चंदावर एवं रणथंभौर के चौहानों के राज्य छल से छीनने के बाद इल्तुतमिश ने ग्वालियर पर अधिकार करने का निश्चय किया। ग्वालियर पर गजनी के तुर्कों ने सर्वप्रथम ई.1197 में अधिकार किया था। उस युद्ध का नेतृत्व मुहम्मद गौरी के सेनापति कुतुबुद्दीन ऐबक ने किया था। जब ई.1210 में कुतुबुद्दीन ऐबक की मृत्य होने पर आरामशाह ने स्वयं को दिल्ली सल्तनत का स्वामी घोषित कर दिया तथा इल्तुतमिश ने उसका विरोध किया तो प्रतिहार वंशीय राजकुमार विग्रह ने इसे अपने लिए अच्छा अवसर देखकर ग्वालियर के दुर्ग पर अधिकार कर लिया। तब से यही प्रतिहार ग्वालियर पर शासन कर रह थे।
ई.1232 में शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ने एक विशाल सेना लेकर ग्वालियर का दुर्ग घेर लिया। उसने अपने अनेक अमीरों एवं सेनापतियों को अपनी-अपनी सेनाएं लेकर ग्वालियर पहुंचने के आदेश दिए। इस समय राजा मलयवर्मन ग्वालियर का शासक था। उसने अपनी सेनाओं को ग्वालियर दुर्ग में केन्द्रित कर लिया तथा बड़ी बहादुरी से मुस्लिम सेनाओं का सामना करने लगा। शाहजहांकालीन लेखक खड्गराय ने अपनी पुस्तक ‘गोपाचल आख्यान’ में लिखा है कि शम्सुद्दीन इल्तुतमिश ग्वालियर के पश्चिम से ग्वालियर की घाटी में पहुंचा और उसने दुर्ग को घेर लिया किंतु जब बहुत समय बीत जाने पर भी दुर्ग पर अधिकार नहीं हो सका तो इल्तुतमिश ने हैवत खाँ चौहान को अपना दूत बनाकर प्रतिहार राजा के पास भेजा।
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दूत ने दुर्ग में प्रवेश करके राजा मलयवर्मन से भेंट की तथा उससे कहा कि सुल्तान चाहता है कि राजा मलयवर्मन अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान से कर दे तथा स्वयं आत्मसमर्पण कर दे तो घेरा उठा लिया जाएगा। राजा मलयवर्मा ने सुल्तान का प्रस्ताव अस्वीकार कर दिया। इससे नाराज होकर इल्तुतमिश ने अपनी सेनाओं को दुर्ग पर हमला करने के आदेश दिए। मुस्लिम सेना ने दुर्ग के सामने स्थान-स्थान पर मचान बना लिए तथा उन मचानों पर चढ़कर दुर्ग पर पत्थर और तीर बरसाने लगे।
राजपूत सैनिक भी दुर्ग की प्राचीरों पर चढ़कर मचानों पर खड़े मुसलमान सैनिकों पर तीरों और पत्थरों की बौछार करने लगे। कई माह तक इसी तरह युद्ध चलता रहा जिसमें दोनों ओर के सैनिक मारे जाते रहे। अंत में राजपूतों ने दुर्ग से बाहर निकलकर युद्ध करने का निश्चय किया। दुर्ग की स्त्रियों ने जौहर किया और राजा मलयदेव (मलयवर्मन) अपने सैनिकों सहित दुर्ग से बाहर आकर लड़ने लगा। इस युद्ध में 5,360 मुस्लिम सैनिक मारे गए जबकि राजा मलयदेव भी अपने डेढ़ हजार सैनिकों सहित युद्धक्षेत्र में काम आया।
खड्गराय द्वारा किया गया यह वर्णन इस युद्ध से लगभग पांच सौ साल बाद का है इसलिए इसमें सच्चाई का अंश कितना है, कहा नहीं जा सकता। फिर भी अनुमान होता है कि यह वर्णन किसी अन्य प्राचीन ग्रंथ के आधार पर किया गया होगा जो कि अब उपलब्ध नहीं है। इल्तुतिमश कालीन मुस्लिम लेखक मिनहाज उस् सिराज इस घेरेबंदी में इल्तुतमिश के साथ ग्वालियर में उपस्थित था। उसने ग्वालियर दुर्ग की घेराबंदी का बहुत संक्षिप्त उल्लेख किया है तथा घेरेबंदी के समय घटी घटनाओं का कोई वर्णन नहीं किया है।
मिनहाज ने लिखा है- ‘लगभग 11 महीने तक मुस्लिम सेनाएं ग्वालियर का दुर्ग लेने का प्रयास करती रहीं। जब किले में रसद सामग्री समाप्त हो गई तो राजा मलयवर्मन एक रात्रि में चुपचाप दुर्ग खाली करके चला गया। जब मुस्लिम सेनाएं दुर्ग में घुसीं तो दुर्ग पूरी तरह खाली था। इस पर इल्तुतमिश ने 800 मनुष्यों को पकड़कर मंगवाया तथा दुर्ग-विजय की प्रसन्नता में दुर्ग के सामने उनका कत्ल किया। दुर्ग पर विजय प्राप्त करने के उपलक्ष्य में सुल्तान ने अपने अमीरों के पदों में वृद्धि की तथा उन्हें सम्मानित किया तथा बयाना एवं सुल्तानकोट के प्रमुख अधिकारी को ग्वालियर का प्रबंधक बना दिया। कन्नौज, महिर और महाबन की सेनाएं उसके अधीन कर दी गईं ताकि कालिंजर और चंदेरी के हिन्दू दुर्गपतियों के विरुद्ध कार्यवाही की जा सके।’ इसके बाद ई.1233 में सुल्तान इल्तुतमिश दिल्ली चला गया।
ग्वालियर के स्वर्गीय प्रतिहार शासक मलयवर्मन के भाई नरवर्मन का एक ताम्रपत्र ग्वालियर के निकट शिवपुरी से तथा एक शिलालेख ग्वालियर के निकट गांगोला ताल से मिले हैं। ये दोनों लेख ई.1247 के हैं। इनमें राजा नरवर्मन द्वारा ब्राह्मणों को गांव दान दिए जाने के उल्लेख हैं। इससे सिद्ध होता है कि ग्वालियर का दुर्ग भले ही प्रतिहारों के हाथों से निकल गया था किंतु उसके आसपास के क्षेत्र पर प्रतिहारों का अधिकार बना रहा। हरिहरनिवास द्विवेदी का मत है कि मलयवर्मा के भाई नरवर्मन ने अपने भाई से विश्वासघात करके इल्तुतमिश का साथ दिया था। इस कारण इल्तुतमिश ने कुछ समय तक ‘गोपाचल’ अर्थात् ग्वालियर दुर्ग उसके अधीन रहने दिया था। ई.1280 का एक शिलालेख चंदेल राजा वीरवर्मन का मिला है। इसमें भी एक ब्राह्मण को एक गांव दिए जाने का उल्लेख है तथा कहा गया है कि इस राजा ने गोपालगिरि अर्थात् ग्वालियर के राजा हरिराज को जीता था। इस काल में दिल्ली सल्तनत पर बलबन का शासन था। इस शिलालेख से यह सिद्ध होता है कि ग्वालियर के प्रतिहार राजा ई.1280 में भी अस्तित्व में थे जो भले ही ग्वालियर दुर्ग पर अधिकार खो बैठे थे किंतु वे इस क्षेत्र के किसी भूभाग के स्वामी थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता