Thursday, November 21, 2024
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32. मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के समय बिखरा हुआ था भारत!

ई.1173 में शहाबुद्दीन गौरी अफगानिस्तान में स्थित गजनी का नया शासक बना। गजनी का नया राजवंश अधिक शक्ति-सम्पन्न था, इसलिए उसने भारत में तुर्की साम्राज्य के विस्तार के लिए नए रास्ते खोल दिए। महमूद गजनवी की तरह मुहम्मद गौरी के भी भारत पर आक्रमण करने के पीछे कई उद्देश्य थे। उसका सबसे पहला उद्देश्य पंजाब में गजनवी वंश के शासक खुसरवशाह को तथा उसके राज्य को समूल नष्ट करना था ताकि भविष्य में मुहम्मद गौरी के साम्राज्य को कोई खतरा नहीं हो।

मुहम्मद गौरी भारत में एक नए मुस्लिम साम्राज्य की स्थापना करके इतिहास में अपना नाम अमर करना चाहता था तथा अरब के खलीफाओं से अपने लिए प्रशंसा प्राप्त करना चाहता था। महमूद गौरी भी महमूद गजनवी की तरह भारत से विपुल धन-दौलत एवं गुलामों को प्राप्त करना चाहता था।

मुहम्मद गौरी अपने युग के अन्य मध्यएशियाई मुस्लिम शासकों की तरह कट्टर सुन्नी मुसलमान था, इसलिए वह भारत से बुत-परस्ती अर्थात् मूर्ति-पूजा को समाप्त करना अपना परम कर्त्तव्य समझता था। इस प्रकार मुहम्मद गौरी द्वारा भारत पर आक्रमण करने के राजनीतिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक कारण थे। अपने जीवन के अंतिम 31 वर्षों में वह इन्हीं उद्देश्यों की पूर्ति में लगा रहा।

मुहम्मद के आक्रमणों के समय भारत वर्ष कहने को ही एक राष्ट्र था किंतु राजनीतिक, सामाजिक एवं धार्मिक दृष्टि से बुरी तरह से बिखरा हुआ था। केवल प्राकृतिक सीमाएं ही भारत के एक राष्ट्र होने का आभास करवाती थीं। उत्तर में हिमालय तथा उत्तर-पश्चिम में हिन्दूकुश पर्वत, पूर्व में बंगाल की खाड़ी, दक्षिण में हिन्दू महासागर एवं पश्चिम में अरब की खाड़ी इस देश को एक प्राकृतिक राष्ट्र का स्वरूप प्रदान करते थे।

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वह समय बीत चुका था जब वेद, उपनिषद्, पुराण, रामायण, महाभारत एवं गीता आदि महान् ग्रंथ इस देश को एक सांस्कृतिक राष्ट्र बनाते थे। इस समय के भारत में हिन्दू धर्म की शैव, शाक्त तथा वैष्णव शाखाएं विभिन्न उपशाखाओं में विभक्त हो रही थीं तथा उनका बिखराव अपने चरम पर था।

बौद्धधर्म का भारत में नाश हो चुका था किंतु शैवों और बौद्धों के मिश्रण से नाथ सम्प्रदाय से लेकर विभिन्न तांत्रिक मत, कापालिक एवं अघोर सम्प्रदाय आदि जन्म ले चुके थे। जैन धर्म दक्षिण भारत तथा पश्चिम के मरुस्थल में जीवित था तथा दूसरे धर्मों एवं सम्प्रदायों से असम्पृक्त रहकर अपने अलग स्वरूप में फल-फूल रहा था।

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यद्यपि दक्षिण भारत के आलवार, शंकराचार्य एवं रामानुजाचार्य जैसे गुरुओं ने भारत की सांस्कृतिक आत्मा के पुनर्जागरण के राष्ट्रव्यापी अभियान चलाए थे तथापि भारत के सहज विश्वासी और सरल लोग पाखण्डियों के चक्करों में फंस चुके थे और प्रजा को इस भंवर से निकालने के लिए वैष्णव संतों और भक्त कवियों के धरती पर आने में अभी कुछ समय शेष था।

मुहम्मद गौरी के आक्रमणों के समय सिंध, मुल्तान और पंजाब के अधिकांश क्षेत्र गजनी के मुसलमानों के अधिकार में थे तथा वहाँ अलग-अलग मुस्लिम शासक शासन कर रहे थे। रावी नदी के पूर्व में भी बहुत से दुर्ग गजनी के मुसलमानों के अधीन हो गए थे जिनमें हांसी से लेकर लाहौर तथा कांगड़ा तक के दुर्ग सम्मिलित थे। जिस समय मुहम्मद गौरी गजनी का शासक हुआ, उस समय उत्तर भारत में चार प्रमुख हिन्दू राजा शासन कर रहे थे-

(1.) दिल्ली तथा अजमेर में चौहान वंश का राजा पृथ्वीराज तृतीय (ई.1179-92),

(2.) कन्नौज में गहड़वाल वंश का राजा जयचंद (ई.1170-94),

(3.) बिहार में पाल वंश का राजा पालपाल (ई.1165-1200)

(4.) बंगाल में सेन वंश का राजा लक्ष्मण सेन (ई.1178-1206)

इनके साथ ही मध्य चेदि में कलचुरि वंश, मालवा में परमार वंश, गुजरात में चौलुक्य वंश, बदायूं में राष्ट्रकूट वंश सहित अनेक राजपूत वंश छोटे-छोटे राज्यों के स्वामी थे। इन राज्यों में परस्पर फूट थी तथा वे परस्पर संघर्षों में व्यस्त थे। पृथ्वीराज तथा जयचंद में वैमनस्य था। दक्षिण भारत भी बुरी तरह बिखरा हुआ था। देवगिरि में यादव, वारांगल में काकतीय, द्वारसमुद्र में होयसल तथा मदुरा में पाण्ड्य वंश का शासन था। ये राज्य भी परस्पर युद्ध करके एक दूसरे को नष्ट करके अपनी आनुवांशिक परम्परा निभा रहे थे।

सिंध, मुलतान तथा पंजाब में मुस्लिम शासित क्षेत्रों में इस्लाम का प्रसार हो गया था। वहाँ हिन्दुओं को बल-पूर्वक इस्लाम स्वीकार करवाया जा रहा था। जो लोग मुसलमान नहीं बनना चाहते थे, उन्हें या तो उस क्षेत्र से पलायन करना पड़ रहा था अथवा वे भारी भू-राजस्व एवं जजिया आदि कर देकर निर्धनता को प्राप्त कर रहे थे।

सामाजिक दृष्टि से भी इस काल में भारत की दशा बहुत शोचनीय थी। समाज का प्रायः नैतिक पतन हो चुका था। शत्रु से देश की रक्षा और युद्ध का समस्त भार अब भी राजपूत जाति पर था, शेष प्रजा इससे उदासीन थी। हिन्दू शासकों को द्वेष, अहंकार तथा विलास-प्रियता के घुन खाए जा रहे थे। राष्ट्रीय उत्साह पहले की ही भांति विलुप्त था। कुछ शासकों में देश तथा धर्म के लिए मर मिटने का उत्साह था किंतु वे परस्पर फूट का शिकार थे। स्त्रियों की सामाजिक दशा, उत्तर वैदिक काल की अपेक्षा काफी गिर चुकी थी।

ऐसे भारत को गुलाम बना लेना, उसकी संस्कृति को उखाड़ फैंकना, उसकी प्रजा को सदा के लिए विपन्न बना देना मुहम्मद गौरी जैसे प्रबल विदेशी आक्रांता के लिए बहुत आसान नहीं था तो बहुत कठिन भी नहीं था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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