नहीं था।
अपने आप को जिहादियों की भीड़ से घिरा हुआ देखकर हडसन ने मुगल शहजादों की हत्या करने का निश्चय किया। किंतु हॉडसन ने तीनों शहजादों को गाड़ी से उतरने को कहा। फिर नंगा होने को कहा। फिर एक कॉल्ट रिवॉल्वर निकालकर उसने तीनों को गोली मार दी। फिर उसने लाशों की मुहर वाली अंगूठियां और फीरोजे के बाजूबंद उतारे और अपनी जेब में रख लिए। उनकी जड़ाऊ तलवारों पर भी कब्जा कर लिया।
वीर सावरकर ने लिखा है- ‘जब इन शहजादों को लेकर यह गाड़ी नगर में पहुंची तो हडसन ने गाड़ी के पास पहुंचकर चिल्लाना आरम्भ किया, अंग्रेज महिलाओं और बालकों का वध करने वालों के प्राण लेना ही उचित है। उसी समय अंग्रेज सैनिकों ने इन शहजादों के शरीर पर से सभी आभूषण उतार लिए तथा उन्हें गाड़ी से खींचकर नीचे पटक दिया। तत्काल ही हडसन ने इन तीनों शहजादों पर अपनी बंदूक से निशाने साधे, गोलियां दागीं और उनके प्राण पंखेरू उड़ गए।’
इस प्रकार तैमूर वंश के वृक्ष की अंतिम लताएं भी हडसन की गोलियों ने नष्ट कर दी। हडसन ने तीनों शहजादों के शव थाने के समक्ष फेंक देने के आदेश दिए। कुछ समय तक तो चील और गिद्ध इन निर्जीव देहों से अपनी भूख बुझाते रहे और उसके उपरांत ये क्षत-विक्षत शव घसीटकर यमुना के तट पर फेंक दिए गए।
जिस स्थान पर मुगल शहजादों की हत्या की गई थी, उसके निकट ही दिल्ली के परकोटे में बना एक दरवाजा था जिसे लाल दरवाजा कहते थे किंतु उस दिन से इस दरवाजे को खूनी दरवाजा कहा जाने लगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता