भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध पाकिस्तान बनने से पहले ही खराब हो चुके थे। वे कभी सुधर ही नहीं सके। जवाहरलाल नेहरू को पाकिस्तान के कुछ नेताओं से बड़ा प्रेम था किंतु वे भी भारत-पाकिस्तान सम्बन्धों को बनाकर नहीं रख सके। जवाहर लाल नेहरू सरकार के लिए सबसे पहला खतरा पाकिस्तान द्वारा करवाए गए कबाइली हमले के रूप में ही उत्पन्न हुआ था।
बंटवारे के लगभग एक दशक तक भारत और पाकिस्तान के बीच आना-जाना सरल था। ब्रिटिश काल में बनी रेल-लाइन के सहारे बड़ी संख्या में लोग इधर से उधर जाते थे।
ई.1951 में पाकिस्तान ने अपने लिए नया नागरिकता कानून तैयार किया, इसके बाद जून 1952 में पाकिस्तान से भारत में आने-जाने के लिए पासपोर्ट अनिवार्य किया गया। यहाँ तक कि तब तक भी एक भारतीय-पाकिस्तानी पासपोर्ट दोनों देशों में आने-जाने के लिए वैध था तथा अंतर्राष्ट्रीय पासपोर्ट 1965 के बाद आवश्यक किया गया। इसके बाद ही वीजा लागू किया गया। यह घटना उस दौर में भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध के स्तर में और अधिक गिरावट की पुष्टि करती है।
विभाजन के बाद दोनों ही देशों में एक दूसरे के लेखकों की पुस्तकें बेची जाती थीं। दोनों देशों के उर्दू शायर बिना किसी रोक-टोक के एक दूसरे देश में जाकर अपनी शायरी पढ़ते थे। व्यापार भी बिना किसी रोक-टोक एवं बिना किसी बाधा के जारी था। दोनों तरफ के राजनेता एवं प्रशासनिक अधिकारी एक दूसरे को अच्छी तरह जानते थे। अखबारों के सम्पादक एवं प्रोफेसर भी लगातार एक दूसरे से मिलते रहते थे किंतु धीरे-धीरे यह सब बंद होता चला गया और दोनों देश एक-दूसरे से बिल्कुल अलग हो गए।
बहुत से मुसलमान तो ऐसे भी थे जो रहते तो भारत में थे किंतु स्वयं को पाकिस्तान का नागरिक समझते रहे। बहुत से मुसलमान पाकिस्तान में जाने के बाद पाकिस्तान एवं बांग्लादेश से भारत लौट आए। पाकिस्तान ने भारत की इस उदारता का लाभ उठाने में भी कोई कसर नहीं छोड़ी। एक बार पाकिस्तान ने भारत के उत्तर प्रदेश के निवासी मुहम्मद इस्माइल को भारत में पाकिस्तान का हाईकमिश्नर घोषित कर दिया जबकि वह पाकिस्तानी नागरिक था ही नहीं।
जब समाचार पत्रों में यह मामला उछला, तब पाकिस्तान को अपना कदम वापिस लेना पड़ा। इस नियुक्ति के माध्यम से पाकिस्तान यह जताना चाहता था कि भारत में रह रहे सभी मुसलमान वास्तव में पाकिस्तानी ही हैं। पाकिस्तान चले गए बहुत से मुस्लिम नेता यह मानते रहे कि वे पाकिस्तान में रहते हुए भी भारत में स्थित अपनी सम्पत्तियों के मालिक बने रहेंगे। चौधरी खलीक उज्जमां पाकिस्तान बनने से पहले भारत की केन्द्रीय विधान सभा में विपक्ष का नेता हुआ करता था। वह ई.1947 में पाकिस्तान चला गया तथा कराची में रहने लगा। वह पाकिस्तान मुस्लिम लीग का अध्यक्ष बन गया, फिर भी भारत में अपनी सम्पत्ति की देखभाल करने आता रहा। यही वह व्यक्ति था जिसने ई.1940 में मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन में पाकिस्तान प्रस्ताव रखा था। वह स्वयं को उत्तर प्रदेश का ही नागरिक मानता रहा।
जोगिंदर नाथ मण्डल जो मुस्लिम लीग की तरफ से जवाहरलाल नेहरू के अंतरिम मंत्रिमण्डल में मंत्री बना था, दलित कहे जाने वाले समुदाय का बंगाली राजनीतिज्ञ था। ई.1947 में वह अपने पुराने दोस्त मुहम्मद अली जिन्ना के निमंत्रण पर पाकिस्तान चला गया क्योंकि जिन्ना का मानना था कि भारत की राजनीति में ऊँची जाति के लोगों का वर्चस्व था। जिन्ना ने उसे पाकिस्तान का कानून मंत्री बनाया।
ई.1948 के भारत-पाकिस्तान युद्ध के बाद पूर्वी-पाकिस्तान में हिन्दू-मुस्लिम दंगे और जिन्ना के निधन के बाद मंडल को अलग-थलग कर दिया गया तथा कैबीनेट के मंत्री की हैसियत से जो फाइलें मण्डल तक जानी चाहिए थीं, वे भी गोपनीय कहकर रोक दी गईं। पाकिस्तान के पहले प्रधानमंत्री लियाकत अली खाँ ने जब इस्लाम को राज्य का आधिकारिक धर्म बनाने के प्रस्ताव का समर्थन किया तो मंडल ने महसूस किया कि अब पाकिस्तान में उसके दिन गिनती के ही बचे हैं।
अक्टूबर 1950 में अपने ऊपर हुए मौखिक और शारीरिक हमलों के बाद वह भारत में शरण लेने के लिए कलकत्ता भाग आया। पाकिस्तान सरकार को दिए गए अपने इस्तीफे में उसने पाकिस्तान में अल्पसंख्यकों के अधिकारों और उनके भविष्य का ख्याल नहीं रखने के लिए जिन्ना के उत्तराधिकारियों की निंदा की।
भारत-पाकिस्तान सम्बन्ध न कभी सुधरने थे और न कभी सुधरेंगे। वर्तमान समय में भारत.पाकिस्तान सम्बन्ध अपने सबसे निचले स्तर पर हैं।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता