दिसम्बर 1540 में जब कामरान ने हुमायूँ को लाहौर से न तो काश्मीर की तरफ जाने दिया और न बदख्शां जाने दिया तो हुमायूँ ने मुल्तान जाने वाला रास्ता पकड़ा। यहाँ पहुंचकर हुमायूँ ने बख्शू बिलोच नामक एक स्थानीय सरदार से सहायता मांगी। बख्शू बिलोच ने हुमायूँ को अनाज से भरी हुई एक सौ नावें प्रदान कीं।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि हुमायूँ नावों में बैठकर मुल्तान से बक्खर की ओर रवाना हुआ किंतु यह बात सही नहीं है। हुमायूँ ने मुल्तान से काबुल जाने वाला मार्ग पकड़ा तथा खुशाब पहुंच गया। यहाँ से एक तंग दर्रा काबुल की ओर जाता था। जैसे ही हुमायूँ ने इस दर्रे को जाने वाला मार्ग पकड़ा, वैसे ही कामरान की सेना ने तीसरी बार हुमायूँ का मार्ग रोक लिया जिससे उन दोनों के बीच संघर्ष की परिस्थितियाँ उत्पन्न हो गईं।
जब एक दरवेश को ज्ञात हुआ कि अफगानिस्तान के जिस बादशाह बाबर ने हिंदुस्तान मुल्क फतह किया था, उसी बादशाह के बेटे आपस में लड़ने जा रहे हैं तो उस दरवेश ने हुमायूँ तथा कामरान दोनों से बात करके इस संघर्ष को रुकवाया। वस्तुतः इस समय तक बाबर के बेटे दर-दर के भिखारी हो चुके थे किंतु अपने दुर्भाग्य के कारण इस कठिन समय में भी वे आपस में लड़ रहे थे।
हुमायूँ ने कामरान की तरफ से मन खट्टा करके, काबुल जाने का विचार छोड़ दिया तथा सिंध क्षेत्र में स्थित बक्खर जाने वाला मार्ग पकड़ा। हिंदाल पहले ही सिंध जा चुका था। हुमायूँ के मुल्तान से निकल जाने के बाद मिर्जा कामरान और मिर्जा अस्करी काबुल के लिए रवाना हो गए। गुलबदन बेगम भी कामरान के साथ काबुल ले जाई गई।
बख्शू बिलोच से मिली नावों को लेकर हुमायूँ बक्खर दुर्ग की तरफ रवाना हुआ जो सिंधु नदी के बीच एक टापू पर स्थित था। गुलबदन बेगम ने इसे बक्खर नदी लिखा है किंतु वास्तव में यह सिंधु नदी का मुख्य प्रवाह था। बक्खर का दुर्ग बहुत मजबूत था और वहाँ का किलेदार सुल्तान महमूद दुर्ग बंद करके बैठा था। इस दुर्ग के पास ही मिर्जा शाह हुसैन का बनवाया हुआ एक बाग था। बादशाह हुमायूँ ने उसी बाग में डेरा डाला तथा अपने दूत मीर समंदर को ठट्टा के शासक मिर्जा हुसैन शाह के पास अपना दूत भेजकर कहलवाया- ‘हम आवश्यकता पड़ने पर तुम्हारे देश में आए हैं। तुम्हारा देश तुम्हारे पास बना रहे, हम उस पर अधिकार नहीं करना चाहते। अच्छा होता कि तुम स्वयं आकर हमसे भेंट करो तथा आवश्यकतानुसार हमारी सेवा करो। हम गुजरात जाना चाहते हैं।’
मिर्जा शाह हुसैन हुमायूँ के समक्ष उपस्थित नहीं होना चाहता था। उसने अब आता हूँ, तब आता हूँ कहकर तथा तरह-तरह के बहाने बनाकर पांच महीने निकाल दिए और पांच महीने बाद हुमायूँ को सूचित किया कि- ‘मेरी पुत्री का विवाह है। उसका कार्य सम्पन्न करके मैं आपकी सेवा में उपस्थित होउंगा।’
एक दिन हुमायूँ को सूचना मिली कि मिर्जा हिंदाल ने सिंधु नदी पार कर ली है और वह कांधार जा रहा है। पाठकों को स्मरण होगा कि मिर्जा हिंदाल भी लाहौर से सिंध आ गया था और सिंध में ही प्रवास कर रहा था। इस पर हुमायूँ ने अपने दूत भेजकर हिंदाल से पुछवाया कि हमने सुना है कि तुम कांधार जा रहे हो! हिंदाल ने कहलवाया कि यह बात गलत है कि मैं कांधार जा रहा हूँ।
इस पर हुमायूँ अपनी विमाता दिलदार बेगम से मिलने के लिए हिंदाल के प्रवास-स्थल पर गया। मिर्जा हिंदाल ने हुमायूँ की बड़ी आवभगत की। उसी दौरान हुमायूँ ने हमीदा बानू नामक एक लड़की को देखा। हुमायूँ ने उसके प्रति आकर्षण का अनुभव करके पूछा कि यह लड़की कौन है?
इस पर हुमायूँ को बताया गया कि यह मीर बाबा दोस्त की पुत्री है। दूसरे दिन मिर्जा हिंदाल के निवास पर फिर मजलिस हुई जिसमें बादशाह हुमायूँ उपस्थित हुआ। हमीदा बानू प्रायः मिर्जा हिंदाल के हरम के साथ ही रहती थी। इसलिए हुमायूँ को वह दूसरे दिन भी दिखाई दी।
हुमायूँ ने दिलदार बेगम से कहा कि आप इस लड़की का निकाह मेरे साथ करवा दें। इस पर मिर्जा हिंदाल ने हुमायूँ से कहा कि मैं इस लड़की को अपनी बहिन और पुत्री की तरह देखता हूँ। आप बादशाह हैं, अतः संभव है कि आपका इस लड़की के प्रति प्रेम स्थाई नहीं रहे। तब मुझे दुःख होगा।
हिंदाल की यह बात सुनकर हुमायूँ कुपित होकर उठ खड़ा हुआ और अपने डेरे पर चला गया। दिलदार बेगम ने बात बिगड़ती हुई देखकर हुमायूँ को एक पत्र लिखकर सूचित किया कि आप बिना कारण ही नाराज होकर चले गए। लड़की की माँ तो मुझसे पहले ही कह चुकी थी कि आप इस लड़़की का निकाह बादशाह से करवा दें।
हुमायूँ ने इस पत्र के जवाब में दिलदार बेगम को लिखा कि हम आपका रास्ता देख रहे हैं। इस पर दिलदार बेगम स्वयं हुमायूँ के डेरे पर गई और हुमायूँ को हरम के भीतर ले आई। जब मजलिस हुई तो हुमायूँ को हमीदा बेगम दिखाई नहीं दी। इस पर हुमायूँ ने दिलदार बेगम से कहा कि हमीदा को बुलवाइए।
दिलदार बेगम ने अपनी दासी को हमीदा बानू के पास भेजा किंतु हमीदा बानू नहीं आई। उसने कहलवाया कि यदि बादशाह मुझे भेंट करने को बुलाते हैं तो मैं पहले ही दिन बादशाह के सम्मुख उपस्थित होकर उनकी सेवा करने की प्रतिष्ठा प्राप्त कर चुकी हूँ। अब क्यों आऊं?
इस पर बादशाह ने सुभान कुली को मिर्जा हिंदाल के पास भेजकर कहलवाया कि वह हमीदा बानू को भेज दे। मिर्जा हिंदाल ने सुभान कुली को जवाब दिया कि मैंने बहुत कहा किंतु यह जाती ही नहीं, तुम स्वयं जाकर कहो। जब सुभान कुली ने स्वयं हमीदा से अनुरोध किया कि बादशाह बुलाते हैं तो हमीदा ने कहा कि बादशाहों से भेंट करना एक बार ही नीतियुक्त है। दूसरी बार ठीक नहीं है। मैं नहीं जाउंगी। सुभान कुली ने वहाँ से लौटकर हुमायूँ को सारी बात बता दी।
बादशाह ने तीसरे दिन फिर अपना संदेशवाहक हमीदा बानू के पास भेजा किंतु हमीदा बानू हुमायूँ से मिलने के लिए नहीं आई। इस प्रकार चालीस दिन तक हुमायूँ हमीदा बानू के पास प्रेम-भरा निमंत्रण भेजता रहा किंतु हमीदा बानू बादशाह से मिलने नहीं आई। अंत में दिलदार बेगम स्वयं हमीदा बानू को मनाने के लिए गई।
दिलदार बेगम ने हमीदा बानू को समझाया- ‘किसी न किसी से तो विवाह करना ही होगा! अच्छा होता कि तुम्हारा विवाह बादशाह से होवे!’
इस पर हमीदा बेगम ने कहा- ‘मेरा विवाह अवश्य ही ऐसे मनुष्य से होना चाहिए जिसकी गर्दन तक मेरा हाथ पहुंच सके न कि ऐसे व्यक्ति से जिसके दामन को भी मैं न छू सकूं।’
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता