लगभग एक घण्टा चलने के बाद हम बोरोबुदुर बौद्ध विहार पहुंचे। मार्ग में एक स्थान पर रुककर मि. अन्तो ने हमारे लिए रियायती टिकटों का प्रबंध करने का प्रयास किया किंतु इस बार वह सफल नहीं हो सका। मंदिर के प्रवेश द्वार पर टिकट खिड़की के पास उसने हमें छोड़ा। यहाँ एक व्यक्ति के टिकट का मूल्य 3 लाख इण्डोनेशियाई रुपए अर्थात् डेढ़ हजार भारतीय रुपए है। जब तक हमने टिकट खरीदे, तब तक मि. अन्तो अपनी कार पार्क करके आ चुका था। उसने फिर से हमें दो छतरियां पकड़ाईं तथा कहा कि यहाँ भी आप चाय पी सकते हैं, इसके लिए अलग से शुल्क नहीं लगेगा, यह विदेशी पर्यटकों के लिए ही है।
हमने उसके हाथ से छतरियां लीं तथा उसे धन्यवाद देकर चाय के काउंटर की तरफ बढ़ गए। कुछ ही देर में हम छतरियां हाथ में लेकर बौद्ध विहार की ओर बढ़ गए। लगभग आधा किलोमीटर चलने के बाद भी हमें विहार दिखाई नहीं दिया। फिर जैसे ही हम पेड़ों के झुरमुट को पार करके एक सड़क पर मुड़े, अचानक ही वह प्रकट हुआ। यह एक विशाल पहाड़ जैसा दिखाई देता है। भारत में बड़े-बड़े दुर्ग एवं विशालाकाय मंदिर हैं किंतु इससे पहले हमने इतनी विशालाकाय पहाड़नुमा स्थापत्य संरचना नहीं देखी थी।
कठिन चढ़ाई
इतनी ऊंचाई तक चढ़ना न केवल पिताजी के लिए, अपितु मेरे लिए भी काफी कठिन था। दीपा के लिए भी स्वतंत्र रूप से शिखर तक चढ़ पाना संभव नहीं था। हम सड़क पर कदम बढ़ाते हुए अंततः स्तूप के काफी निकट पहुंच गए। यहाँ आकर पिताजी की हिम्मत ने जवाब दे दिया। वे एक बैंच पर बैठ गए। मैंने, विजय तथा भानु से दीपा को लेकर चढ़ाई आरम्भ करने के लिए कहा और स्वयं पिताजी के साथ बैंच पर बैठ गया। लगभग आधे घण्टे बाद पिताजी ने कहा कि मैं पूरी चढ़ाई तो नहीं कर पाउंगा किंतु एक या दो मंजिल तक चलता हूँ। लगभग अस्सी वर्ष की आयु में इतनी चढ़ाई भी एक कठिन बात थी किंतु हम दोनों ने चढ़ाई आरम्भ कर ही दी।
पिताजी दो मंजिल तक मेरे साथ चले। इस बीच उन्हें दो बार रुक जाना पड़ा। विजय और भानु भी दूसरी मंजिल पर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे। पिताजी ने दो मंजिलों तक का शिल्प और स्थापत्य देखने के बाद, नीचे उतरने का निर्णय लिया। मैंने उनसे कहा कि वे उसी बैंच पर जाकर बैठ जाएं जहाँ से हम आए थे। थोड़ी देर में हम भी आते हैं। पिताजी के लौट जाने के बाद मैंने मि. अन्तो द्वारा दी गई छतरियों को छड़ी की तरह प्रयोग करते हुए ऊपर चढ़ना आरंभ किया। पत्थरों का यह संसार निःसंदेह अचरज से भरा हुआ था। चूंकि पत्थरों की सीढ़ियों को लकड़ी की सीढ़ियों से ढंक दिया गया था इसलिए चढ़ने में आसानी रही। अन्यथा जूतों से घिसकर चिकने हुए पत्थरों पर चढ़ पाना और भी अधिक कठिन होता।
रूप धातु से निर्वाण स्तर तक
बोरोबुदुर चैत्य की रचना एक विशाल वर्तुलाकार स्तूप के रूप में है इसके चारों ओर बौद्ध ब्रह्माण्डिकी के तीन प्रतीकात्मक स्तर बने हुए हैं जो कामध्यान (इच्छा की दुनिया), रूपध्यान (रूपों की दुनिया) और अरूपध्यान (निराकार दुनिया) कहलाते हैं। दर्शक इन तीनों स्तरों का चक्कर लगाते हुए इसके शीर्ष पर अर्थात् बुद्धत्व की अवस्था को पहुँचता है। स्मारक में हर ओर से सीढ़ियों और गलियारों की विस्तृत व्यवस्था है। मुझे विगत अक्टूबर में चिकनगुनिया हुआ था जिसके कारण पैर अब तक दर्द करते थे, घुटनों में स्थित कार्टिलेज की पर्त भी अधिक चलते रहने के कारण भीतर की ओर दब गई थी, जिसके कारण घुटने बहुत दर्द कर रहे थे। फिर भी मैं सौभाग्य से हाथ आए इस अवसर को गंवाना नहीं चाहता था। मैं बच्चों के साथ-साथ चलता हुआ तथा धीरे-धीरे कदम बढ़ाता हुआ, रूपधातु स्तर को पार करके अरूप धातु स्तर से होता हुआ निर्वाण स्तर को पहुंच ही गया।
यहाँ का दृश्य बहुत अद्भुत था। दूर-दूर तक चावल के खेत लहरा रहे थे। मंद, सुहावनी एवं निर्मल वायु प्रवाहित हो रही थी। सूर्य देव भी अपनी प्रखरता छोड़कर मानो यहाँ के वायुमण्डल को अलौकिक तथा कम ऊष्ण प्रकाश प्रदान कर रहे थे। मोक्ष क्या होता है, यह तो मैं नहीं जानता किंतु इतनी ऊंचाई पर बैठकर हजारों बौद्ध भिक्षु निश्चय ही महात्मा बुद्ध द्वारा बताए गए प्रतीत्यसमुत्पात, चत्वारि आर्य सत्यानि तथा अष्टांग मार्ग पर चलते हुए अपने महान गंतव्य की ओर, अनदेखे, अनजाने अनंत की ओर यात्रा की तैयारी करते होंगे, इसमें किसी तरह का संदेह नहीं रह गया था।
बोरोबुदुर चैत्य से वापसी
यहाँ से हमें वापसी करनी थी। इस बार निर्वाण स्तर से नीचे उतर कर अरूप धातु स्तर से होते हुए रूप धातु स्तर पर लौटना था। मुझे लगा, हिन्दू दर्शन में जीव को अक्षर अर्थात् कभी नष्ट न होने वाला माना गया है तथा जीव के, ऊपरी लोकों से नश्वर शरीर में बार-बार आवागमन का जो सिद्धांत दिया गया है, वह यही है। मनुष्य अपनी तपस्या और भक्ति के बल पर कामनाओं को नष्ट करता हुआ सिद्धियों के आलोकमाय लोक में पहुंचता है, वहाँ कुछ अवधि तक अलौकिक सुख का उपभोग करता है और फिर से मृत्यु लोक में उतर आता है। ठीक वैसी ही प्रक्रिया तो थी यह! हिन्दू धर्म में भी मोक्ष की अवधारणा है, किंतु उस लक्ष्य को बहुत विरले जीव प्राप्त कर पाते हैं, उसके लिए वनस्पतियों के बीज की तरह अपने अहंकार को दूसरों की सेवा और ईश भक्ति की ऊर्वरा मिट्टी में गला कर नष्ट कर देना होता है।
बोरोबुदुर चैत्य के लिए चढ़ाई आरम्भ करने के लगभग दो घण्टे बाद हम बोरोबुदुर चैत्य से नीचे उतर आए। जिस रास्ते से हम नीचे उतरे, वह चढ़ाई वाले रास्ते से अलग था। यह वैसा ही था जैसे किसी जीवात्मा का पुनर्जन्म किसी दूसरे गांव में हो गया हो और उसकी पुराने जन्म की स्मृतियां उसे पहले वाले गांव में जाने के लिए कह रही हों। स्तूप के दूसरी तरफ उतर जाने के कारण हमारे समक्ष एक नई समस्या खड़ी हो गई। पिताजी उसी मार्ग की तरफ बनी बैंच पर बैठकर हमारी प्रतीक्षा कर रहे थे जहाँ से हमने चढ़ाई आरम्भ की थी। उन्हें ढूंढकर लाना कठिन काम हो गया क्योंकि उन तक पहुंचने के लिए मंदिर के चारों ओर चक्कर काटते हुए हमें कम से कम दो किलोमीटर चलना था।
हमने मधु एवं भानू को दीपा के साथ वहीं एक बैंच पर बैठने के लिए कहा और मैं एवं विजय पिताजी को ढूंढने के लिए चढ़ाई की दिशा वाले मार्ग की ओर चल दिए। लगभग एक किलोमीटर चलने के बाद विजय ने मुझे वापस लौटा दिया और स्वयं अकेला ही पिताजी को लेने गया। मैंने उससे कहा कि वह पिताजी को लेकर यहाँ नहीं आए अपितु सीधा बाहर जाए। वहाँ कार पार्किंग में उसे मि. अन्तो मिल जाएगा। मैंने एक्जिट-वे पर लौटकर मधु, भानू एवं दीपा को लिया और हम लोग बोरोबुदुर परिसर से बाहर निकलने के लिए रवाना हुए। इसी मार्ग में समुद्ररक्षा नामक संग्रहालय स्थित है। इस विशुद्ध भारतीय नाम को पढ़कर हम सुखद आश्चर्य से भर गए।
दीपा का इण्टरनेशनल फोटो
अभी कुछ दूर ही चले होंगे कि इण्डोनेशियाई लड़कियों के एक समूह ने हमें घेर लिया। वे सैकण्डरी और हायर सैकेण्डरी स्टैण्डर्ड में पढ़ने वाली जान पड़ती थीं तथा दीपा के साथ फोटो खिंचवाना चाहती थीं। भानू ने उन्हें सहर्ष अनुमति दे दी। दीप की तो जैसे लॉटरी लग गई। एक लड़की उसे गोद में लेकर खड़ी हो गई और बाकी की लड़कियां उसके दोनों ओर खड़ी हो गईं। इतने में ही उन लड़कियों की टीचर दौड़ती हुई आई, उसने हमसे माफी मांगी और उन लड़कियों से नाराजगी भरे स्वर में पूछा कि क्या तुमने इस बच्ची के माता-पिता से परमिशन ले ली है! उसने कम से कम तीन बार यह प्रश्न पूछा और जब तीनों ही बार जवाब हाँ में आया तो वह भी दीपा के साथ फोटो खिंचवाने के लिए खड़ी हो गई। इसी बीच पास से गुजर रही कुछ अन्य देशों की लड़कियां भी दीपा को देखकर रुक गईं। उन्होंने भी अपने कैमरे क्लिक किए। मैं भी एक स्नैप क्लिक किए बिना नहीं रह सका।
डेढ़ साल की दीपा अभी बोल भी नहीं सकती। उस ग्रुप में उन अनाजन लड़कियों में से बहुतों को एक-दूसरे की भाषा भी समझ में नहीं आती थी किंतु यह प्रेम की भाषा थी, बाल्यावस्था के प्रति सहज आकर्षण की भाषा थी जिसे वे सब बहुत अच्छी तरह समझती थीं। जाने किन-किन देशों की लड़कियों ने वह फोटो एक दूसरे से शेयर किया होगा। कितना अच्छा होता यदि धरती पर चारों ओर ऐसा ही स्नेहमय वातावरण होता! यदि ऐसा हुआ होता तो निश्चित ही लोग स्वर्ग, मोक्ष और परमात्मा की खोज में समय खराब नहीं करते। क्योंकि ये तीनों कहीं और नहीं, केवल प्रेम में निवास करते हैं।
बाजार की लम्बी दीर्घा
हम दीपा को उन लड़कियों से लेकर फिर से आगे बढ़े किंतु शीघ्र ही उस रास्ते ने हमें एक बाजार में ले जाकर छोड़ दिया। यह लगभग वैसा ही बाजार था जैसा कि भारत में तिब्बती और नेपाली लोग लगाकर बैठ जाते हैं। यहाँ इण्डोनेशियाई कलाकृतियां, कपड़े, चित्र, विभिन्न प्रकार के मनकों की मालाएं आदि बिक रहे थे। हम थके हुए थे और हमारी रुचि इनमें से किसी चीज में नहीं थी। फिर भी हमें इस बाजार में आगे ही बढ़ते रहना था। बाजार की हर गली का अंत एक नई गली में हो रहा था। लगभग डेढ़-दो किलोमीटर चलने के बाद हम पूरी तरह थक गए और एक नारियल पानी की दुकान पर बैठ गए। यहाँ भी 20 हजार रुपए का नारियल मिल रहा था। हमने 15 हजार रुपए में नारियल तय किया तथा एक बड़ा सा दिखने वाला नारियल छांटकर दुकान पर बैठी लड़की को छीलने के लिए दे दिया।