पिछली कड़ी में हमने चंद्रवंशियों के पुरु एवं तुर्वुसु नामक दो राजकुलों के मिलने से बने पौरव कुल के प्रथम राजा दुष्यंत और स्वर्ग की अप्सरा मेनका की पुत्री शकुन्तला के गंधर्व विवाह से उत्पन्न पुत्र राजा भरत की चर्चा की थी।
राजा भरत की गणना महाभारत में वर्णित सोलह सर्वश्रेष्ठ राजाओं में होती है। राजा भरत का एक नाम ‘सर्वदमन’ भी था क्योंकि भरत ने बाल्यकाल में ही कई बड़े-बड़े राक्षसों, दानवों और सिंहों का दमन किया था।
शकुंतला के पुत्र भरत हिंसक वन्य-जीवों तथा दुर्दांत पर्वतीय पशुओं को भी सहज ही परास्त करके अपने अधीन कर लेते थे। अपने जीवन काल में उन्होंने यमुना, सरस्वती तथा गंगा के तटों पर क्रमशः एक सौ, तीन सौ तथा चार सौ अश्वमेध यज्ञ किये थे। इस उल्लेख से स्पष्ट होता है कि इस काल में आर्यजन इन नदियों के प्रदेश में फैले हुए थे।
राजा भरत प्रवृत्ति से दानशील तथा वीर थे। राज्यपद मिलने पर भरत ने अपने राज्य का विस्तार किया। कुछ ग्रंथों में वर्णन आया है कि राजा भरत ने अपने पुरखों की प्राचीन राजधानी प्रतिष्ठानपुर के स्थान पर हस्तिनापुर को नई राजधानी बनाया। जबकि महाभारत आदि कुछ ग्रंथों के अनुसार राजा भरत के चैथे वंशज हस्ति ने हस्तिनापुर बसाया जो कि वंशक्रम में महर्षि अत्रि से अट्ठाइसवां वंशज था।
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राजा भरत का विवाह विदर्भराज की तीन कन्याओं से हुआ था जिनसे उन्हें नौ पुत्रों की प्राप्ति हुई। भरत ने कहा- ‘ये पुत्र मेरे अनुरूप नहीं हैं।’ अतः तीनों रानियों ने भरत के शाप से डरकर अपने-अपने पुत्रों का हनन कर दिया। तब देवराज इंद्र देवगुरु बृहस्पति के पुत्र मन्यु को राजा भरत के पास लेकर आए जिससे पौरव वंश आगे चला।
इस उल्लेख से अनुमान होता है कि राजा भरत की रानियां गर्भवती तो हुईं किंतु उनके बालक जीवित नहीं रहे। अतः बृहस्पति नामक ऋषि के पुत्र को गोद लिया गया। कुछ ग्रंथों में उल्लेख है कि मरुद्गण की कृपा से राजा भरत को भरद्वाज नामक पुत्र की प्राप्ति हुई जो आगे चलकर एक महान ऋषि हुए। इस आख्यान का अर्थ यह प्रतीत होता है कि भरद्वाज, राजा भरत के औरस पुत्र नहीं थे, अपितु उन्हें मरुद्गणों के माध्यम से किसी अन्य स्थान से प्राप्त किया गया था।
भारद्वाज के जन्म की कथा भी अत्यंत विचित्र है। कुछ पुराणों में कहा गया है कि बृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की गर्भवती पत्नी ममता का बलपूर्वक गर्भाधान किया। उसके गर्भ में दीर्घतपा नामक संतान पहले से ही विद्यमान थी। बृहस्पति ने ममता से कहा- ‘मेरे पुत्र भरद्वाज का पालन-पोषण कर। यह मेरा औरस और मेरे भाई का क्षेत्रज पुत्र होने के कारण हम दोनों का पुत्र है।’
ममता बृहस्पति के पुत्र का पालन-पोषण करने को तैयार नहीं थी। अतः वह बृहस्पति के पुत्र भरद्वाज को वहीं छोड़कर चली गई। मरूद्गणों ने वह बालक राजा भरत को दे दिया। श्रीमद्भागवत् पुराण के अनुसार वंश के बिखर जाने पर भरत ने ‘मरुत्स्तोम’ नामक यज्ञ किया। इस पर मरुद्गणों ने भरत को भरद्वाज नामक पुत्र दिया। भरत की कथा को आगे बढ़ाने से पहले हमें यहीं रुककर उस कथा की फिर से चर्चा करनी होगी जिसमें चंद्रमा द्वारा देवगुरु बृहस्पति की पत्नी तारा का अपहरण करके उसका गर्भाधान करने की बात कही गई थी जिसके परिणाम स्वरूप बुध का जन्म हुआ था।
जिस प्रकार उस कथा में चंद्रमा के प्रभाव से तारा नामक नक्षत्र के बृहस्पति के प्रभावक्षेत्र से खिसककर चंद्रमा की तरफ आने तथा उसके परिणाम स्वरूप तारा से बुध नामक नक्षत्र के टूटकर अलग होने की घटना का मानवीकरण देखने को मिला था, ठीक उसी प्रकार बृहस्पति द्वारा अपने भाई उतथ्य की पत्नी का अपहरण करके उसे बलपूर्वक गर्भवती करने की कथा में भी किसी खगोलीय घटना का मानवीकरण किए जाने का अनुमान होता है।
ममता के गर्भ में बृहस्पति द्वारा बलपूर्वक भरद्वाज को उत्पन्न करने की घटना वस्तुतः किसी खगोलीय घटना का मानवीकरण है जिसे चंद्रवंशी राजा भरत से जोड़ दिया गया है। मरुद्णों द्वारा की गई सहायता का आशय खगोलीय पिण्डों के गुरुत्वकर्षण क्षेत्र में परिवर्तन करने से लगाया जा सकता है जिसके कारण ममता नामक खगोलीय पिण्ड अपनी धुरी से खिसककर उतथ्य नामक नक्षत्र के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र से दूर चला गया तथा बृहस्पति नामक नक्षत्र के गुरुत्वाकर्षण क्षेत्र में प्रवेश कर गया जिसके कारण ममता नामक नक्षत्र से अलग हुए पदार्थ से एक नीवन नक्षत्र बन गया जिसे भरद्वाज कहा गया।
जिस समय ममता नामक नक्षत्र उतथ्य के प्रभावक्षेत्र से बाहर निकला, उस समय ममता नामक नक्षत्र से दीर्घतपा नामक नक्षत्र के अलग होने की प्रक्रिया भी चल रही थी।
यदि हम राजा भरत की तीन रानियों के नौ पुत्रों के मरने तथा मरुद्गणों द्वारा बृहस्पति से पुत्र लाकर देने की कथा पर विचार करें तो हम पाएंगे कि स्वयं भरत भी कोई नक्षत्र था जिसके प्रभाव क्षेत्र में स्थित तीन नक्षत्रों से तीन-तीन क्षुद्र ग्रह उत्पन्न हो रहे थे किंतु इन तीनों नक्षत्रों से तीन-तीन छुद्र नक्षत्रों के उत्पन्न होने की घटना पूर्ण नहीं हो सकी इसलिए बृहस्पति के प्रभाव से उत्पन्न भरद्वाज नामक नक्षत्र राजा भरत के प्रभाव क्षेत्र में खिसक आया।
संस्कृत साहित्य में भरत नामक एक अग्नि का उल्लेख हुआ है। संभवतः यहाँ भरत किसी सूर्य का नाम था तथा यह सारी कथा एक सौरमण्डल के निर्माण की है जो हमारे सौर मण्डल से अलग था।
अब यदि हम दुष्यंत और शकुंतला के पुत्र भरत तथा अंतरिक्ष में घट रही घटनाओं में वर्णित नक्षत्रों के नामों को अलग-अलग घटनाओं के रूप में देखें तो हमें स्पष्ट हो जाएगा कि धरती के मानवों एवं आकाश की अंतरिक्षीय घटनाओं को आपस में मिला दिया गया है।
हम आकाशीय घटनाओं को छोड़कर, पुनः धरती के मानवों की ओर लौटते हैं। महाभारत में आए एक उल्लेख के अनुसार राजा भरत ने बड़े-बड़े यज्ञों का अनुष्ठान किया तथा महर्षि भरद्वाज की कृपा से भरत ने भूमन्यु नामक पुत्र प्राप्त किया। इस आख्यान का आशय यह है कि भरत को भरद्वाज ऋषि ने अपना पुत्र प्रदान किया।
भरद्वाज जन्म से ब्राह्मण थे किन्तु भरत का पुत्र बन जाने के कारण क्षत्रिय हो गए। जब राजा भरत का देहावसान हुआ तो भरद्वाज ने स्वयं शासन ग्रहण नहीं करके राजपाट अपने पुत्र वितथ को सौंप दिया और स्वयं तपस्या करने वन में चले गए। इस प्रकार भरद्वाज पुनः ब्राह्मण बन गए।
इस प्रकार ऋषियों के माध्यम से प्राप्त वितथ अथवा भूमन्यु के माध्यम से, राजा भरत का वंश आगे बढ़ा। भरत महान प्रजापालक राजा हुए। उनके नाम पर हमारे देश का नाम भारतवर्ष पड़ा। इसीलिए भरत वंश में उत्पन्न अर्जुन को भगवान श्रीकृष्ण ने गीता के उपदेश में बारम्बार ‘भारत’ कहकर सम्बोधित किया है।
बहुत से लोगों का मानना है कि भारत देश का नामकरण चंद्रवंशी राजा दुष्यंत एवं शकुंतला के पुत्र भरत के नाम पर न होकर सूर्यवंशी राजा भगवान् ऋषभदेव के पुत्र जड़भरत के नाम पर हुआ है। वे अपने समर्थन में भागवत् पुराण, विष्णुपुराण तथा लिंगपुराण के उदाहरण देते हैं। वस्तुतः हमारे देश का भारत नाम न तो शकुंतला और दुष्यंत के पुत्र के नाम पर भारत हुआ और न भगवान् ऋषभदेव के पुत्र जड़भरत के नाम पर हुआ। वास्तविकता यह है कि अत्यंत प्राचीन काल में आर्यों के विविध जनों में भरत नामक एक शक्तिशाली जन था जिसके वंशज इस देश में दूर-दूर तक फैल गए। उन्हीं के नाम पर हमारे देश का नाम भारत हुआ जिसका अर्थ है- भरत के पुत्र।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता