मुहम्मद बिन तुगलक के पूर्ववर्ती शासकों में से एक अल्लाउद्दीन खिलजी ने ई.1303 में चित्तौड़ के रावल रतनसिंह को छल से मारकर गुहिलों के चित्तौड़ राज्य को समाप्त कर दिया था।
अल्लाउद्दीन ने अपने पुत्र खिज्र खां को चित्तौड़ का शासक नियुक्त किया था। खिज्र खां दिल्ली की राजनीति से दूर नहीं रहना चाहता था इसलिए वह ई.1313 में चित्तौड़ छोड़कर दिल्ली चला गया।
इस पर अलाउद्दीन खिलजी ने जालोर के स्वर्गीय राजा कान्हड़देव के भाई मालदेव सोनगरा को चित्तौड़ दुर्ग पर नियुक्त किया। मालदेव सात साल तक चित्तौड़ का किलेदार रहा। ई.1322 के लगभग चित्तौड़ दुर्ग में ही उसका निधन हुआ। उसके बाद उसका पुत्र जेसा (जयसिंह) चित्तौड़ का दुर्गपति हुआ।
चित्तौड़ के गुहिलों की रावल शाखा का भले ही ई.1303 में अंत हो गया था किंतु गुहिलवंश का दीपक अभी सम्पूर्ण रूप से बुझा नहीं था। गुहिलों की एक कनिष्ठ शाखा सीसोद क्षेत्र में छोटे जागीरदार के रूप में शासन कर रही थी जिसे राणा की उपाधि प्राप्त थी।
जब ई.1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हो गई तथा ई.1337 में मुहम्मद बिन तुगलक के एक लाख सिपाही करांचल के अभियान में मार डाले गए तो सीसोद के गुहिल राजपूतों ने भी अपने पुराने राज्य का उद्धार करने का निश्चय किया। तुगलकों की शक्तिशाली सल्तनत के समक्ष सीसोद जैसी छोटी जागीर के सैन्य संसाधन कुछ भी नहीं थे किंतु युद्ध में सेना की विशालता ही पर्याप्त नहीं होती। योद्धा के मन का उत्साह तथा उसके द्वारा अपनाई गई रणनीति बड़ी से बड़ी सेना को परास्त कर सकती है, सीसोदियों ने भी यही किया।
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ई.1338 में एक दिन राणा हमीर के सैनिकों ने अचानक चित्तौड़ दुर्ग पर धावा बोल दिया। दुर्ग में स्थित मालदेव के सिपाही अभी संभल भी नहीं पाए थे कि राणा हम्मीर के सैनिकों ने तुगलक तथा चौहान सैनिकों को पकड़-पकड़कर रस्सियों से बांध दिया। दुर्गपति जेसा किसी तरह भाग निकलने में सफल हो गया।
इसके बाद राणा के सैनिकों ने शत्रु सैनिकों के शरीरों के साथ बड़े-बड़े पत्थर बांध दिए और उन्हें दुर्ग की दीवारों से नीचे गिरा दिया। देखते ही देखते दुर्ग पर सिसोदियों का अधिकार हो गया।
चित्तौड़ से निकाल दिये जाने के बाद जेसा दिल्ली पहुंचा तथा सुल्तान को सारी परिस्थिति से अवगत करवाया। सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने जेसा को विशाल सेना देकर पुनः चित्तौड़ के लिये रवाना किया।
इस बीच राणा हमीर पूरी तैयारी कर चुका था। उसने अपने सम्पूर्ण संसाधन झौंककर दुर्ग की मरम्मत करवा ली तथा चित्तौड़ के पुराने विश्वस्त राजाओं एवं जागीरदारों को दुर्ग की रक्षा के लिए बुला लिया।
इन तैयारियों एवं श्रेष्ठ रणनीति के कारण राणा हम्मीर की सेना दिल्ली की सेना पर भारी पड़ गई। दिल्ली की सेना न केवल परास्त हुई अपितु राजपूतों द्वारा लगभग पूरी नष्ट कर दी गई।
इस प्रकार ई.1303 में छल-बल से की गई रावल रत्नसिंह की पराजय का बदला ई.1338 में ले लिया गया।
चित्तौड़ दुर्ग में महावीर स्वामी के मंदिर में महाराणा कुम्भा के समय का एक शिलालेख लगा है जिसमें राणा हमीर को असंख्य मुसलमानों को रणखेत में मारकर कीर्ति संपादित करने वाला कहा गया है।
इस विजय से राणा हमीर का हौंसला बढ़ गया। उसने एक-एक करके मेवाड़ राज्य के समस्त पुराने क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया।
इसके बाद उसने जीलवाड़ा, गोड़वाड़, पालनपुर तथा ईडर पर भी अधिकार कर लिया। हमीर ने मेवाड़ी भीलों के एक बड़े दल को मारा तथा हाड़ौती के मीणों के विरुद्ध कार्यवाही करके हाड़ा देवीसिंह को बूंदी का राज्य दिलवाया।
कुछ ही वर्षों में छोटी सी सीसोद जागीर का सामंत हमीर, चित्तौड़ का पराक्रमी राजा बन गया। सीसोद के राणा, चित्तौड़ को पाकर महाराणा बन गये। इस प्रकार मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के ठीक मध्य में चित्तौड़ में गुहिलों के साम्राज्य की पुनर्स्थापना हो गई तथा मुहम्मद कुछ नहीं कर सका।
आगे चलकर गुहिलों की महाराणा शाखा में एक से बढ़कर एक प्रतापी राजा हुआ जिसने भारत भूमि पर चढ़ कर आये शत्रुओं से लोहा लिया। उन्होंने न केवल हिन्दू धर्म एवं संस्कृति की रक्षा की तथा राष्ट्रीय राजनीति का नेतृत्व किया अपितु वे भारत की आन-बान और शान का प्रतीक बन गए। उनके शौर्य और बलिदान की गाथाएं संसार भर के इतिहास एवं साहित्य में अमर हो गईं। अगली कड़ी में देखिए- बहमनी साम्राज्य की स्थापना हो गई किंतु मुहम्मद बिन तुगलक कुछ नहीं कर सका!