Thursday, November 21, 2024
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82. बुग्गा फाड़कर रोने लगा हुमायूँ।

टालिकान के दुर्ग से निकलने के बाद कामरान बहुत धीमी गति से आगे बढ़ा। उसे अपने पिता का राज्य छोड़कर जाने की कोई जल्दी नहीं थी। बादामदरा नामक स्थान पर पहुंचकर कामरान ने मक्का जाने का निश्चय त्याग दिया तथा बापूस को बादशाह हुमायूँ के पास भेजकर कहलवाया कि मैंने बादशाह के प्रति बहुत अपराध किए हैं। इसलिए मैं मक्का जाने की बजाय बादशाह की सेवा में रहकर पश्चाताप करना चाहता हूँ।

संभवतः हुमायूँ भी यही चाहता था, इसलिए उसने कामरान का यह प्रस्ताव सहर्ष स्वीकार कर लिया तथा उसे अपने दरबार में उपस्थित होने की अनुमति दे दी। जब मिर्जा कामरान बादशाह हुमायूँ के समक्ष उपस्थित हुआ तो हुमायूँ ने इस प्रसन्नता में मिर्जा अस्करी की बेड़ियां भी खुलवा दीं।

हुमायूँ ने कामरान के स्वागत में एक बड़े दरबार का आयोजन किया तथा अपने अमीरों को कामरान के स्वागत के लिए उसके सामने भेजा। निश्चत समय पर कामरान ने दरबार में आकर गलीचे का चुम्बन किया तथा धरती पर दण्डवत् गिरकर बादशाह से अपने अपराधों की क्षमा मांगी। इस पर हुमायूँ ने कहा कि बहुत उपचार हो चुका। आओ अब भाइयों की तरह बगलगीर हो जाओ।

हुमायूँ ने मिर्जा कामरान को धरती से उठाकर उसे सीने से लगाया। इस भावुक क्षण में हुमायूँ का गला भर आया और वह अचानक ही बुग्गा फाड़कर रोने लगा। यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि हुमायूँ के भाइयों ने जीवन भर हुमायूँ के साथ विश्वासघात किया था और अनेक बार हुमायूँ की पीठ में छुरी भौंकी थी किंतु हुमायूँ अपने भाइयों से एक-तरफा प्रेम करता रहा। वह अपने पिता की इस सीख को कभी नहीं भूला कि उसके भाई चाहे उसके प्रति कितना ही अपराध क्यों न करें, वह अपने भाइयों को क्षमा करे और उन पर कृपा करता रहे।

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आज भी हुमायूँ उसी भावना से भरा हुआ था। बादशाह को बच्चों की तरह रोते देखकर बहुत से दरबारी भी रोने लगे। इनमें से बहुतों ने कभी न कभी अपने बादशाह से गद्दारी की थी किंतु उन्हें भी बादशाह ने उसी तरह क्षमा कर दिया था, जिस तरह वह अपने भाइयों को क्षमा करता रहता था।

बादशाह से गले मिलने के बाद मिर्जा कामरान बादशाह के दायीं ओर बैठाया गया। इस पर बादशाह ने कहा कि वह और निकट खिसककर बैठे। मिर्जा सुलेमान सदैव हुमायूँ के बाईं ओर बैठता था। आज हुमायूँ ने उसे भी अपने दायीं ओर बैठाया। जब सभी दरबारी यथा-स्थान बैठ गए तब बड़ा भारी उत्सव मनाया गया। सभी को फल, मेवा एवं शाही व्यंजन परोसे गए। यह सभा देर शाम तक चलती रही। हुमायूँ ने कामरान का डेरा अपने डेरे के पास ही लगवाया था किंतु कामरान ने इच्छा प्रकट की कि वह आज की रात मिर्जा अस्करी के डेरे में बिताना चाहता है। बादशाह ने कामरान को मिर्जा अस्करी के डेरे पर जाने की अनुमति दे दी।

अगले दिन बादशाह अपने समस्त भाइयों, मिर्जाओं, बेगों एवं अमीरों के साथ बंदगशा चश्मे पर पहुंचा। किसी समय बाबर ने भी यहाँ मुकाम किया था और एक शिलालेख लगवाया था। तैमूर लंग के समय में इस पूरे क्षेत्र में हिन्दू प्रजा निवास किया करती थी किंतु तैमूर की सातवीं पीढ़ी अर्थात् हुमायूँ के समय तक इस क्षेत्र के समस्त हिंदू नष्ट हो चुके थे और पूरी तरह मुस्लिम प्रजा का निवास हो चुका था।

जिस स्थान पर कभी बाबर ने दरबार किया था, हुमायूँ ने भी उसी स्थान पर एक दरबार का आयोजन करके अपने राज्य को एक बार फिर से अपने भाइयों में बांट दिया। हुमायूँ ने इस स्थान पर इस आशय का एक शिलालेख भी लगवाया। कहा नहीं जा सकता कि इस स्थान पर बाबर एवं हुमायूँ द्वारा लगवाए गए शिलालेख अब कहाँ हैं!

मिर्जा कामरान को कोलाब का प्रदेश फिर से जागीर में दिया गया। मिर्जा सुलेमान को जफर का दुर्ग एवं जागीर दिए गए। उसके पुत्र मिर्जा इब्राहीम को टालिकान की जागीर एवं दुर्ग दिया गया। मिर्जा हिंदाल को कुंदूज, घूरी, कहमर्द, बलकन, इश्कमिश और नारी के दुर्ग एवं जागीरें दिए गए।

हुमायूँ ने मिर्जा कामरान को अपनी जागीर पर जाने के आदेश दिए तथा मिर्जा अस्करी को उसके साथ जाने की अनुमति दी। चाकर खाँ नामक एक अमीर कामरान का वकीले मुतलक अर्थात् प्रधानमंत्री हुआ करता था। हुमायूँ ने चाकर खाँ को भी कामरान के साथ जाने की अनुमति दे दी। इसी प्रकार करातीगीन नामक एक अमीर मिर्जा अस्करी का प्रमुख मंत्री हुआ करता था। करातीगीन को मिर्जा अस्करी के साथ जाने की अनुमति दी गई। शेर अली को मिर्जा हिंदाल के साथ भेजा गया।

इस दरबार के अंत में हुमायूँ ने प्रत्येक शहजादे को निशान और नक्कारा प्रदान किया। निशान का आशय झण्डे से और नक्कारे का आशय नगाड़े से है। अंत में बादशाह ने शर्बत पिया तथा अपने भाइयों को भी शर्बत पिलाकर विदा किया। मिर्जा कामरान, सुलेमान एवं हिंदाल को तमनतोग प्रदान किया गया।

तमनतोग याक की पूंछ से बनता था। यह शाही प्रभुत्व का प्रतीक चिह्न था तथा मुगल सल्तनत में सर्वोच्च पद का द्योतक था। उस काल में यह चिह्न बादशाह ही धारण किया करता था और शहजादों एवं मिर्जाओं को यह चिह्न धारण करने की अनुमति नहीं होती थी किंतु अपने भाइयों को संतुष्ट करने के लिए हुमायूँ ने उस प्राचीन परम्परा को तोड़ दिया ताकि हुमायूँ के प्रत्येक भाई को लगे कि वह स्वयं ही बादशाह है। 

इस आयोजन के बाद हुमायूँ काबुल के लिए चल दिया तथा उसके भाई भी अपनी-अपनी जागीरों में चले गए। इस यात्रा में हुमायूँ बड़ा प्रसन्न था। उसे लगता था कि उसके तथा उसके भाइयों के बीच का झगड़ा सदा के लिए समाप्त हो गया है।

मार्ग में हुमायूँ परियान के किले में ठहरा। तैमूर लंग के समय में यहाँ कतूर नामक स्थान हुआ करता था जिस पर हिंदुओं का शासन था। उस काल में इस क्षेत्र में बड़ी संख्या में हिन्दू प्रजा निवास करती थी। तैमूर लंग ने यहाँ के समस्त हिंदुओं को मारकर परियान का किला बनवाया था।

हुमायूँ ने इस दुर्ग का नाम बदलकर इस्लामाबाद रख दिया तथा बेग मीराक को इस दुर्ग का किलेदार नियुक्त करके इस दुर्ग की मरम्मत करवाने के आदेश दिए। इसके बाद हुमायूँ काबुल के लिए रवाना हो गया।

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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