Friday, November 22, 2024
spot_img

32. बाबर को जीते बिना चित्तौड़ नहीं जाऊंगा!

 तोपों, बंदूकों और तूलगमा टुकड़ियों के बल पर बाबर ने खानवा का युद्ध जीत लिया तथा महाराणा सांगा के घायल हो जाने के कारण सांगा के सामंत सांगा को युद्ध-क्षेत्र से बाहर ले गए। बाबर तोपों और बंदूकों के बल पर ही काबुल से आगरा तक आया था किंतु खानवा के मैदान में मिली जीत उसके लिए अप्रत्याशित थी। सलहदी के 30 हजार सैनिकों का युद्ध-क्षेत्र में सांगा को छोड़कर बाबर की तरफ जाना भी बाबर की विजययात्रा में मील का पत्थर सिद्ध हुआ था।

बाबर ने लिखा है- ‘शत्रुओं को पराजित करके हमने उन्हें एक-एक करके घोड़ों से गिराते हुए उनका पीछा किया। काफिरों का शिविर हमारे शिविर से दो कोस दूरी पर रहा होगा। हमने सांगा के शिविर में पहुंच कर मुहम्मदी, अब्दुल अजीज, अली खाँ तथा कुछ अन्य लोगों को सांगा का पीछा करने के लिए भेजा।’

बाबर ने पश्चाताप करते हुए लिखा है- ‘काफिर के शिविर से लगभग एक कोस आगे निकल जाने के उपरांत दिन का अंत हो गया। इस कारण मैं लौट आया। मैंने सांगा का पीछा करने में थोड़ी शिथिलता कर दी। मुझे स्वयं जाना चाहिए था और जिस कार्य की मुझे इच्छा थी, उसे अन्य लोगों पर नहीं छोड़ना चाहिए था। मैं अपने शिविर में सोने के समय की नमाज के वक्त पहुंचा।’

बाबर ने लिखा है- ‘मुहम्मद शरीफ ज्योतिषी ने मेरी पराजय की भविष्यवाणी करके मुझे परेशानी और चिंता में डाल दिया था किंतु वह मुझे बधाई देने के लिए आया। मैंने उसे बहुत सारी गालियां देकर उसे खूब अपमानित किया किंतु उसकी पिछली सेवाओं का विचार करके उसे एक लाख मुद्राएं दीं तथा उससे कहा कि अब वह मेरा राज्य छोड़कर चला जाए। मेरे राज्य में न ठहरे।’

अगले दिन बाबर ने खानवा में ही पड़ाव किया तथा खानवा की पहाड़ी पर हिन्दुओं के कटे हुए सिरों की मीनार बनवाकर गाजी की उपाधि धारण की जिसका अर्थ होता है काफिरों पर बिजली गिराने वाला या काफिरों पर बिजली बनकर गिरने वाला।

शेख जैनी ने लिखा है कि खानवा की जीत के बाद शाही तुगरा में बाबर को गाजी लिखा जाने लगा। बाबर ने लिखा है कि फतहनामा के तुगरा के नीचे मैंने यह रुबाई लिखी-

इस्लाम के लिए मैं वनों में चक्कर लगाता रहा।

काफिरों तथा हिन्दुओं से युद्ध की तैयारी करता रहा।

मैंने शहीदों के समान मरना निश्चय किया

अल्लाह को धन्यवाद है, मैं गाजी हो गया।

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

कुछ समय बाद जब बाबर ने राजपूतों के विरुद्ध कई युद्ध जीत लिए तब उसने भारत के क्षत्रियों का विश्लेषण करते हुए लिखा- ‘राजपूत मरना जानते हैं पर जीतना नहीं जानते!’ खानवा के मैदान से भी केवल यही कटु-सत्य सामने आया था। खानवा में राजपूत बड़ी संख्या में मृत्यु को प्राप्त हुए किंतु जीत नहीं सके!

उधर जब मूर्च्छित महाराणा को लेकर उसके सामंत आम्बेर राज्य में स्थित बसवा गांव में पहुंचे, तब महाराणा सचेत हुआ और उसने अपने मंत्रियों से पूछा कि सेना की क्या हालत है तथा विजय किसकी हुई? अपने सामंतों से युद्ध-क्षेत्र का समस्त वृत्तांत सुनकर महाराणा ने अपने मंत्रियों एवं सेनापतियों पर रोष प्रकट किया कि वे उसे युद्धस्थल से इतना दूर क्यों ले आए हैं! सांगा ने अपने मंत्रियों एवं सेनापतियों को आदेश दिया कि यहीं डेरा डाल दें तथा बाबर से पुनः युद्ध की तैयारी आरम्भ करें। जब तक मैं बाबर को विजय न कर लूंगा, चित्तौड़ नहीं लौटूंगा। राणा अपनी सेना एवं सामंतों को लेकर बसवा से रणथंभौर चला गया। अपनी पराजय के कारण महाराणा बहुत उदास रहा करता था।

एक दिन टोडरमल चांचल्या नामक एक चारण सांगा के पास आया। उसने महाराणा को एक गीत सुनाया जिसमें महाभारत एवं रामायण के महान् योद्धाओं पर आए संकटों के बारे में बताया गया था। इस गीत को सुनकर महाराणा के मन में फिर से उत्साह का संचार हुआ तथा उसने चारण को एक गांव पुरस्कार में दिया।

जनवरी 1528 में बाबर ने चंदेरी पर आक्रमण करने का निश्चय किया। पाठकों को स्मरण होगा कि चंदेरी का किला महाराणा सांगा के अधीन था और उसने मेदिनीराय को चंदेरी का शासक नियुक्त किया था। बाबर कालपी, इरिच और खजवा होता हुआ 19 जनवरी 1528 को चंदेरी पहुंचा।

जब राणा सांगा को सूचना मिली कि बाबर चंदेरी पहुंच गया है तो सांगा ने भी बाबर के पीछे चंदेरी जाने का निर्णय लिया ताकि बाबर से अपनी पराजय का बदला लिया जा सके। कुछ ही समय में सांगा भी कालपी के निकट इरिच गांव पहुंच गया।

कविराज श्यामलदास ने वीरविनोद में, हर विलास सारड़ा ने महाराणा सांगा में, गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने उदयपुर राज्य का इतिहास में लिखा है कि इरिच में सांगा के साथी राजपूतों ने जो नए युद्ध के विरोधी थे, सांगा को फिर से युद्ध में प्रवष्टि होता देखकर उसे विष दे दिया। विष का प्रभाव बढ़ता देखकर राणा के मंत्री एवं सामंत सांगा को लेकर वापस रणथंभौर लौटने लगे किंतु 30 जनवरी 1528 को कालपी में सांगा की मृत्यु हो गई।

इस प्रकार उस समय के सबसे प्रतापी हिन्दूपति महाराणा सांगा की जीवन-लीला का अंत हुआ। डॉ. के. एस. गुप्ता ने लिखा है कि राणा सांगा का स्वास्थ्य पुनः खराब हो जाने से सांगा का निधन हुआ। वीरविनोद में महाराणा की मृत्यु अप्रेल 1527 में होनी लिखी है जो कि स्वीकार्य नहीं है। चतुरकुल चरित्र में महाराणा की मृत्यु 30 जनवरी 1528 को होनी लिखी है, यह तिथि सत्य जान पड़ती है।

महाराणा की पार्थिव देह माण्डलगढ़ लाई गई और वहीं उसका अंतिम संस्कार किया गया। अमरकाव्य के अनुसार महाराणा का निधन कालपी में हुआ तथा माण्डलगढ़ में दाहक्रिया हुई। कविराज श्यामलदास ने खानवा के युद्ध-क्षेत्र से महाराणा को बसवा में लाये जाने, बसवा में ही निधन होने एवं बसवा में ही अंतिमक्रिया होने का उल्लेख किया है। गौरीशंकर हीराचंद ओझा ने अमर काव्य के विवरण को सही माना है। अर्थात् महाराणा की मृत्यु कालपी में हुई तथा अंतिम क्रिया माण्डलगढ़ में हुई।

महाराणा की मृत्यु होते ही दिल्ली की सल्तनत पर बाबर का अधिकार पक्का हो गया। भारत में अब बाबर का मार्ग रोक सकने योग्य कोई शक्ति शेष न रही। खानवा के युद्ध में महाराणा सांगा की पराजय ने भारत का इतिहास बदल दिया।

यदि बाबर का आगमन न हुआ होता तो इस बात की पूरी संभावना थी कि महाराणा संग्रामसिंह दिल्ली पर अधिकार कर लेता और जो दिल्ली, पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु के बाद तुर्कों के अधिकार में चली गई थी, एक बार पुनः हिन्दुओं के पास आ जाती किंतु भारत के भाग्य में ऐसा होना लिखा नहीं था!

– डॉ. मोहनलाल गुप्ता

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source