जब हुमायूँ को कामरान के भारत भाग जाने की सूचना मिली तो हुमायूँ बड़ा प्रसन्न हुआ। वह अपने हाथ भाई के रक्त से नहीं रंगना चाहता था। कामरान के चले जाने के बाद इस रक्तपात की आवश्यकता ही नहीं रह गई थी। अतः हुमायूँ ने बाग-ए-सफा नामक स्थान पर एक बड़े उत्सव का आयोजन करने का निश्चय किया। हुमायूँ ने अपने संदेशवाहक काबुल भेजकर अकबर को तथा हरम की समस्त बेगमों को वहीं पर बुला लिया। अपने परिवार के आने पर इस विशाल उत्सव का आयोजन किया गया। इस उत्सव में हुमायूँ के सभी अमीरों एवं गणमान्य लोगों ने भाग लिया।
इस उत्सव के समापन के बाद हुमायूँ ने अपने परिवार एवं अमीरों सहित काबुल के लिए प्रस्थान किया। इस समय तक हुमायूँ को काबुल छोड़े हुए छः माह से भी अधिक समय हो चुका था। जब भी हुमायूँ किसी सैनिक अभियान पर काबुल से बाहर जाता था, कामरान काबुल पर अधिकार कर लेता था किंतु इस बार कामरान काबुल पर अधिकार नहीं कर सका। यह हुमायूँ की बड़ी सफलता थी और इससे भी बड़ी सफलता यह थी कि अब कामरान पूरी तरह शक्तिहीन होकर अफगानिस्तान से चला गया था। अब हुमायूँ अपने परिवार एवं राज्य पर अधिक ध्यान दे सकता था।
अबुल फजल ने लिखा है कि अकबर दस साल का हो चुका था किंतु अब तक उसकी विधिवत् शिक्षा आरम्भ नहीं हुई थी। विगत दस वर्षों में हुमायूँ लगातार भागता रहा था, इसलिए उसे अकबर को अपने साथ रखने का अवसर बहुत कम ही मिला था। इस भागमभाग और राजधानी की छीना-झपटी के कारण अकबर की शिक्षा का प्रबंध नहीं हो सका था। अब जबकि कामरान अफगानिस्तान की धरती से दूर जा चुका था, हुमायूँ को अकबर की शिक्षा पर ध्यान देने का समय मिला। उसने मुल्लाजाद असामुद्दीन को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया। मुल्लाजाद एक योग्य शिक्षक था और अकबर को पढ़ाने का पूरा प्रयास करता था किंतु अकबर ने शिक्षा प्राप्त करने में कोई रुचि नहीं दिखाई।
किशोरावस्था की दहलीज पर पैर रख चुका अकबर पहाड़ी ऊंटों एवं अरबी घोड़ों की पीठ पर बैठकर उन्हें तेज गति से दौड़ाने में अपना दिन व्यतीत करता था। उसके चाटुकार सेवक उसकी तारीफ करते न थकते थे। जब मुल्लाजाद असामुद्दीन अकबर को पढ़ाई लिखाई की ओर नहीं खींच सका तो वह भी कबूतर उड़ाने के अपने पुराने शौक में व्यस्त हो गया। धीरे-धीरे अकबर को भी कबूतर उड़ाने की लत लग गई।
एक दिन किसी ने हुमायूँ को बता दिया कि गुरु-चेला सारे दिन कबूतर उड़ाने में व्यस्त रहते हैं। इस पर हुमायूँ ने मुल्लाजाद असामुद्दीन को हटा दिया तथा मौलाना बायाजीन को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया। मौलाना ने भी बहुत प्रयास किया कि अकबर थोड़ा पढ़-लिख ले किंतु अकबर को अपने शौक पूरे करने में ही आनंद आता था। अब अकबर ने कुत्तों द्वारा हिरणों का शिकार करने का नया शौक पाल लिया।
मौलाना बायाजीन ने हार-थक कर हाथ खड़े कर दिए और हुमायूँ से कहा कि शहजादे को पढ़ाना संभव नहीं है। इस पर हुमायूँ ने काबुल के अच्छे आलिमों, मुल्लाओं, मौलवियों एवं मौलानाओं को बुलाकर उनसे पूछा कि आपमें से कौनसा आलिम ऐसा है जो शहजादे को पढ़ा सके! सभी मुल्ला-मौलवी एवं मौलाना चाहते थे कि वे अकबर को पढ़ाएं इसलिए उन्होंने अपनी योग्यता के बारे में बढ़-चढ़कर दावे किए।
इस पर हुमायूँ ने कागज की पर्चियों पर उनके नाम लिखवाए। जब उन पर्चियों में से पहली पर्ची खोली गई तो उसमें मौलाना अब्दुल कादिर का नाम आया। उसी को अकबर का शिक्षक नियुक्त किया गया। एक दिन बादशाह ने शाहम खाँ जलाईर नामक एक अमीर को यह देखने के लिए भेजा कि अकबर क्या करता है? उस युग में जिस प्रकार गद्दारों की कमी नहीं थी, उसी प्रकार चाटुकारों की भी कमी नहीं थी। उसने जाकर देखा कि अकबर के रंग-ढंग अच्छे नहीं हैं किंतु वह अपने मुँह से यह बात हुमायूँ से नहीं कहना चाहता था। सच बोलने की बजाय वह कोई ऐसी बात बादशाह से कहना चाहता था जिससे वह बादशाह से बड़ा ईनाम पा सके।
अबुल फजल ने अकबरनामा में लिखा है कि शाहम खाँ ने बादशाह को बताया कि जब वह शहजादे अकबर के कक्ष में पहुंचा तो उस समय शहजादा पलंग पर लेटा हुआ था। उसके चेहरे पर दिव्य प्रकाश था और ऐसा जान पड़ता था जैसे वह सोया हुआ है परंतु वास्तव में वह फरिश्तों से बात कर रहा था। इस बातचीत में अकबर फरिश्तों से कह रहा था कि यदि अल्लाह ने चाहा तो मैं संसार के उत्तम भाग को जीत लूंगा और दुःखी लोगों की अभिलाषाएं पूरी कर दूंगा।
यह तो नहीं कहा जा सकता कि शाहम खाँ की बात का हुमायूँ पर क्या प्रभाव पड़ा क्योंकि इसके सम्बन्ध में कहीं पर कोई उल्लेख नहीं मिलता है किंतु यह तय है कि शाहम खाँ जलाईर जीवन भर इस बात को दोहराता रहा। अबुल फजल ने लिखा है कि जब अकबर बादशाह बना तब भी शाहम खाँ इस बात को कहता था किंतु अकबर को चाटुकारिता पसंद नहीं थी।
हुमायूँ समझ गया कि शिक्षा प्राप्त करना अकबर के वश की बात नहीं है, इसलिए उसने अकबर को आदेश दिया कि वह गजनी जाकर अपनी जागीर संभाले। अकबर के विश्वसनीय अतगा खाँ को अकबर के साथ भेजा गया। उसके साथ ही अकबर के समस्त सेवक तथा मरहूम मिर्जा हिंदाल के समस्त सेवक भी गजनी भेजे गए। हुमायूँ ने छः महीने तक अकबर को गजनी में रखा तथा उसके आचरण के समाचार लेता रहा।
अकबर के भाग्य से उन दिनों गजनी में बाबा विलास नामक एक दरवेश रहा करता था। अकबर उसके सम्पर्क में आया तथा उससे इतना अधिक प्रभावित हुआ कि अकबर प्रतिदिन उस दरवेश से मिलने के लिए जाने लगा। जब हुमायूँ को यह समाचार मिला तो हुमायूँ बहुत संतुष्ट हुआ। गजनी में रहने वाले चाटुकार लोग नित्य ही अकबर की कुशाग्र बुद्धि एवं न्यायप्रियता के समाचार हुमायूँ को भिजवाने लगे। उन्हें सुनकर हुमायूँ को लगने लगा कि बाबर के बेटों ने जो कुछ भी भूमि खोई है, उस समस्त भूमि को बाबर का यह वंशज अवश्य ही फिर से प्राप्त कर लेगा। छः माह की अवधि बीत जाने पर हुमायूँ ने अकबर को आदेश भिजवाए कि वह काबुल आकर बादशाह की सेवा में उपस्थित हो। हुमायूँ का आदेश मिलते ही अकबर काबुल के लिए रवाना हो गया।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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