Thursday, November 21, 2024
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अध्याय – 89 : स्वतंत्रता के द्वार पर भारत

भारत की स्वतंत्रता किसी एक घटना या आंदोलन का परिणाम नहीं थी। इसके पीछे बहुत सी घटनाओं, आंदोलनों एवं दबावों ने काम किया। इसका श्रेय किसी एक व्यक्ति अथवा किसी एक दल को नहीं दिया जा सकता। भारत की स्वतंत्रता के लिये जिम्मेदार तत्त्वों की जड़ें सम्पूर्ण भारत एवं भारत से बाहर कई देशों में फैली हुई थीं। 1857 ई. में लड़े गये प्रथम स्वातंत्र्य समर से लेकर 1947 ई. में स्वाधीनता प्राप्ति तक, लाखों लोगों ने अपने प्राणों की आहुति दी अथवा वे इस प्रक्रिया में दंगों, हमलों एवं दुर्घटनाओं के शिकार हो गये अथवा पुलिस एवं सेना द्वारा मार दिये गये।

भारत को स्वतंत्रता देने के कारण

भारत, इंग्लैण्ड के राजमुकुट में जगमगाने वाला सबसे चमकदार हीरा था। भारत, इंग्लैण्डवासियों की बहुत बड़ी कमजोरी थी क्योंकि भारत से इंग्लैण्ड के लिये अनवरत धन का प्रवाह होता था। अंग्रेज भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन का दमन करते आ रहे थे फिर भी द्वितीय विश्व युद्ध की समाप्ति के बाद अंग्रेजों ने भारत को स्वतंत्र करने का निर्णय लिया तो उसके पीछे अनेक राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय कारण थे-

(1.) इंगलैण्ड को भारी क्षति: द्वितीय विश्वयुद्ध (1939-45 ई.) में हुई भारी क्षति के बाद, ब्रिटेन की साम्राज्यवादी नीति में परिर्वतन आना स्वाभाविक था। युद्ध समाप्ति के समय तक लगने लगा था कि अब ब्रिटेन अधिक दिनों तक भारत पर अपना अधिकार बनाये नहीं रख सकेगा। युद्ध के कारण ब्रिटेन की अर्थव्यवस्था लड़खड़ा गयी थी तथा भारत में स्वतंत्रता आंदोलन अपने चरम पर पहुँच चुका था। इस युद्ध के दौरान इंगलैण्ड पर अेकेले भारत का 500 अरब रुपये का ऋण हो गया था। 1939 ई. में युद्ध आरम्भ होते समय भारतीय सेना में 25 लाख सैनिक थे जो 1947 ई. में घटकर 12 लाख ही रह गये। इनमें से ब्रिटिश सैनिकों की संख्या युद्ध के पश्चात् अर्थात् 1945 ई. में 11,400 रह गई तथा 1947 ई. में घटकर केवल 4,000 रह गई थी। द्वितीय विश्व युद्ध के मोर्चों पर इंग्लैण्ड के नौजवान भारी संख्या में मार डाले गये थे इस कारण भारत सरकार में तेजी से भारतीय नौजवानों को जगह मिलती जा रही थी। यही कारण था कि यदि भारत को 1947 ई. में स्वतंत्रता नहीं मिलती तो भी भारत सरकार का ब्रिटिश चेहरा, लगभग भारतीय हो जाता क्योंकि 1948 ई. में भारत में ब्रिटेन के केवल 300 सिविल सर्वेण्ट रह जाने थे, जबकि 1914 ई. में भारतीय सिविल सेवा के 1,400 सिविल सर्वेण्ट में से 1330 अँग्रेज थे।

(2.) अंतर्राष्ट्रीय दबाव: भारत को स्वतंत्र करने के लिये इंग्लैण्ड पर अंतर्राष्ट्रीय दबाव बढ़ने लगा था। ब्रिटेन की संसद में विपक्ष के नेता विंस्टन चर्चिल किसी भी सूरत में भारतीय स्वतंत्रता के पक्षधर नहीं थे किंतु उन्होंने भी अमरीकी दबाव में स्वीकार किया कि भारतीयों को आजादी देनी पड़ेगी जिसकी आशा में भारतीयों ने अँग्रेजों की ओर से युद्ध में भाग लिया था। रूस और चीन भी इंग्लैण्ड पर दबाव डाल रहे थे कि उसे युद्ध के समय किया गया अपना वायदा निभाना चाहिये तथा भारत को स्वतंत्र करना चाहिये।

(3.) भारतीय सेनाओं में विद्रोह: एक और भी बहुत बड़ा तत्व था जिसने ब्रिटिश सरकार के मनोविज्ञान को हिलाकर रख दिया था। अधिकांश ब्रिटिश इतिहासकार इस तत्व की चर्चा तक नहीं करते। भारतीय इतिहासकार भी ब्रिटिश इतिहासकारों द्वारा वर्णित तथ्यों की भूल-भुलैया में रास्ता भूल जाते हैं। ब्रिटिश सरकार पर सर्वाधिक प्रभाव डालने वाला मनोवैज्ञानिक तत्व था आजाद हिंद फौज के सिपाहियों के साथ भारतीय फौजों द्वारा दर्शायी गयी सहानुभूति एवं उससे उत्पन्न नौ-सैनिक तथा वायु-सैनिक विद्रोह। सैन्य विद्रोह के बाद ब्रिटिश सरकार समझ गयी थी कि अब भारत को तुरंत आजादी देनी होगी चाहे मुस्लिम लीग कितना ही अड़ंगा क्यों न लगाये। वायसराय वैवेल ने अपनी आत्मकथा में लिखा है- ‘भारतीय सेना को अपने देशवासियों को कुचलने में आजमाना अब बुद्धिमानी नहीं होगी। समय बीतने के साथ भारतीय अधिकारियों, सेना और पुलिस की राजभक्ति संदिग्ध होती जायेगी….. ब्रिटिश सरकार की हालत बहुत नाजुक हो जायेगी यदि उसने भारतीय समस्या का हल शीघ्र न तलाश लिया और उसे यह हर कीमत पर तलाश लेना चाहिये।’

(4.) भारत में साम्प्रदायिक दंगे: एक ओर कांग्रेस भारत के लिये आजादी मांग रही थी और दूसरी ओर जिन्ना तथा मुस्लिम लीग, आजादी से पहले मुसमलानों के लिये अलग देश पाकिस्तान के लिये अड़े हुए थे। 16 अगस्त 1946 को वे सीधी कार्यवाही के माध्यम से हजारों हिन्दुओं को मौत के घाट उतारकर अपनी शक्ति का भयावह प्रदर्शन कर चुके थे। उसके बाद भारत में साम्प्रदायिक दंगे रुकने का नाम नहीं ले रहे थे। देश में चारों ओर मारकाट मच गई थी। 13 दिसम्बर 1946 को जिन्ना ने लंदन के किंग्जवे हॉल में भारत की संविधान सभा की भावी कार्यवाही के सम्बन्ध में ब्रिटिश सरकार से परामर्श करने के दौरान अलग मुस्लिम राष्ट्र के लिये भाव विह्वल अपील करते हुए कहा- ‘पाकिस्तान में एक सौ मिलियन लोग केवल मुसलमान होंगे। भारत के उत्तर पश्चिम और उत्तर-पूर्वी क्षेत्रों में जो हमारी अपनी भूमि है और जहाँ हम सत्तर प्रतिशत बहुमत में हैं, में अपना एक राष्ट्र चाहते हैं। वहाँ हम अपनी जीवन शैली के अनुसार रह सकते हैं। हमें कहा गया कि तथाकथित एकीकृत भारत ब्रिटिश द्वारा बनाया गया है। वह तलवार के जोर पर था। उसे उसी तरह नियंत्रित रखा जा सकता है जैसे नियंत्रित रखा गया है। किसी के कहने पर भ्रमित न हों कि भारत एक है तथा वह एक क्यों नहीं रह सकता? हमसे पूछिये कि हम क्या चाहते हैं? मैं कहता हूँ कि पाकिस्तान। इसके अलावा हम कुछ नहीं चाहते।’

(5.) अविश्वास का वातावरण: जैसे-जैसे भारत की आजादी निकट आती दिखाई दे रही थी, वैसे-वैसे भारत में चारों तरफ अविश्वास का वातावरण बढ़ता जा रहा था। जिन्ना और मुस्लिम लीग कांग्रेस पर अविश्वास करते थे तथा कांग्रेस वायसराय वैवेल पर अविश्वास करती थी। वायसराय को इंगलैण्ड की सरकार पर अविश्वास था और प्रधानमंत्री एटली, वायसराय वैवेल पर विश्वास नहीं करता था। भारतीय नेताओं में भी परस्पर अविश्वास का वातावरण था। सरदार पटेल और जवाहरलाल नेहरू भारत के विभाजन को अनिवार्य मानते थे किंतु कांग्रेस के अध्यक्ष मौलाना अबुल कलाम तथा गांधीजी हर हाल में विभाजन रोकना चाहते थे भले ही आजादी का प्रश्न और आगे क्यों न खिसक जाये। जिन्ना चाहता था कि आजादी मिलने से पहले विभाजन की घोषणा हो। सरदार पटेल का मानना था कि देश में गृह-युद्ध की संभावना रोकने और हिंदू मुसलमानों के बीच सद्भावना पनपने की चिंता में वेवेल भारत को और दस वर्ष तक अँग्रेजी शासन के तले रखेगा। कांग्रेस अँग्रेजों पर आरोप लगा रही थी कि भारत के अँग्रेज, जानबूझ कर मुस्लिम लीग की मदद कर रहे हैं ताकि झगड़ा बना रहे और उनका राज भी।

भारत की स्वतंत्रता की प्रक्रिया

प्रधानमंत्री एटली की घोषणा

उपरोक्त राष्ट्रीय एवं अंतर्राष्ट्रीय दबावों के कारण 20 फरवरी 1947 को ब्रिटिश प्रधानमंत्री क्लेमेंट एटली ने हाउस ऑफ कॉमन्स में घोषणा की कि जून 1948 तक भारत की एक उत्तरदायी सरकार को सत्ता हस्तांतरित कर दी जायेगी। ब्रिटेनवासियों के लिये यह एकदम अप्रत्याशित था कि भारत को इतनी शीघ्र आजादी दे दी जाये। एटली की घोषणा में स्पष्ट कहा गया था कि महामना सम्राट की सरकार ने अब पक्का निश्चय कर लिया है कि वह जून 1948 तक भारत में उत्तरदायी लोगों को सत्ता हस्तांतरित कर देगी। …….लंदन की सरकार, भारतीय संविधान सभा द्वारा निर्मित संविधान जिसमें समस्त भारतीयों की सहमति हो, भारत में लागू करने की इंग्लैण्ड की संसद में संस्तुति करेगी। यदि जून 1948 तक संविधान सभा द्वारा, इस प्रकार का संविधान, नहीं बनाया गया तो ब्रिटिश सरकार यह सोचने के लिये विवश होगी कि ब्रिटिश भारत में केंद्र की सत्ता किसको सौंपी जाये, नयी केंद्रीय सरकार को या कुछ क्षेत्रों में प्रांतीय सरकारों को? या फिर किसी अन्य उचित माध्यम को भारतीय जनता के सर्वोच्च हितों के लिये दी जाये…….? देशी राज्यों के सम्बन्ध में कहा गया था कि महामाना सम्राट की सरकार की यह मंशा नहीं है कि परमोच्चता के अधीन राज्यों की शक्तियां तथा दायित्व, ब्रिटिश भारत में किसी अन्य सरकार को सौंपी जायें।

ब्रिटेन में विरोध

ब्रिटेन में भारत की आजादी को लेकर बहुत विरोध था। मोसले ने लिखा है- ‘विंस्टल चर्चिल (पूर्व प्रधानमंत्री एवं अब नेता प्रतिपक्ष) जिसके लिये कांग्रेस एक भीड़ थी और गांधी एक उपद्रवी, इस घोषणा को सुनकर सूखी घास पर गिरे बम की तरह भड़क उठा। उसने कहा कि इन तथाकथित राजनीतिज्ञों के हाथों में हिन्दुस्तान की बागडोर देकर ऐसे लोगों के हाथों शासन सौंपा जा रहा है जिनका कुछ वर्षों में कोई चिह्न नहीं बचेगा।’ उसने सलाह दी कि भारत की आजादी की तिथि निश्चित करने के लिये संयुक्त राष्ट्र संघ की सहायता ली जाये किंतु भारत में आजादी का आंदोलन तथा सांप्रदायिक तनाव जिस चरम पर पहुंच चुके थे उन्हें देखते हुए अब ब्रिटिश पार्लियामेंट में और उसके बाहर चर्चिल के विरोध को सुनने वाला कोई नहीं था।

लार्ड माउण्टबेटन की नियुक्ति

ऐसे विकट समय में मि. एटली और क्रिप्स ने भारत की आजादी को कार्यरूप देने के लिये, लॉर्ड वेवल को युद्ध काल की नियुक्ति बताते हुए वापस बुला लिया तथा उसके स्थान पर माउन्टबेटन को भारत का अन्तिम गवर्नर जनरल एवं वायसराय नियुक्त किया।  वे 22 मार्च 1947 को भारत पहुँच गये। प्रधानमंत्री एटली द्वारा भारत की आजादी की अंतिम तिथि घोषित की जा चुकी थी। अतः माउण्टबेटन का काम केवल इतना था कि वे भारत को आजाद करके अँग्रेजों को उनकी पूरी गरिमा और शांति के साथ भारत से निकाल ले जायें। इस काम के लिये उन्हें इतनी शक्तियां दी गईं, जितनी उनसे पहले के किसी वायसराय को नहीं दी गईं। भारत आते ही माउन्टबेटन को अनुभव हो गया कि कांग्रेस और मुस्लिम लीग में समझौता असम्भव है। भारत की स्थिति अत्यंन्त निराशाजनक स्थिति में पहुँच चुकी है। शासन का मनोबल गिरा हुआ है तथा सिविल सेवाओं और सेना में स्वामि-भक्ति का अभाव है। मुस्लिम लीग ने पाकिस्तान प्राप्त करने के लिए जबरदस्त मार-काट मचा रखी थी और कांग्रेस, लीग की नीतियों का विरोध कर रही थी। ऐसी स्थिति में ब्रिटिश प्रधानमंत्री की 30 जून 1948 तक सत्ता हस्तान्तरित करने की घोषणा विनाशकारी सिद्ध हो सकती थी।

ब्रिटिश सरकार की नीति

प्रधानमंत्री एटली ने मार्च 1947 में वायसराय को पत्र लिखकर ब्रिटिश सरकार की नीति को स्पष्ट किया-

सम्राट की सरकार का यह एक निश्चित उद्देश्य है कि भारत में ब्रिटिश कॉमनवेल्थ के दायरे में विधानसभा की सहायता से एक सरकार, कैबिनेट मिशन की योजना के आधार पर बने और काम करे। अपनी पूरी शक्ति से आपको समस्त पार्टियों को इस लक्ष्य की ओर ले जाना चाहिये। चूंकि यह योजना प्रमुख पार्टियों की सहमति से ही बन सकती है इसलिये किसी पार्टी को विवश नहीं किया जाये। यदि 1 अक्टूबर तक आप समझते हों कि हिंदुस्तानी रजवाड़ों की सहायता के साथ या उसके बिना ब्रिटिश हिंदुस्तान में एक सरकार बनाने की कोई संभावना नहीं है तो आपको इसकी सूचनी सरकार को देनी चाहिये और सलाह भेजनी चाहिये कि किस तरह निश्चित तिथि को सत्ता हस्तांतरित की जा सकती है। यह अत्यंत महत्वपूर्ण है कि भारतीय रियासतें ब्रिटिश भारत में बनने वाली नयी सरकार से अपने सम्बन्धों का समायोजन करें किंतु सम्राट की सरकार की मंशा यह कतई नहीं है कि परमसत्ता के अधीनस्थ शक्तियों एवं दायित्वों का स्थानांतरण नयी उत्तराधिकारी सरकार को किया जाये। यह मंशा नहीं है कि सत्ता के स्थानांतरण से पूर्व की परमसत्ता को एक निर्णायक पद्धति के तौर पर लिया जाये अपितु आवश्यकता पड़ने पर वायसराय अपनी समझ के अनुसार प्रत्येक रियासत के साथ अलग से ब्रिटिश क्राउन के सम्बन्धों के समायोजन पर वार्ता कर सकते हैं। वायसराय देशी रियासतों की सहायता करेंगे ताकि रियासतें ब्रिटिश भारत के नेताओं के साथ भविष्य के लिये उचित एवं न्यायपूर्ण सम्बन्ध बना सकें। अंतरिम सरकार के साथ आपको किस तरह के सम्बन्ध बनाने हैं, इस सम्बन्ध में लार्ड वेवेल द्वारा 30 मई 1946 को कांग्रेस पार्टी के अध्यक्ष को लिखा गया पत्र आपका निर्देशन करेगा। सम्राट की सरकार भारत की अंतरिम सरकार को वह दर्जा नहीं देगी जो औपनिवेशिक सरकार को होंगे फिर भी अंतरिम सरकार के साथ वही व्यवहार किया जायेगा जो एक औपनिवेशिक सरकार के साथ किया जाना चाहिये ताकि अंतरिम सरकार स्वयं को भविष्य के लिये तैयार कर सके।

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