जब हुमायूँ काबुल से भारत आया था तब उसकी सेना में कम्बर दीवाना नामक एक सेनापति भी शामिल था। जब हुमायूँ सरहिंद की विजय प्राप्त करके दिल्ली की तरफ बढ़ा, तब कम्बर दीवाना के मन में अपना स्वतंत्र राज्य स्थापित करने की इच्छा उत्पन्न हुई और वह हुमायूँ की सेना से अलग होकर सम्भल की ओर चला गया। उसने सम्भल, बदायूं तथा गोला आदि स्थानों पर अधिकार कर लिया तथा सम्भल को राजधानी बनाकर शासन करने लगा। उसने अपने अमीरों को सुल्तान तथा खान की उपाधियां प्रदान कीं।
हुमायूँ ने अली कुली खाँ शैबानी को आदेश दिया कि वह कम्बर को पकड़कर लाए। जब अली कुली खाँ शैबानी कम्बर दीवाना के पास पहुंचा तो कम्बर ने बादशाह को संदेश भिजवाया कि मैं आपका आज्ञाकारी गुलाम हूँ किंतु यह राज्य मैंने अपनी तलवार से जीता है। अतः मुझे दण्डित न किया जाए तथा मुझे सम्भल पर शासन करने दिया जाए। जब कम्बर ने बादशाह के दरबार में उपस्थित होने से मना कर दिया तो अली कुली खाँ शैबानी ने कम्बर को मार डाला और उसका सिर काटकर हुमायूँ को भेज दिया। जब हुमायूँ ने अपने ही अमीर का कटा हुआ सिर देखा तो उसे बड़ा दुःख हुआ तथा उसने अली कुली खाँ को पत्र लिखकर लताड़ा कि बादशाह की इच्छा के बिना कम्बर दीवाना का सिर क्यों काटा गया?
पाठकों को स्मरण होगा कि हुमायूँ का चचेरा भाई मिर्जा सुलेमान तथा सुलेमान का पुत्र मिर्जा इब्राहीम हुमायूँ के वफादार अमीर थे। उन दोनों ने हुमायूँ को कई बार संकटों से बचाया था। जब हुमायूँ काबुल से भारत आया था तब वह मिर्जा सुलेमान तथा उसके पुत्र को अपने साथ नहीं लाया था क्योंकि वे हुमायूँ के विश्वसनीय थे तथा हुमायूँ को अफगानिस्तान में भी अपने विश्वसनीय लोगों की आवश्यकता थी किंतु जैसे ही हुमायूँ ने अफगानिस्तान की धरती छोड़ी, मिर्जा सुलेमान के मन में बेईमानी आ गई। उसने अंदराब और ईश्कमिश पर कब्जा करने का विचार किया।
हुमायूँ ने अंदराब और ईश्कमिश की जागीरें तर्दी बेग खाँ को दे रखी थीं। जब तर्दी बेग खाँ हुमायूँ के साथ भारत अभियान पर आया तो उसने मुकीम खाँ को अपनी जागीरों के प्रबंधन के लिए नियुक्त किया था। मिर्जा सुलेमान ने मुकीम खाँ के समक्ष प्रस्ताव भिजवाया कि वह तर्दी बेग खाँ की नौकरी छोड़कर मेरी नौकरी स्वीकार कर ले किंतु मुकीम खाँ ने मिर्जा सुलेमान की बात मानने से मना कर दिया।
इस पर मिर्जा सुलेमान ने अंदराब को घेर लिया। मुकीम खाँ अंदराब की रक्षा नहीं कर सका और मिर्जा सुलेमान से लड़ता हुआ वहाँ से भाग निकला और दिल्ली आकर बादशाह हुमायूँ की सेवा में उपस्थित हुआ। जब हुमायूँ को मिर्जा सुलेमान की गद्दारी के बारे में पता लगा तो हुमायूँ ने माथा पीट लिया। अब हुमायूँ के गद्दार भाई हुमायूँ को परेशान करने के लिए जीवित नहीं थे किंतु जीवन भर विश्वसनीय रहा चचेरा भाई सुलेमान ही गद्दारी करने पर उतर आया था।
हुमायूँ ने इसे भाग्य की विडम्बना मानकर स्वीकार कर लिया। वैसे भी हुमायूँ काबुल से 1200 किलोमीटर की दूरी पर था। इस समय वह भारत के अफगानों से लड़ने में व्यस्त था, अतः काबुल की समस्याओं पर ध्यान नहीं देना चाहता था।
इन्हीं दिनों हुमायूँ को शिकायतें मिलने लगीं कि शाह अबुल मआली पंजाब के लोगों को दुःख देता है तथा बादशाह के आदेशों के प्रतिकूल कार्य करता है। इन शिकायतों से हुमायूँ का माथा ठनका क्योंकि इस समय हुमायूँ अपने हरम की औरतों को काबुल से दिल्ली बुलवाने की योजना बना रहा था। हुमायूँ की चिंता का कारण यह था कि काबुल से दिल्ली आने के लिए उसके हरम को पंजाब में लम्बा रास्ता तय करना था। यदि शाह मआली ने गड़बड़ की तो हरम की सुरक्षा खतरे में पड़ जाएगी।
वैसे भी हुमायूँ के हरम को काबुल से दिल्ली लाने में खतरों की कमी नहीं थी। मिर्जा सुलेमान द्वारा की जा रही गड़बड़ी के कारण हुमायूँ के हरम का काबुल से निकलकर सिंधु नदी तक पहुंचना भी कठिन था। सिंधु नदी पार करने से पहले तथा सिंधु को पार करने के बाद अफगानों के सैंकड़ों गांव थे जिनके बीच में से हुमायूँ के हरम को निकलना था। ये लोग कभी भी शाही हरम को लूट सकते थे और औरतों को उठाकर ले जा सकते थे। अफगानों के गांवों से निकलने के बाद गक्खर प्रदेश से गुजरना होता था जहाँ का शासक सुल्तान आदम भी हुमायूँ से विमुख होकर सिकंदरशाह की तरफ हो गया था। वह भी हुमायूँ के हरम को नुक्सान पहुंचा सकता था। उसके बाद पंजाब के विशाल मैदान थे जिनमें शाह अबुल मआली गड़बड़ कर सकता था।
स्थितियां ऐसी नहीं थीं कि हुमायूँ एक बड़ी सेना भेजकर अपने हरम को बुलवा लेता क्योंकि ऐसी स्थिति में अफगानों द्वारा दिल्ली और आगरा पर हमला कर दिया जाता। अतः हुमायूँ अपने हरम को काबुल से दिल्ली लाने के लिए बेचैन हो गया और इस कार्य को निर्विघ्न सम्पन्न करने के लिए योजना बनाने लगा। उसने शाह अबुल मआली को पंजाब से हटाने तथा अकबर को पंजाब का शासक नियुक्त करने का निश्चय किया ताकि अकबर की सेनाएं हरम की औरतों को काबुल से लेकर सुरक्षित रूप से दिल्ली पहुंचा सकें। हुमायूँ ने बैराम खाँ से सलाह करके शाह अबुल मआली को हिसार तथा उसके निकटवर्ती परगनों का शासक नियुक्त किया तथा अकबर को पंजाब का शासक बना दिया। इस समय अकबर 14 साल का बालक था। अतः बैराम खाँ को उसका संरक्षक नियुक्त किया गया।
नवम्बर 1555 में बैराम खाँ अकबर को लेकर पंजाब के लिए रवाना हो गया। जब बैराम खाँ और अकबर सरहिंद पहुंचे तो उस्ताद अजीज सीस्तानी जिसे रूमी खाँ की उपाधि प्राप्त थी, अकबर की सेवा में आ गया। रूमी खाँ तोपें चलाने में बड़ा नियुक्त था। उसके आ जाने से अकबर और बैराम खाँ की शक्ति काफी बढ़ गई।
उन्हीं दिनों हिसार फिरोजा से अतका खाँ तथा कुछ अन्य अमीर भी अकबर की सेवा में उपस्थित हुए। जब अकबर का सामान सरहिंद पहुंचा तो वे समस्त शाही सेवक जो शाह अबुल मआली के साथ थे तथा उसके व्यवहार से नाराज थे, शाह अबुल से आज्ञा प्राप्त किए बिना ही अकबर की सेवा में चले आए। इन लोगों में मुहम्मद कुली खाँ बरलास, मुसाहिब बेग तथा अन्य अमीर शामिल थे।
अकबर के आदेश से इन अमीरों का स्वागत किया गया तथा उन्हें अकबर के दरबार में उचित सम्मान दिया गया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता