दुर्ग स्थापत्य
‘दुः’ का तात्पर्य दुष्कर (कठिन) से है तथा ‘ग’ का तात्पर्य गमन करने से है। अर्थात् दुर्ग का तात्पर्य उस रचना से है जिस तक गमन करना कठिन होता है। दुर्ग से ही दुर्गम बना है। अतः कहा जा सकता है कि ‘दुर्ग’ स्थापत्य की वह रचना है जो शत्रु से सुरक्षा तथा युद्ध के लिये विशेष रूप से तैयार की गई हो।
सामान्य शब्दों में कहें तो जिस भवन अथवा भवन-समूह के चारों ओर ‘प्राकार’ (प्राचीर अथवा परकोटा) हो, जिसमें सैनिक सन्नद्ध हों, जिसकी प्राचीर पर युद्ध उपकरण लगे हों, जिसमें शत्रु आसानी से प्रवेश न कर सके, जिसका मार्ग दुर्गम हो, शत्रु जिसमें प्रवेश करके भी राजा तक न पहुँच पाये, आदि गुणों से युक्त भवन को दुर्ग कहा जा सकता है।
यह आवश्यक नहीं है कि प्रत्येक दुर्ग में ये सभी गुण हों। सामान्यतः वह भवन जिसके चारों ओर सुदृढ़ एवं ऊँचा परकोटा हो, दुर्ग कहा जा सकता है। मानव जाति ने दुर्ग अथवा दुर्ग की तरह का परिघा (प्राकार अथवा परकोटा) तथा परिखा (खाई) से युक्त आवासीय बस्तियों की रचना करने की कला मध्य-पाषाण काल में ही सीख ली थी ताकि वह वन्य पशुओं तथा अचानक आक्रमण करने वाले शत्रुओं से अपनी और अपने समूह की रक्षा कर सके।
जैसे-जैसे समय आगे बढ़ता गया, प्राकार निर्माण मानव सभ्यता की आवश्यकता बन गया। जब ‘राज्य’ नामक व्यवस्था आरम्भ हुई तो राजा के लिये दुर्ग का निर्माण करना आवश्यक हो गया। ऋग्वेद में दुर्ग अथवा पुर के कई उदाहरण मिलते हैं। उस काल में दुर्ग चौड़े (पृथ्वी), विस्तृत (उर्वी) और और आयस (लौहवर्ण) होते थे और उनके अंदर विस्तृत क्षेत्र होता था-
वि दुर्गा वि द्विषः पुरा घ्नंति राजान् एषाम्। नयंति दुरिता तिरः।
रामायण काल के आते-आते दुर्ग-निर्माण के सिद्धांतों में काफी उन्नति हो गई। रामायण में चार प्रकार के किलों का वर्णन आता है। शुक्रनीति में राज्य के सात अंग- राजा, मंत्री, सुहृत, कोष, राष्ट्र, दुर्ग तथा सेना बताए गए हैं। अर्थात् इन सात चीजों के होने पर ही राज्य स्थापित हो सकता था। शुक्रनीति में दुर्ग को राज्य का हाथ और पैर कहा गया है-
दृग मांत्यं सुहच्छोत्रं मुखं कोशो बलं मनः
हस्तौ पादौ दुर्गे राष्ट्रे राज्यांगानि स्मृतानि हि।।
मनुस्मृति में कहा गया है कि दुर्ग में स्थित एक धनुर्धारी, दुर्ग से बाहर खड़े सौ योद्धाओं का सामना कर सकता है तथा दुर्ग में स्थित सौ धनुर्धारी, दस हजार सैनिकों से युद्ध कर सकते हैं-
एकः शतं योधयति प्राकारस्थो धनुर्धरः।
शतं दशसहस्राणि तस्माद्दुर्ग विधीयते।।
आगे चलकर जब जनपदों, महाजनपदों एवं चक्रवर्ती साम्राज्यों की स्थापना हुई तो एक-एक सम्राट के अधीन कई-कई दुर्ग होने लगे। सम्राट अपने साम्राज्य की सुरक्षा के लिये दुर्गों की विशाल शृंखला खड़ी करने लगे। ये दुर्ग-शृंखलाएं बड़े-बड़े साम्राज्यों का आधार बन गईं। यही कारण है कि राजा, महाराजा, सामंत, ठिकानेदार तथा सेनापतियों ने अपनी तथा अपने राज्य अथवा क्षेत्र की सुरक्षा के लिये विभिन्न प्रकार के दुर्गों का निर्माण करवाया।
समय के साथ, दुर्ग के स्थापत्य एवं शिल्प में विकास होता गया और दुर्गों की रचना जटिल होती चली गई। दुर्ग का प्राकार दोहरा और कहीं-कहीं तो तिहारा भी हो गया। भरतपुर के दुर्ग में दुर्ग-प्राचीर के बाहर मिट्टी की प्राचीर बनवाई गई थी ताकि तोप के गोले मिट्टी की दीवार में धंस जायें और दुर्ग का वास्तविक प्राकार सुरक्षित रह सके। दुर्ग के चारों ओर खाई खोदकर उसमें पानी भरने की व्यवस्था की गई ताकि शत्रु आसानी से दुर्ग की प्राचीर तक नहीं पहुँच सके।
भारत के अनेक प्राचीन ग्रंथों में दुर्ग सम्बन्धी विवेचन किया गया है जिनमें शुक्रनीति, नरपति जयचर्चा, मनुस्मृति, विष्णुधर्म सूत्र, नीति वाक्यामृत, याज्ञवलक्य स्मृति आदि प्रमुख हैं। वायु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण, मत्स्य पुराण, श्रीमद्भागवत् पुराण आदि में भी विभिन्न दुर्गों के सम्बन्ध में संदर्भ आए हैं।
मत्स्य पुराण में दुर्ग निर्माण की विधि तथा राज्य द्वारा दुर्ग के संगृहीत उपकरणों के सम्बन्ध में विस्तृत विवरण दिया गया है। महाभारत में छः प्रकार के दुर्ग बताये गए हैं। मनु स्मृति में भी छः प्रकार के दुर्ग बताये गए हैं। मनु ने गिरि दुर्ग को अधिक गुणों वाला बताया है, इसमें नाना प्रयत्नों से शत्रु का संहार किया जा सकता है-
सर्वेण तु प्रयत्नेन गिरिदुर्गं समाश्रयेत्।
एषां हि बहुगुण्येन गिरिदुर्ग विशिष्यते।
मौर्य कालीन सुप्रसिद्ध लेखक कौटिल्य ने दुर्गों की चार प्रमुख कोटियां निर्धारित की हैं- औदुक, पार्वत, धान्वन तथा वन दुर्ग। शुक्रनीति में नौ तरह के दुर्ग- एरण दुर्ग, पारिख दुर्ग, पारिघ दुर्ग, वन दुर्ग, धन्व दुर्ग, जल दुर्ग, गिरि दुर्ग, सैन्य दुर्ग तथा सहाय दुर्ग बताये गए हैं। नरपति जयाचार्य ने आठ प्रकार के दुर्ग बताये हैं। विष्णुधर्मसूत्र में दुर्गों के छः प्रकार इस प्रकार बताये हैं-
(1.) धन्व दुर्ग: जलविहीन, खुली भूमि पर पांच योजन के घेरे में।
(2.) महीदुर्ग: प्रस्तर खण्डों या ईंटों से निर्मित प्राकारों वाला।
(3.) वार्क्ष दुर्ग: जो चारों ओर से एक योजन तक कंटीले एवं लम्बे वृक्षों, कंटीले लता गुल्मों एवं झाड़ियों से युक्त हो।
(4.) जल दुर्ग: चारों ओर जल से आवृत्त।
(5.) नृदुर्ग: जो चारों ओर से चतुरंगिणी सेना से सुरक्षित हो।
(6.) गिरि दुर्ग: पहाड़ों वाला दुर्ग जिस पर कठिनाई से चढ़ा जा सके और जिसमें केवल एक ही संकीर्ण मार्ग हो।
किला और गढ़ सामान्यतः एक-दूसरे के पर्याय माने जाते हैं, किंतु वस्तुतः इनमें थोड़ा अंतर है। किला पहाड़ी पर बनाया जाता है, जबकि गढ़ का निर्माण भूमि पर होता है। दोनों के चारों ओर सुदृढ़ प्राचीर बनाई जाती थी किंतु गढ़ चूंकि भूमि पर निर्मित होता है, अतः उसके चारों ओर खाई भी खोदी जाती थी।
धीरे-धीरे गढ़ और किले का अंतर लुप्त हो गया और वर्तमान में गढ़, किला, अरसाल, कोट, बरण, आसेद तथा दुर्ग समान अर्थ वाले प्रतीत होते हैं। दुर्ग मूलतः राज्य की सुदृढ़ता एवं सामरिक-शक्ति का प्रतीक माना जाता था। दुर्ग के निर्माण का बुनियादी सिद्धांत प्रायः एक समान रहा है- चारों ओर ऊँचे परकोटे, मजबूत दरवाजे, बुर्ज, कंगूरे, घुमावदार मार्ग इत्यादि।
संस्कृत साहित्य में गढ़ की रचना के संदर्भ में ‘कपिशीश’ नामक एक संरचना का उल्लेख मिलता है। बाद में इन्हें जीवरखा एवं अंगरखा भी कहा जाना लगा। जीवरखा, टेढ़-मेढ़े ढलान युक्त मार्गों पर बनाया गया एक छोटा गढ़ होता था जिसमें सैनिक रखे जाते थे। दुर्ग के ऊपर चार-पांच अश्वों के एक साथ चल सकने योग्य चौड़ी प्राचीर बनाई जाती थी इन्हीं पर घुमटियों के रूप में जीवरखे अथवा अंगरखे बनाये जाते थे।
यहाँ से दुर्गरक्षक सैनिक, आक्रांता सैनिकों पर तीर, गर्म तेल, पत्थर आदि फैंकते थे। जब तोपों का प्रचलन हो गया तो प्राचीर के ऊपरी हिस्से में मोखे बनाये जाने लगे जिनमें तोपों के मुंह खुलते थे। दुर्ग की प्राचीर को मजबूत बनाने के लिये उसके बीच-बीच में गोलाकार बुर्ज बनाई जाने लगी जो भीतर से पोली होती थी। यह एक प्रकार से कपिशीश का ही परिष्कृत रूप थी।
इसके भीतर सैनिक एवं युद्ध सामग्री संगृहीत की जाती थी। दुर्ग में स्थित राजा अथवा सम्राट के आवास तक पहुँचने के लिये एक से अधिक संख्या में दरवाजों का निर्माण होता था जिन्हें पोल कहते थे। इन पोलों पर सैनिकों का कड़ा पहरा रहता था। पूर्व की तरफ का दरवाजा सूरजपोल, पश्चिम की ओर का चांदपोल तथा उत्तर की ओर का धु्रवपोल कहलाता था।
दुर्ग की प्राचीरों पर पत्थर फैंकने के यंत्र लगाये जाते थे। यह चड़स जैसा यंत्र होता था जिसके माध्यम से पत्थर के गोले दूर तक फैंके जा सकते थे। इन यंत्रों का आविष्कार मनुष्य द्वारा उत्तर-वैदिक-काल में कर लिया गया था। इन्हें, ढेंकुली, नालि, भैंरोयंत्र तथा मरकटी यंत्र आदि नामों से पुकारा जाता था। इन यंत्रों का उपयोग सोलहवीं शताब्दी ईस्वी तक अर्थात् तब तक होता रहा जब तक कि भारतीय शासकों को तोपें और बंदूकें प्राप्त नहीं हो गईं।
हिन्दू किलों को तोड़ना अत्यंत कठिन होता था। मुगलों ने हिन्दू किलों को तोड़ने में मुख्यतः तीन प्रकार की रचनाएं काम में लीं- पाशीब, साबात तथा बारूद। किले की प्राचीर के बाहर किले की ऊंचाई तक मिट्टी तथा पत्थरों की सहायता से चबूतरा बनाया जाता था जिसे पाशीब कहते थे। पाशीब का निर्माण सरल नहीं था क्योंकि पाशीब बनाने वाले शिल्पियों एवं सैनिकों पर दुर्ग की प्राचीर से पत्थर के गोले एवं तीर बरसाये जाते थे। उन्हें सुरक्षा देने के लिये साबात बनाये जाते थे।
साबात गाय, बैल, भैंस या भैंसे आदि पशुओं के मोटे चमड़े की छावन को कहते थे। किले से बरसने वाले पत्थरों एवं तीरों की मार से बचने के लिये मोटे चमड़े की लम्बी छत बनाई जाती थी जिसके नीचे रहकर सैनिक दुर्ग की दीवार तक पहुँच जाते थे तथा दुर्ग की नींव एवं दीवारों में बारूद भरकर उसमें विस्फोट करते थे। अकबर ने चित्तौड़ के किले को तोड़ने के लिये ये तीनों तरीके काम में लिए थे।
दुर्ग के भीतर सम्पूर्ण नगर बसाने, खेती करने एवं पशु पालन करने की भी परम्परा थी ताकि यदि दुर्ग को शत्रु द्वारा घेर लिया जाये तो लम्बे समय तक दुर्ग के भीतर खाद्य एवं अन्य जीवनोपयोगी सामग्री की उपलब्धता बनी रह सके।
चित्तौड़ दुर्ग, रणथंभौर दुर्ग, जालोर दुर्ग तथा सिवाना दुर्ग सहित अनेक किलों पर मुसलमान शासकों ने कई-कई वर्ष लम्बे घेरे डाले किंतु दुर्ग के भीतर की स्वावलम्बी व्यवस्था के कारण वे दुर्ग पर तभी विजय प्राप्त कर सके जब या तो दुर्ग के भीतर रसद सामग्री समाप्त हो गई या किसी अपने ने दुर्ग के गुप्त-मार्गों के भेद, आक्रमणकारी को दे दिये। जालोर, सिवाना, रणथंभौर, जैसलमेर आदि दुर्गों का पतन ऐसे ही धोखों से हुआ था।
राज-प्रासादों का स्थापत्य
राजस्थान के स्थापत्य में राज-प्रासादों का एक विशिष्ट रूप दिखाई देता है। नगर-निर्माण में अथवा दुर्ग-निर्माण में राज-प्रासाद का होना अनिवार्य माना जाता था। प्रसिद्ध शिल्पी मण्डन ने राजप्रासाद बनाने का स्थान या तो नगर के बीच में या नगर के एक कोने में ऊँचे स्थान पर ठीक माना है। राजप्रासादों के निर्माण में जो भव्यता को प्रधानता दी गयी वह राजपूत शासकों की बढ़ती हुई शक्ति को प्रदर्शित करती है।
राज-प्रासादों में जनानी ड्योढ़ी एवं मर्दानी ड्योढ़ी, अनिवार्यतः बनायी जाती थीं तथा दोनों को सुगम मार्ग से जोड़ा जाता था। मर्दानी ड्योढ़ी में दरबार लगाने, आम जनता तथा दरबारियों से मिलने, राजकुमारों के निवास आदि की व्यवस्था होती थी।
जनानी ड्योढ़ी में राजपरिवार की महिलाओं के निवास व रसोड़े आदि की व्यवस्था होती थीं। राजप्रासाद के इन समस्त अंगों को जोड़कर एक पूर्ण इकाई का रूप दिया जाता था तथा दुर्ग-स्थापत्य के समान बुर्ज आदि भी बनवाये जाते थे। राजपूत शासकों के राज-प्रासादों के स्थापत्य में बहुत साम्य पाया जाता है।
मुगलों से सम्पर्क स्थापित होने के बाद राज-प्रासादों को चमक-दमक वाले बनाने का क्रम आरम्भ हो गया। उनमें फव्वारे, छोटे उद्यान, पतले खम्भे और उन पर बेल-बूटों की नक्काशी तथा संगमरमर का प्रयोग होने लगा। राजप्रासादों का अलंकरण विशेष रूप से आरम्भ हुआ। बारीक खुदाई, नक्काशी, अलंकृत छज्जे,गवाक्ष आदि राजस्थानीय राजप्रासादों की अपनी विशेषता रही है।
उदयपुर के अमरसिंह महल, पिछोला झील में स्थित जगनिवास और जगमन्दिर, जोधपुर दुर्ग में स्थित फूल महल, आमेर व जयपुर में दीवाने आम व दीवाने खास, बीकानेर में रंगमहल, शीशमहल व अनूप महल आदि में राजपूत स्थापत्य की प्रधानता होते हुए भी सजावट में मुगल शैली अपनायी गयी है।
ज्यों-ज्यों राजपूत शासक एवं सामन्त मुगल दरबार में अधिकाधिक जाने लगे, उनमें मुगलों के वैभव के अनुरूप स्थापत्य में रुचि बढ़ने लगी। मुगलों के पतन के बाद मुगल-आश्रित अनेक शिल्पकारों के परिवारों को राजपूत शासकों ने आश्रय दिया। इनके द्वारा न केवल शासकों के महलों के स्थापत्य में, अपितु सामन्तों के राज-प्रासादों में भी मुगल शैली प्रगति करने लगी।