तैमूर लंग की सेना ने पंजाब से पकड़े गए एक लाख निरीह हिन्दुओं को दिल्ली के बाहर काट डाला ताकि तैमूर की सेना इन बंदियों के बोझ से मुक्त हो जाए। जब तैमूर की सेना ने दिल्ली को घेर लिया तो दिल्ली के सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद तुगलक तथा प्रधानमंत्री मल्लू इकबाल खाँ को तैमूर लंग से लड़ने के लिए बाहर आना पड़ा किंतु वे शीघ्र ही युद्ध के मैदान से भाग छूटे।
दिल्ली का सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद तुगलक गुजरात की ओर एवं प्रधानमंत्री मल्लू इकबाल खाँ बरान की ओर भाग गया। अब दिल्ली की रक्षा करने वाला कोई नहीं था। दिल्ली के किले और महल वीरान पड़े थे एवं दिल्ली की जनता अपने सिरों पर मण्डरा रही मौत की छायाओं को स्पष्ट अनुभव कर रही थी। हजारों लोग पहले ही दिल्ली छोड़कर भाग चुके थे किंतु बहुत से लोग इतने सौभाग्यशाली नहीं थे कि दिल्ली से भाग सकते, इसलिए अपने घरों में छिपकर अपने संभावित दुर्भाग्य पर आंसू बहा रहे थे।
दिल्ली में रहने वाले हजारों गुलामों, हिंजड़ों और वेश्याओं को इस बात से कोई अंतर नहीं पड़ता था कि वे दिल्ली में रहकर तैमूर लंग की गुलामी करें या सुल्तान के पीछे भागकर तुगलकों की गुलामी करें। इसलिए वे दिल्ली में ही डटे रहे। उनके लिए दुनिया का प्रत्येक स्थान उतना ही बुरा था जितनी कि दिल्ली! उन वीर एवं साहसी हिन्दुओं की संख्या भी कम नहीं थी जो तैमूर के सैनिकों का सिर काटकर यमुनाजी में बहा देने के लिए दिल्ली में डटे हुए थे!
तैमूर लंग को दिल्ली के तुगलकों एवं तुर्की अमीरों की कुछ बड़ी कमजोरियों के बारे में समरकंद में ही जानकारी मिल गई थी किंतु उसने कभी स्वप्न में भी नहीं सोचा था कि दिल्ली में तैमूर लंग को बिना कोई युद्ध किए ही प्रवेश मिल जाएगा। 27 दिसम्बर 1398 को तैमूर ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसने फीरोजशाह तुगलक की कब्र के पास खड़े होकर इस अप्रत्याशित जीत के लिए अल्लाह को धन्यवाद दिया।
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उसी दिन तैमूर के सैनिकों का एक दल दिल्ली नगर के द्वार पर शहर से माल एवं रसद एकत्रित करने के लिए पहुंचा। सीरी, जहांपनाह और प्राचीन दिल्ली में हिंदुओं के झुण्ड भी एकत्रित हो गए और तैमूर के सैनिकों का विरोध करने लगे। बहुत से हिन्दुओं ने अपने परिवारों को आग में जला दिया एवं हथियार लेकर लड़ने के लिए आ गए। 27, 28 एवं 29 दिसम्बर 1398 को सीरी एवं जहांपनाह में भयानक रक्तपात मचा।
अंत में हिन्दुओं को भागकर प्राचीन दिल्ली में चले जाना पड़ा। 30 दिसम्बर को तैमूर के तुर्की सैनिक भी प्राचीन दिल्ली आ पहुंचे। प्राचीन दिल्ली के हिन्दू योद्धा जामा मस्जिद में एकत्रित हो गए। संभवतः वह जामा मस्जिद वर्तमान जामा मस्जिद से अलग थी। तैमूर के सैनिकों का नेतृत्व अमीरशाह मलिक तथा अली सुल्तान तवाची कर रहे थे। उन्होंने जामा मस्जिद को घेर लिया। दोनों तरफ से मारकाट होने लगी और तब तक चलती रही जब तक कि जामा मस्जिद में मौजूद प्रत्येक हिन्दू का सिर कटकर धरती पर नहीं गिर गया।
तैमूर के सैनिकों ने हिन्दुओं के कटे हुए सिरों का एक बुर्ज बनाया जो आकाश तक पहुंचाया गया। हिन्दुओं के कटे हुए शरीर मांसभोजी पक्षियों के भोजन बन गए। अब तैमूर के सैनिक दिल्ली की बस्तियों में घुस गए तथा लोगों को पकड़-पकड़कर बंदी बनाने लगे। जिन लोगों ने विरोध किया, उन्हें वहीं मार दिया गया।
असंख्य स्त्रियों तथा पुरुषों को गुलाम बनाया गया। कई हजार शिल्पी और यंत्रकार शहर से बाहर लाये गए और युद्ध में सहायता देने वाले खानों, अमीरों एवं अफगानों में बांट दिये गए।
जफरनामा के अनुसार- ‘दिल्ली की शहरपनाह तथा सीरी के महल नष्ट कर दिए गए। हिन्दुओं के सिर काटकर उनके ऊँचे ढेर लगा दिए गए और उनके धड़ हिंसक पशु-पक्षियों के लिए छोड़ दिए गए …… जो निवासी किसी तरह बच गए वे बंदी बना लिए गए।’
पश्चिमी इतिहासकार लेनपूल ने लिखा है- ‘इस लूट के पश्चात् तैमूर लंग का प्रत्येक सिपाही धनवान हो गया तथा उन्हें बीस से दो सौ तक गुलाम अपने देश ले जाने को मिले।’
स्वयं तैमूर लिखता है- ‘काबू के बाहर हो मेरी सेना पूरे शहर में बिखर गई और उसने लूटमार तथा कैद के अतिरिक्त और कुछ परवाह न की। यह सब अल्लाह की मर्जी से हुआ है। मैं नहीं चाहता था कि नगरवासियों को किसी भी प्रकार की तकलीफ हो, पर यह अल्लाह का आदेश था कि नगर नष्ट कर दिया जाये।’
तैमूर पंद्रह दिन तक दिल्ली में रहा। 2 जनवरी 1399 को वह मेरठ होते हुए गंगा किनारे पहुंचा तथा तुगलुकपुर की तरफ बढ़ा। जब वह तुगलुकपुर से केवल दस मील दूर रह गया तब उसे सूचना मिली कि मार्ग में एक स्थान पर कुछ हिन्दू एकत्रित हो रहे हैं। थोड़ा ही चलने पर उसे 48 नावों में सवार हिन्दू मिले जो हथियार लेकर तैमूर लंग से युद्ध करने आए थे। दोनों पक्षों में सशस्त्र युद्ध एवं रक्तपात हुआ। सभी हिन्दू मारे गए। तैमूर ने उनके बच्चों एवं स्त्रियों को बंदी बना लिया।
तैमूर की सेना ने तुगलुकपुर में अपना शिविर लगाया। रात्रि में तैमूर को समाचार मिले कि गंगाजी के दूसरे किनारे पर हिन्दुओं का एक समूह पुनः एकत्रित हो गया है। अगली प्रातः 13 जनवरी 1399 को तैमूर ने एक हजार सैनिकों के साथ गंगाजी को पार किया। थोड़ी ही देर में तैमूर के अमीर सैयद ख्वाजा तथा जहान मलिक भी पांच हजार सैनिक लेकर आ पहुंचे। इन सैनिकों ने हिन्दुओं पर आक्रमण किया। अंततः समस्त हिन्दू सैनिक मारे गए।
यहाँ से तैमूर की सेना हरिद्वार की ओर बढ़ी। जब उसकी सेना हरिद्वार से केवल 2 कोस दूर रह गई, तब तैमूर को सूचना मिली कि बड़ी संख्या में हिन्दू एकत्रित होकर तैमूर पर आक्रमण करने की तैयारी कर रहे हैं। इसलिए तैमूर ने उसी स्थान पर शिविर लगवा दिया तथा उसी दिन रविवार को दोपहर की नमाज पढ़ने के बाद उसने हरिद्वार के निकट एकत्रित हुए हिन्दुओं पर आक्रमण किया। इस युद्ध में भी समस्त हथियारबंद हिन्दू मार डाले गए। सायंकाल की नमाज से पूर्व यह कार्य पूरा कर लिया गया।
अगले दिन सोमवार का सूर्य निकलने से पहले ही हजारों सशस्त्र हिन्दुओं ने तैमूर लंग का शिविर घेर लिया। यह सूचना मिलते ही तैमूर के सैनिकों ने भी कमर कस ली। दोनों पक्षों में भीषण युद्ध हुआ जिसमें हजारों हिन्दू मारे गए। यजदी ने लिखा है- ‘जैसे ही तैमूर की सेना ने तकबीर अर्थात् युद्धघोष किया, काफिर पहाड़ों में भाग गए।’
मुलफुजात-ए-तोमूरी ने लिखा है- ‘मुसलमानों ने उनका पीछा कर उनकी हत्याएं कीं तथा अत्यधिक धन-सम्पत्ति प्राप्त की।’
इस प्रकार स्थान-स्थान पर भारत के हिन्दुओं तथा तैमूर के तुर्कों में भीषण संग्राम हुआ। इन युद्धों में लाखों हिन्दू मारे गए। तैमूर की सेना द्वारा बड़ी संख्या में स्त्रियों तथा बच्चों को गुलाम बनाया गया। हरिद्वार में उसने प्रत्येक घाट पर गाय की हत्या करवाई।
लेनपूल लिखता है- ‘कत्लेआम के यथार्थ उत्सव के उपरांत धर्म के सैनिक तैमूर ने अल्लाह को धन्यवाद दिया और समझा कि उसका भारत आने का उद्देश्य पूरा हुआ।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता