बादशाह बनते ही हुमायूँ चारों तरफ शत्रुओं से घिर गया। कालिंजर का राजा रुद्र प्रताप देव कालपी पर आंख गढ़ाए बैठा था, अफगान सेनापति बिहार की तरफ से आगे बढ़कर जौनपुर पर अधिकार कर चुके थे, गुजरात का शासक बहादुरशाह दिल्ली पर आंख गढ़ाए बैठा था और राजपूत स्वयं को फिर से शक्तिशाली बनाने के प्रयास कर रहे थे।
इन सबसे बढ़कर खराब बात यह हुई कि हुमायूँ को शत्रुओं से उलझा हुआ देखकर हुमायूँ के भाई कामरान ने अफगानिस्तान का प्रबन्ध अपने छोटे भाई अस्करी को सौंपा और स्वयं अपनी सेना के साथ पंजाब में घुस आया। कामरान ने मुल्तान से लेकर लाहौर तक के क्षेत्र पर अधिकार करके अपने अधिकारी नियुक्त कर दिये। इसके बाद कामरान ने हुमायूँ को चालाकी भरे विनम्र पत्र लिखे कि हुमायूँ मुल्तान तथा पंजाब के प्रान्त कामरान को दे दे।
चूँकि हुमायूँ के पास अपने साम्राज्य के पश्चिमी-भाग में शान्ति बनाये रखने का अन्य कोई उपाय नहीं था, इसलिये हुमायूँ ने मुल्तान तथा पंजाब पर कामरान का दावा स्वीकार कर लिया। कामरान का यह काम हुमायूँ की पीठ में छुरी भौंकने जैसा था।
कामरान को सन्तुष्ट करने के बाद हुमायूँ ने पुनः विद्रोही अफगानों की ओर ध्यान दिया। उसने लखनऊ के निकट दौरान नामक स्थान पर अफगानों से लोहा लिया। अफगानों ने अपने खोये हुए राज्य की प्राप्ति के लिये बड़ी वीरता से युद्ध किया परन्तु वे परास्त हो गये। जौनपुर पर हुमायूँ का अधिकार हो गया और महमूद लोदी बिहार की ओर भाग गया। उसने फिर कभी युद्ध करने का साहस नहीं किया। वैसे भी अब लोदियों का समय पूरी तरह बीत चुका था और नए अफगान नेता शेर खाँ का उदय हो रहा था।
अभी हुमायूँ कामरान द्वारा किए गए छल से उबरा भी नहीं था कि हुमायूँ के बहनोई मुहम्मद जमां मिर्जा ने हुमायूँ की पीठ में धोखे की दूसरी छुरी भौंक दी। मुहम्मद जमां मिर्जा ने कुछ मुगल अमीरों के साथ मिलकर हुमायूँ के विश्वस्त अमीर मुहम्मद खाँ कोकी के पिता को मार डाला और स्वयं बागी हो गया। हुमायूँ ने बागियों को पकड़ने के लिए एक सेना भेजी। मुहम्मद जमां, सुल्तान मुहम्मद मिर्जा और नैखूब मिर्जा पकड़े गए।
इन लोगों को बयाना के किले में यादगार मामा की कैद में रखा गया किंतु यादगार मामा के आदमियों ने मुहम्मद जमां को भगा दिया। इस पर हुमायूँ ने आज्ञा दी कि सुल्तान मुहम्मद मिर्जा तथा नैखूब सुल्तान मिर्जा की आंखों में सलाई फेर दी जाए। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि यादगार मामा के आदमी बागियों से मिले हुए थे। उन्होंने सलाई फेरने में भी चालाकी की तथा इस प्रकार सलाई फेरी कि नैखूब तो अंधा हो गया किंतु सुल्तान मुहम्मद मिर्जा की आंखों पर चोट नहीं पहुंची।
कुछ दिनों बाद सुल्तान मुहम्मद मिर्जा भी बयाना से भाग खड़ा हुआ और हुमायूँ के बहनोई मुहम्मद जमां मिर्जा से जा मिला। मुहम्मद जमां मिर्जा, सुल्तान मुहम्मद मिर्जा, उलूग मिर्जा और शाह मिर्जा गुजरात के शासक बहादुरशाह से जा मिले। गुजरात का शासक बहादुरशाह जानता था कि इस समय मुगल सल्तनत नाजुक दौर से गुजर रही है, यदि वह मुगलों को एक जोरदार टक्कर मार दे तो मुगल सल्तनत शीशे के महल की तरह चूर-चूर होकर बिखर सकती है। इसलिए बहादुरशाह ने असंतुष्ट मिर्जाओं को अपनी सेवा में रख लिया।
इन मिर्जाओं ने बहादुरशाह को समझाया कि हुमायूँ एक निकम्मा शासक है और उसकी सेना में कोई दम नहीं है। इसलिये उससे दिल्ली का तख्त प्राप्त करना कठिन नहीं है। मिर्जाओं की इस बात से बहादुरशाह के उत्साह में वृद्धि हुई और वह तेजी से अपनी शक्ति बढ़ाने लगा। निश्चित रूप से उसकी दृष्टि दिल्ली के तख्त पर थी।
मार्च 1531 में बहादुरशाह ने मालवा पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने मेवाड़ पर आक्रमण कर दिया। मेवाड़ का राज्य, दिल्ली तथा मालवा के बीच स्थित था। यदि बहादुरशाह मेवाड़ पर अधिकार स्थापित कर लेता तो वह मुगल सम्राज्य की सीमा पर पहुँच जाता और सीधे मुगल साम्राज्य पर आक्रमण कर सकता था।
बहादुरशाह ने हुमायूँ के शत्रु शेर खाँ अफगान के साथ भी गठजोड़ कर लिया था और हुमायू के विरुद्ध उसकी सहायता कर रहा था। बहादुरशाह ने बंगाल के शासक के साथ भी सम्पर्क स्थापित कर लिया जो हुमायू के विरुद्ध षड्यन्त्र रच रहा था। वास्तव में बहादुरशाह का दरबार हुमायूँ के शत्रुओं की शरण स्थली बन गया था। बहुत से विद्रोही अफगान तथा असंतुष्ट मुगल अमीर, बहादुरशाह के दरबार में चले गये थे।
बहादुरशाह को पुर्तगालियों से भी सैनिक सहायता का आश्वासन मिल गया। बहादुरशाह की गतिविधियां देखकर हुमायूँ भी समझ गया था कि उससे युद्ध होना अनिवार्य है। उसने बहादुरशाह को पत्र लिखा कि वह उसके शत्रुओं को, विशेषकर मुहम्मद जमाँ मिर्जा को अपने यहाँ शरण नहीं दे। बहादरशाह ने हुमायूँ को संतोषजनक उत्तर नहीं दिया। इस पर हुमायूँ ने बहादुरशाह के विरुद्ध अभियान करने का निश्चय किया। ई.1535 में हूमायू अपनी सेना के साथ आगरा से प्रस्थान करके ग्वालियर पहुँचा और वहीं से बहादुरशाह की गतिविधियों पर दृष्टि रखने लगा। थोड़े दिनों बाद हुमायूँ और आगे बढ़ा तथा उज्जैन पहुँच गया। इन दिनों बहादुरशाह चित्तौड़ का घेरा डाले हुए था।
पाठकों की सुविधा के लिए यह बताना समीचीन होगा कि जब मेवाड़ का शासक महाराणा सांगा जीवित था तब यही बहादुरशाह अपने दो भाइयों चांद खाँ तथा इब्राहीम खाँ के साथ महाराणा सांगा की शरण में रहा था। महाराणा सांगा ने उसे तथा उसके भाइयों को बड़े प्रेम से अपने पास रखा था। मिराते सिकंदरी में लिखा है कि सांगा की माता जो हलवद की राजकुमारी थी, बहादुरशाह को बेटा कहा करती थी। एक बार बहादुरशाह तथा राणा सांगा के भतीजे में झगड़ा हो गया जिसमें सांगा का भतीजा मारा गया। जब राणा के राजपूत, बहादुरशाह को मारने लगे तब राजमाता ने शरणागत कहकर बहादुरशाह के प्राणों की रक्षा की थी।
जब महाराणा सांगा का बड़ा पुत्र रत्नसिंह मेवाड़ का महाराणा हुआ तो बहादुरशाह गुजरात का सुल्तान बन चुका था। बहादुरशाह, महाराणा रत्नसिंह की सेवा में उपस्थित हुआ। उसने महाराणा रत्नसिंह को प्रसन्न करने के लिये 30 हाथी एवं बहुत से घोड़े भेंट किये तथा महाराणा के सामंतों को 1500 जरदोरी खिलअतें प्रदान की। बहादुरशाह ने महाराणा से प्रार्थना की कि वह मालवा पर आक्रमण करने जा रहा है तथा इस काम में उसे मेवाड़ की सेना चाहिए। महाराणा रत्नसिंह ने अपनी एक सेना बहादुरशाह के साथ कर दी। इस सेना के बल पर बहादुरशाह ने मालवा को जीत कर अपने राज्य में मिला लिया।
अब वही बहादुरशाह मेवाड़ को निगल जाने के लिए बेताब था। इस समय सांगा का दूसरा पुत्र विक्रमादित्य चित्तौड़ का राणा था। उसमें इतनी शक्ति नहीं थी कि वह बहादुशाह से लड़ सके। इसलिए राणा विक्रमादित्य की माता कर्णवती ने हूमायू को राखी भेजकर उससे सहायता मांगी।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता