यह संसार हलचलों से भरा हुआ है। हर ओर संघर्ष है, भागमभाग है, शोर है और प्रतिस्पर्द्धा है। यह सारा संघर्ष, भागमभाग, शोर और प्रतिस्पर्द्धा इसलिए है, क्योंकि हर जीव प्रतिक्षण कुछ न कुछ प्राप्त करना चाहता है। प्रत्येक जीव किसी न किसी चीज केे लिए तरस रहा है।
जिस प्रकार मुनष्यों में संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा है, उसी प्रकार जीव-जंतुओं में भी संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा है। वनस्पतियों में भी संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा है। पंचमहाभूतों (आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी) में भी संघर्ष एवं प्रतिस्पर्द्धा है। वास्तविकता तो यह है कि समस्त निर्जीव समझी जाने वाली अर्थात् जड़ कही जाने वाली वस्तुओं में भी प्रतिस्पर्द्धा है। यह संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा ही सृष्टि को जीवन एवं गति देते हैं और यही संघर्ष एवं प्रतिस्पर्द्धा सृष्टि को विनाश की ओर ले जाते हैं।
इस बात को इस तरह समझा जा सकता है कि समस्त सजीव और निर्जीव वस्तुएं अणुओं से बनी हैं जिन्हें हम आंख से नहीं देख सकते। इन छोटे-छोटे अणुओं के भीतर अनवरत संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा चल रहे हैं। प्रत्येक अणु में एक या एक से अधिक परमाणु होते हैं। प्रत्येक परमाणु के केन्द्र में प्रोटोन और न्यूट्रॉन होते हैं और इनके चारों ओर इलेक्ट्रॉन चक्कर लगाते रहते हैं। इनमें से न्यूट्रॉन पर कोई आवेश नहीं होता, जबकि प्रोटोन पर धनात्मक एवं इलेक्ट्रॉन पर ऋणात्मक आवेश होता है। परमाणु के भीतर स्थित प्रोटोन, न्यूट्रॉन और इलैक्ट्रॉन के आवेशों का अंतर ही उनके परस्पर आकर्षण, विकर्षण, संघर्ष एवं प्रतिस्पर्द्धा का कारण है।
प्रत्येक परमाणु के भीतर बैठा प्रोटॉन, अपने चारों ओर घूम रहे इलैक्ट्रॉनों को आकर्षित करके उन्हें न्यूट्रॉन के साथ बांधे रखने का प्रयास करता है जबकि उसी अणु के दूसरे परमाणु में बैठे प्रोटॉन, या किसी अन्य अणु के परमाणु में बैठे प्रोटॉन, इन इलैक्ट्रॉनों को अपनी तरफ खींचने के लिए दबाव बनाते हैं। अर्थात् प्रत्येक परमाणु अपने इलैक्ट्रॉन को छोड़ना नहीं चाहता किंतु दूसरे परमाणु के इलैक्टॉन को प्राप्त करना चाहता है। इस संघर्ष के कारण कुछ इलैक्ट्रोनों को विवश होकर अपना परमाणु छोड़ना पड़ता है और दूसरे परमाणु में कूदना पड़ता है। यहीं से भौतिक जगत में संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा का क्रम आरम्भ होता है।
जिस प्रकार इलैक्ट्रॉन एक दूसरे को धक्का देते हैं, उसी प्रकार एक परमाणु दूसरे परमाणु को धक्का देकर उसका स्थान प्राप्त करना चाहता है जबकि पहला परमाणु अपना स्थान नहीं छोड़ना चाहता है। यही स्थिति अणुओं की होती है। अणुओं एवं परमाणुओं के भीतर चलने वाले संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा से ऊर्जा उत्पन्न होती है जिससे जड़ अस्तित्वों की जड़ता टूटती है और वे कुछ नया रचने की स्थिति में आते हैं। सृजन की इस प्रक्रिया में पूरा संसार हलचल अर्थात् गति से भर जाता है। यह हलचल ही संसार की उन्नति का आधार है। इस उन्नति की चरम परिणति जड़ (निर्जीव) एवं चेतन (सजीव) समझे जाने वाले पदार्थों एवं अस्तित्वों के रूप में होती है।
जब आंखों से दिखाई न देने वाले अणुओं और परमाणुओं के भीतर दिन-रात इतना भीषण संघर्ष चलता है और प्रतिस्पर्द्धा होती है, तब हम कल्पना कर सकते हैं कि सजीव अस्तित्वों में संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा कितने उच्च स्तर पर होते हैं! भोजन और आश्रय के लिए वनस्पतियों, कीट-पतंगों और पशु-पक्षियों में दिन-रात संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा चलते रहते हैं।
मनुष्यों में परस्पर संघर्ष एवं प्रतिस्पर्द्धा रोटी, कपड़ा और मकान प्राप्त करने के लिए होते हैं। ये संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा मनुष्यों में लालच, क्रोध और अहंकार जैसी नकारात्मक स्थितियाँ उत्पन्न करते हैं और पूरा संसार शोर तथा भागमभाग से भर जाता है जिसका अंतिम परिणाम सम्पूर्ण जगत् में अशांति के रूप में दिखाई देता है।
रोटी, कपड़ा और मकान प्राप्त करने के लिए होने वाला संघर्ष कोई पाप नहीं है, ये तो मनुष्य की मूलभूत आवश्यकताएं हैं जिनके लिए मनुष्य को संघर्ष करना ही पड़ेगा किंतु जब संघर्ष रोटी, कपड़ा और मकान प्राप्त होने के बाद भी चलता रहता है और मनुष्य अपने लालच और अहंकार की पूर्ति के लिए संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा करने लगता है तो अशांति का स्तर कई गुना बढ़ जाता है।
सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त यह अशांति क्षण-प्रतिक्षण बढ़ती ही जाती है। संसार से प्रेम और श्रद्धा के भाव कम होने लगते हैं और युद्ध, घृणा एवं हिंसा का बोलबाला हो जाता है। ऐसी स्थिति में कोई भी निर्जीव या सजीव अस्तित्व संतुलित नहीं रह पाता। वह अपने स्थान से गिरने लगता है। ठीक वैसे ही जैसे भूकम्प आने पर धरती के ऊपर कोई भी वस्तु स्थिर नहीं रह पाती।
स्थिरता नष्ट होते ही प्रकृति के कण-कण से संतोष, आनंद और प्रेम के भाव समाप्त होने लगते हैं। जड़ एवं चेतन पदार्थ एक दूसरे को शत्रुभाव से देखने लगते हैं और वे एक-दूसरे को नष्ट करने पर तुल जाते हैं। प्रकृति के इसी असंतुलन को दूर करने के लिए वैदिक ऋषियों ने शांति की कामना की।
यद्यपि वेदों के प्रत्येक मंत्र में सर्वत्र सुख एवं शांति की ही कामना की गई है तथापि यजुर्वेद के शांतिमंत्र में शांति की कामना को अत्यंत प्रभावशाली एवं स्पष्ट शब्दों में व्यक्त किया गया है। इस मंत्र अथवा प्रार्थना का सार यह है कि सृष्टि का प्रत्येक कण शांत हो जाए। इसलिए वैदिक काल से ही हिंदुओं ने इस मंत्र को अपने दैनिक पूजापाठ में अनिवार्य रूप से सम्मिलित किया। यह प्रार्थना इस प्रकार से है-
ओम् द्यौः शांतिरंतरिक्षः शांतिः पृथिवीः शांतिरापः
शांतिरोषधयः शांतिर्वनस्पतयः शांतिर्विश्वेदेवाः
शांतिर्ब्रह्म शांतिः सर्वम् शांतिः शांति सामा शांतिरेधि।
ओम् शांतिः शांतिः शांतिः।
इस मंत्र का शाब्दिक अर्थ है- हे प्रभु सम्पूर्ण प्रकाशमान लोक (अर्थात् तीनों लोकों) में शान्ति हो। अंतरिक्ष शांत रहे, पृथ्वी शांत रहे, अग्नि और जल शांत रहें। औषधियाँ शांत रहें, वनस्पतियाँ शांत रहें, विश्व के समस्त देव शांत रहें, ब्रह्म शांत रहे, हर ओर शांति हो, हमारी वाणाी में शांति हो, कण-कण में शांति हो।
यदि हम प्रतिदिन शांति की कामना और प्रार्थना करेंगे तो हमारे चारों ओर सकरात्मक ऊर्जा का प्रवाह होगा तथा हमारे आसपास का सम्पूर्ण वातावरण हमारे अनुकूल बनेगा। हम व्यर्थ की बातों से उद्वेलित होकर दूसरे लोगों की गर्दन काटने के लिए नहीं दौड़ेंगे। हम बदला लेने की नहीं, क्षमा करने की संस्कृति की तरफ बढ़ेंगे। हम सड़कों पर उत्तेजना फैलाने वाले नारे नहीं लगाएंगे। हम दूसरों के घर, दुकानें, रेलें और बसें नहीं जलाएंगे। हम व्यर्थ के संघर्ष और प्रतिस्पर्द्धा को समाप्त करके अपने जीवन को सुंदर बनाने की ओर बढ़ेंगे।
जीवन सुख, शांति, प्रेम और श्रद्धा के साथ जीने के लिए है, न कि दूसरों की गर्दन काटने के लिए! क्षण भर के लिए शांत होकर सोचिए कि जब कोई मनुष्य किसी भी पशु, पक्षी या मनुष्य की गर्दन काटता है या उसके प्रति मनसा, वाचा अथवा कर्मणा हिंसा करता है, तो इस सृष्टि में कितना तनाव उत्पन्न होता होगा! यह तनाव नकारात्मक ऊर्जा के रूप में संसार के प्रत्येक प्राणी तक पहुंचता है। छोटे-छोटे बच्चों एवं गर्भस्थ शिशुओं तक भी पहुंचता है और वे माँ के पेट में ही विकलांग, विक्षिप्त अथवा मानसिक रोगी बन जाते हैं। संसार को इस तनाव से बचाने के लिए शांति का यह मंत्र एक अचूक औषधि है।
कितने खेद और दुःख की बात है कि कुछ लोग मजहबी संकीर्णताओं के चलते दूसरे प्राणियों की गर्दनें काटते हैं और इस सृष्टि में दिन-रात तनाव एवं नकारात्मक ऊर्जा उत्पन्न करते हैं। जब सृष्टि में शांतिपाठों की उपेक्षा होती है, तब प्रकृति कुपित होकर भूकम्प, ज्वालामुखी, महामारी, अकाल, भूख, बेरोजगारी, हिंसा, युद्ध आगजनी और अकाल मृत्यु जैसे घातक उपकरणों से मनुष्य जाति का उपचार करती है। इसलिए हमारा सर्वोच्च कर्त्तव्य हर समय शांति की कामना करना तथा शांति की स्थापना के लिए प्रयास करना ही है।
- डॉ. मोहनलाल गुप्ता