हूण लोग मूलतः चीन के निवासी थे। चीनी भाषा में इन्हें हिगनू कहा जाता था। संस्कृत-साहित्य तथा अभिलेखों में इन्हें हूण कहा गया है। हूण लोग मंगोल जाति के थे और सीथियनों की एक शाखा से थे। ये लोग बड़े ही असभ्य, निर्दयी, रक्त पिपासु तथा लड़ाकू होते थे और युद्ध कला में बड़े कुशल होते थे। लूटमार इनका मुुख्य व्यवसाय था। उनकी एक विशाल सेना थी। शत्रुओं का रक्तपात करने, उनकी सम्पत्ति लूटने तथा उसे जलाकर नष्ट कर देने में उन्हें लेश मात्र भी संकोच नहीं होता था।
खानाबदोश लुटेरे
हूण लोग खानाबदोश लुटेरे थे। वे एक स्थान पर स्थायी रूप से निवास नहीं करते थे अपितु एक स्थान से दूसरे स्थान को निरंतर विचरण करते रहते थे। लगभग 165 ई.पू. में ये लोग यूचियों पर टूट पड़े और उन्हें उत्तरी पश्चिमी चीन से मार भगाया। हूण लोग इस नये प्रदेश में भी स्थायी रूप से नहीं रह सके। इनकी जनसंख्या में वृद्धि हुई और लूट-खसोट की नीति तथा खानाबदोश स्वभाव के कारण ये लोग धीरे-धीरे पश्चिम की ओर बढ़ने लगे। कालान्तर में ये दो शाखाओं में विभक्त हो गये। एक शाखा यूरोप की ओर चली गयी और रोम-साम्राज्य पर टूट पड़ी। दूसरी शाखा ने आक्सस नदी को पार करके फारस को लूटना आरम्भ कर दिया। कालान्तर में ये लोग अफगानिस्तान में प्रवेश कर गये और भारत की सीमा पर आ डटे।
भारत पर आक्रमण
भारत पर हूणों का पहला आक्रमण स्कन्दगुप्त के शासन के प्रारम्भिक भाग में 486 ई. के लगभग हुआ। स्कन्दगुप्त ने बड़ी वीरता तथा साहस के साथ इनका सामना किया इस कारण हूणों को विवश होकर पीछे लौट जाना पड़ा। कुछ समय तक हूण लोग फारस राज्य को लूटते रहे।
तोरमाण: हूणों ने पांचवी शताब्दी ईस्वी के अन्तिम भाग में तोरमाण के नेतृत्व में फिर से भारत पर आक्रमण किया। तोरमाण ने सबसे पहले गान्धार पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने गुप्त साम्राज्य के पश्चिमी भाग पर आक्रमण किया। एरण नामक स्थान पर भानुगुप्त एवं तोरमाण की सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ जिसमें भानुगुप्त का सामन्त गोपराज मारा गया तथा भानुगुप्त परास्त हो गया। इस कारण पूर्वी मालवा पर उसका अधिकार हो गया। मंजुश्रीमूलकल्प के अनुसार मालवा विजय के बाद हूण मगध तक बढ़ गये। तोरमाण ने साकल अर्थात् स्यालकोट को अपनी राजधानी बनाया और वहीं से शासन करने लगा।
मिहिरकुल: तोरमाण के बाद उसका पुत्र मिहिरकुल हूणों का शासक हुआ। वह बड़ा ही निर्दयी तथा रक्त पिपासु था। मिहिरकुल के ग्वालियर अभिलेख से ज्ञात होता है कि 513 ई. से 528 ई. तक मिहिरकुल का मध्य भारत पर पूर्ण अधिकार रहा। उस समय उत्तरी भारत में गुप्तों के स्थान पर वही एक मात्र प्रतापी राजा था।
ह्वेनसांग के विवरण से ज्ञात होता है कि बौद्धों के साथ उसने बड़ा अत्याचार किया। उसने उनके मठों, विहारों तथा स्तूपों को लूटा और निर्दयता के साथ उनका वध कराया। मिहिरकुल ने गुप्त-साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। इन दिनों गुप्त साम्राज्य पर भानुगुप्त बालादित्य शासन कर रहा था। 529-30 ई. में उसने मिहिरकुल को बुरी तरह परास्त किया और उसे बन्दी बना लिया परन्तु बाद में उसने मिहिरकुल को मुक्त कर दिया।
इसी समय मिहिरकुल को एक दूसरे संकट का सामना करना पड़ा। यशोवर्मन नामक एक प्रतापी राजा ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और उस पर अधिकार करके मिहिरकुल को वहाँ से मार भगाया। मिहिरकुल शरण की खोज में काश्मीर भाग गया। काश्मीर के राजा ने दया करके उसे शरण दे दी परन्तु मिहिरकुल ने उसके साथ विश्वासघात कर काश्मीर पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया। इस विश्वासघात के बाद एक वर्ष के भीतर ही मिहिरकुल की मृत्यु हो गई।
हूणों का पतन
मिहिरकुल की मृत्यु के उपरान्त हूणों का पतन आरम्भ हो गया। उसके उत्तराधिकारी कमजोर तथा अयोग्य थे जो उसके राज्य को संभाल नहीं सके। जब भारत में राजपूतों का उत्कर्ष आरम्भ हुआ तो उन्होंने हूणों का विनाश आरम्भ कर दिया। उत्तर-पश्चिम की ओर से तुर्कों ने हूणों को दबाना आरम्भ किया। इस प्रकार हूण लोग दो प्रबल शक्तियों के बीच पिस गये और उनकी राजनीतिक शक्ति समाप्त हो गई। राजनीतिक शक्ति समाप्त हो जाने पर हूण लोग भारतीयों में घुल-मिल गये और अपना पृथक अस्तित्त्व खो बैठे।
हूणों का प्रभाव
हूण लोग भारत में यद्यपि एक भयंकर आंधी की भांति आये तथा थोड़े ही दिनों में उनकी सत्ता समाप्त हो गई, तथापि भारतीयों के नैतिक, धार्मिक और सांस्कृतिक जीवन पर उनका प्रभाव पड़े बिना न रहा।
राजनीतिक प्रभाव: हूणों के आक्रमणों से गुप्त साम्राज्य छिन्न-भिन्न हो गया और उसके स्थान पर छोटे-छोटे राज्यों की स्थापना हो गई। इस प्रकार भारत की राजनीतिक एकता समाप्त हो गई।
धार्मिक प्रभाव: हूणों के आक्रमण से बौद्ध धर्म को बहुत बड़ा धक्का लगा और वह अन्तिम श्वासें लेने लगा। हूणों ने बौद्धों का बड़ी क्रूरता के साथ वध किया और उनके मठों तथा विहारों को लूटा तथा नष्ट-भ्रष्ट कर दिया।
सांस्कृतिक प्रभाव: हूण लड़ाके बड़े ही असभ्य तथा बर्बर थे। उन्होेंने मन्दिरों, मठों, स्तूपों, विहारों आदि का विध्वंस कर भारतीय कला को बहुत क्षति पहुँचाई। वे जहाँ कहीं जाते थे, आग लगा देते थे और उस प्रदेश को उजाड़ देते थे। इससे भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति को बहुत बड़ी हानि पहुँची। हूणों के कारण भारतीय समाज में बहुत सी कुप्रथाएँ तथा अन्धविश्वास प्रचलित हो गये। भारतीय समाज में बहुत सी उपजातियाँ भी बन गईं। अन्त में ये लोग भारतीयों में घुल-मिल गये और भारतीय सभ्यता तथा संस्कृति में इस प्रकार रंग गये कि अब उनका कहीं चिह्न तक उपलब्ध नहीं है।