राजपूत स्थापत्य कला
भारत के इतिहास में 7वीं से 12वीं सदी तक का काल राजपूत-काल कहलाता है। राजपूत स्थापत्य कला, हिन्दू स्थापत्य का ही अंग थी। मूलतः यह गुप्तकाल में विकसित नागर शैली से निकली थी किंतु इस पर बौद्ध एवं जैन शैलियों का भी प्रभाव था।
नगर निर्माण
राजपूत काल के नगर स्थापत्य में नगर की सुरक्षा की चिंता स्पष्ट दिखाई देती है। उस काल के नगर बहुत छोटे होते थे तथा वे किसी परकोटे से घिरे हुए होते थे। परकोटों के बाहर गहरी एवं चौड़ी खाई होती थी। इन नगरों की स्थापना पहाड़ों की तलहटियों में अथवा जंगलों से आच्छादित स्थानों में की जाती थी। प्रायः समस्त दुर्गों के भीतर छोटे-छोटे नगर बनाए गए थे।
इस काल के नगरों की योजना अर्थशास्त्र एवं कामसूत्र आदि ग्रन्थों में दिए गए सिद्धान्तों के अनुरूप रखी जाती थी। नगर के भीतर छोटी-छोटी बस्तियां बनाई जाती थीं। एक बस्ती में प्रायः एक अथवा एक जैसे व्यवसाय करने वाले लोगों को बसाया जाता था। राजा अथवा ठाकुर का निवास नगर के पास किसी पहाड़ी पर बने दुर्ग में होता था अथवा नगर के मध्य में दुर्गनुमा संरचना के भीतर होता था।
नगर की गलियां बहुत संकरी रखी जाती थीं ताकि कम स्थान में अधिक लोग रह सकें। इन गलियों में दो घोड़े एक साथ बड़ी कठिनाई से चल सकते थे। जोधपुर, बीकानेर, आमेर, जालोर, उदयपुर आदि मध्य-कालीन नगरों में इन गलियों को आज भी देखा जा सकता है।
राजपूत कालीन मंदिर स्थापत्य
राजपूत काल में देश के विभिन्न भागों में हिन्दू मन्दिरों का निर्माण बड़ी संख्या में हुआ। इस काल में निर्मित देवालयों के शिल्प-विधानों पर तांत्रिक मतों का प्रभाव दिखाई देता है। प्रतिहारों के काल में वास्तुकला पर शैव मत का प्रभाव छाया रहा। मध्ययुग में मंदिर निर्माण कला उत्तरी और दक्षिणी शैलियों में विभाजित हो गई, उत्तरी नमूने आधारित राजस्थानी वास्तुकला पर दक्षिण के कारीगरों की कुशल राजगीरी का भी प्रभाव पड़ा। सातवीं शताब्दी के मंदिरों में शिखरों का निर्माण अनिवार्य हो गया।
मध्य भारत के कुछ श्रेष्ठ मंदिर एक काल्पनिक राजकुमार जनकाचार्य द्वारा बनाए हुए बताए जाते हैं, जो ब्रह्महत्या के अपराध का प्रायश्चित्त करने के लिए बीस वर्ष तक मंदिर बनवाता रहा। एक अन्य किंवदंति के अनुसार ये असाधारण भवन एक ही रात में पाण्डवों न खड़े किए थे।
पश्चिमी भारत अर्थात् राजस्थान एवं गुजरात आदि प्रांतों में जैन मंदिरों का निर्माण भी बड़ी संख्या में होने लगा। उत्तरी गुजरात का विशाल मंदिर (ई.1125) गुजरात-नरेश सिद्धराज द्वारा और खानदेश के मंदिर गवाली राजवंश द्वारा निर्मित बताए जाते हैं।
हिन्दू और जैन मंदिरों ने वास्तुकला के सिद्धांतों का कड़ाई से पालन किया। मंदिर का रूप-विधान तैयार करने के लिए स्थापक या मुख्य वास्तुकार ही उत्तरदायी होता था। मंदिर-योजना का निष्पादन करने वाले कारीगरों का वर्गीकरण शिल्पी, स्थपति, सूत्रग्राहिन, तक्षक और वर्धाकिन के रूप में होता था।
राजस्थान के जोधपुर जिले के ओसियां गांव से प्रतिहार कालीन (आठवीं से दसवीं शती) मंदिर समूह के अवशेष मिले है। इन हिन्दू मन्दिरों के स्थापत्य पर कल्पना तथा मौलिकता की छाप है। धीरे-धीरे राजस्थान के मन्दिर भी भुवनेश्वर के मन्दिरों की भांति विशाल आकार ग्रहण करते गए तथा वे शिखरों से अलंकृत एवं सुसज्जित होते गए।
मन्दिरों का मुख्य प्रवेश द्वार ‘तोरण द्वार’ कहलाता था। ये प्रायः अलंकृत होते थे। तोरण द्वार में प्रवेश करते ही उप-मण्डप आता था जिसके बाद सभा-मण्डप बनाया जाता था। सभा-मण्डप के दूसरी छोर पर गर्भगृह का प्रवेश-द्वार होता था जिसमें मुख्य देवता की प्रतिमा स्थापित की जाती थी।
गर्भगृह के ऊपर शिखर बनाया जाता था। गर्भगृह के चारों ओर प्रदक्षिणा-पथ का प्रावधान किया जाता था। इस काल के मंदिरों की दीवारों पर भगवान के असुर-दलन प्रसंगों यथा कालिया-मर्दन, पूतना वध, मेदिनी उद्धार आदि का अंकन किया जाता था। मंदिर की बाहरी दीवारों पर स्त्री-प्रतिमाओं का विलासमय अंकन किया जाता था जिनमें नृत्य, शृंगार, क्रीड़ा, प्रेम, आदि की अभिव्यक्ति की जाती थी।
राजपूत कालीन जैन मन्दिरों में देलवाड़ा एवं रणकपुर के मंदिर अपने समय के भव्यतम तक्षण से युक्त हैं। कुम्भलगढ़ के नीलकण्ठ मन्दिर, एकलिंगजी मन्दिर, रणकपुर मन्दिर आदि के चारों ओर ऊंची दीवारें, बड़े दरवाजे तथा बुर्ज आदि बनाकर उन्हें दुर्ग जैसा स्वरूप दिया गया है।
इस काल में बना चितौड़ का कीर्ति-स्तम्भ, देवमूर्तियों का संग्रहालय कहा जाता है। इसका स्थापत्य मन्दिरों के स्थापत्य के काफी निकट है। इसमें देवी-देवताओं तथा जन-जीवन से सम्बन्धित उत्कृष्ट मूर्तियों का अंकन किया गया है। पौराणिक देवताओं की समुचित जानकारी के लिए कीर्तिस्तम्भ एक अच्छा साधन है। प्रसिद्ध वास्तुविद् जी. एस. मूरे ने चित्तौड़ के कीर्तिस्तम्भ को ‘हिन्दू प्रतिमाशास्त्र की अनुपम निधि’ कहा है।
मुगलों के सम्पर्क में आने के बाद राजपूत स्थापत्य कला पर मुस्लिम स्थापत्य का प्रभाव दिखाई देने लगा। इस मिश्रित स्थापत्य शैली को हिन्दू-मुस्लिम शैली एवं इण्डो सारसैनिक शैली स्थापत्य शैली कहा गया। इस काल के मन्दिरों में यद्यपि मोर, तोते, कमल आदि का अंकन हिन्दू पद्धति से होता रहा किंतु उप-मण्डप और सभा-मण्डप के बीच खुला चौक, गर्भगृह के ऊपर के शिखर तथा द्वार की सजावट में मुस्लिम विशेषताएं दिखाई देने लगीं। सभामण्डप अधिक खुले रूप में बनने लगे।
शिखरों पर मुस्लिम गुम्बदों का प्रभाव भी दिखने लगा। बीकानेर के दुर्ग में स्थित देवी के मन्दिर में इस प्रभाव को देखा जा सकता है। इसी काल में बने डूँगरपुर के श्रीनाथजी मन्दिर तथा उदयपुर के जगदीश मन्दिर में हिन्दू स्थापत्य की प्रधानता दिखाई देती है जबकि जोधपुर के घनश्यामजी मन्दिर में तथा जयपुर के जगत शिरोमणि मन्दिर में मुगल शैली की प्रधानता दिखाई देती है।
17वीं तथा 18 वीं सदी में वैष्णव मन्दिर अधिक संख्या में बने। क्योंकि औरंगजेब की धार्मिक कट्टरता के कारण मथुरा-वृंदावन के अनेक मठों एवं मन्दिरों के आचार्य देव-विग्रहों को लेकर हिन्दू राजाओं के राज्य में चले आए। हिन्दू राजाओं ने इन देव-विग्रहों के लिए भूमि, भवन, धन एवं सुरक्षा प्रदान की। ऐसे मंदिरों में नाथद्वारा, कांकरोली, डूँगरपुर, केाटा, जयपुर, करौली आदि के मंदिर उल्लेखनीय हैं।
चूंकि औरंगजेब ने पुराने मंदिरों को गिराने एवं नए मंदिर नहीं बनाने का आदेश दिया था इसलिए मथुरा-वृंदावन से राजस्थान में आए देव-विग्रहों के लिए हवेलियों का निर्माण किया गया। इन हवेलियों में मंदिरों के परम्परागत अलंकरण लुप्त हो गए तथा सभा-मण्डप के स्तम्भों पर केवल कमल के फूल अथवा सामान्य रेखाकृतियों का अंलकरण किया गया। मुगलों के पराभव के बाद 19वीं शताब्दी में बने मन्दिरों में बड़े और खुले बरामदे बनाए जाने लगे।
आबू मंदिर शैली
राजस्थान प्रान्त के सिरोही ज़िले के माउंट आबू पर्वत पर देलवाड़ा के जैन मन्दिरों का एक समूह स्थित है जिसमें पांच मन्दिर हैं। इनमें से विमल वसहि तथा लूणवसहि प्रमुख हैं। ये दोनो मन्दिर एक ही ढंग से निर्मित हैं जो पहाड़ के नीचे वाले भाग में स्थित झाली बाव से लाकर लगाये गये सफेद संगमरमर से बनाये गये हैं।
विमलवसहि: आबू पर्वत पर स्थित देलवाड़ा के ऋषभदेव जैन मन्दिर को कर्नल टॉड ने भारत के समस्त मन्दिरों में उत्कृष्ट माना है। टॉड ने लिखा है- ‘ताजमहल को छोड़कर कोई भी इमारत इस मन्दिर की समता नही कर सकती।’ विक्रम संवत् 1031 में आबू के दण्डनायक विमलशाह द्वारा बनवाये जाने के कारण इसे ‘विमलवसहि’ कहते हैं। विमलशाह अन्हिलवाड़ा का व्यापारी था जिसे परमार राजा धुंधक ने आबू का दण्डनायक नियुक्त किया था।
शताब्दियां व्यतीत हो जाने के उपरांत भी इन मन्दिरों के कलात्मक वैभव की महक ताजा बनी हुई है। मुख्य मन्दिर के चारों और बावन जिनालय हैं तथा दायीं ओर के विशाल कक्ष में विमलशाह की कुलदेवी अम्बा माता का मन्दिर है। मन्दिर के सामने विमलशाह की अश्वारूढ़ मूर्ति स्थापित है जिसके आस-पास संगमरमर के 12 हाथी बने हुए हैं। इसे हस्तिशाला भी कहते हैं।
हस्तिशाला के बाहर सिरोही के शासक लूणकर्ण देवड़ा के वि.सं. 1372 एवं 1373 के दो शिलालेख अंकित हैं। चौदहवीं शती में मुस्लिम आक्रमण के दौरान मन्दिर का एक हिस्सा तोड़ा गया था जिसे बाद में पुनः बनाया गया। सम्पूर्ण मन्दिर श्वेत संगमरमर से निर्मित है। मण्डपों, स्तम्भों, छतरियों तथा वेदियों के निर्माण में श्वेत पत्थर पर इतनी बारीक एवं भव्य खुदाई की गई है जो अन्यत्र दुर्लभ है। मण्डप गोल, चौकोर, गुम्बदकार तथा पिरामिडाकार आदि ज्यामितियी आकृतियों में उत्कीर्ण किये गये हैं।
तोरणों एवं प्रवेशद्वार की कला से लेकर मण्डपों के भीतर उत्कीर्ण पौराणिक प्रसंगों की कला एक ही कलाकार के हाथों की प्रतीत होती है जबकि इनका निर्माण सैंकड़ों कारीगरों की सहायता के बिना संभव नहीं है।
लूणवसहि: विमलवसहि के पास ही स्थित नेमिनाथ मन्दिर भी विक्रम की तेरहवीं शताब्दी का बना हुआ है। इसका निर्माण चौलुक्य राजा वीर धवल के महामंत्री वस्तुपाल एवं तेजपाल ने वि.सं.1287 में करवाया था। आकार-प्रकार में यह मन्दिर भी विमलवसहि जैसा ही है। इसमें मुख्य मंन्दिर, सभामण्डप, जिनालय तथा हस्तिशाला हैं। मुख्य मन्दिर के द्वार के दोनों ओर दो ताक हैं जिन्हें देवराणी-जेठाणी का गवाक्ष कहते हैं। मन्दिर का मुख्य शिल्पी शोभनदेव था।
चार हजार फुट से भी ऊंची पहाड़ी पर संगमरमर के देवालयों का यह जगमगाता हुआ संसार धरती पर एक आश्चर्य ही प्रतीत होता है। बाहर से इन मन्दिरों की बनावट सादी है किन्तु भीतरी भाग में स्तंभों, छतों, मण्डपों एवं द्वारों आदि की तक्षणकला अनुपम है।
एच. कोसेन ने ‘स्ट्रगल फॉर एम्पायर’ में इन मन्दिरों की प्रशंसा करते हुए लिखा है- ‘संगमरमर की पतली और पारदर्शी छिलके जैसे पत्थर का कला, कला से आगे बढकर सुंदरता के स्वप्न में बदल गई है।’
मन्दिर में उत्कीर्ण मूर्तियों से तत्कालीन वेशभूषा, रीति-रिवाज और सामाजिक-धार्मिक मान्यताओं की जानकारी प्राप्त होती है। गुरु-शिष्य परम्परा, राजसभा के शिष्टाचार और जन जीवन की विविध झांकियों से सम्बन्धित मूर्तियाँ भी उत्कीर्ण हैं।
संगीत और नृत्य आदि विषयों पर प्रकाश डालने वाले अनेक नृत्य और वाद्य यंत्रों को भी पत्थरों में बनाया गया है। इनका कला सौष्ठव अनुपम है। देलवाड़ा का यह मन्दिर समूह शिल्पशास्त्र, नाट्यशास्त्र, इतिहास तथा सामाजिक शास्त्र का अध्ययन केन्द्र ही जान पड़ता है। फर्ग्यूसन तथा हेवल स्मिथ आदि वास्तु शास्त्रियों ने भी इन मन्दिरों की भूरि-भूरि प्रशंसा की है।
स्ट्रगल फॉर एम्पायर में इन मन्दिरों के मण्डपों की प्रशंसा के साथ-साथ दोषों की भी चर्चा की गई है- ‘इन मण्डपों में कई प्रकार के तक्षण को बार-बार दोहराया गया है जो स्थापत्य के सिद्धांत की स्पष्ट अवहेलना है। मन्दिर के भीतरी भाग में कई स्थानों पर अनुपात तथा साम्य का अभाव दिखाई देता है जो साधारण दर्शक को भी खटकता है। छतों से लटकने वाले मण्डप का भाग इस तरह बनाया गया है कि सारे मण्डपों को एक साथ नहीं देखा जा सकता। छतें सामान्य अनुपात से नीची हैं। ये दर्शक में थकावट पैदा करने के दोष से भी मुक्त नहीं हैं।’
भीमाशाह मन्दिर: यह मन्दिर विक्रम की पन्द्रहवी शताब्दी में भीमाशाह ने बनवाया था। जैन तीर्थंकर आदिनाथ की 108 मन की पीतल प्रतिमा के कारण इस मन्दिर को ‘पितलहर’ भी कहते हैं। इस मन्दिर में वि.सं.1489 का देवड़ा चूंडा का एक लेख है जिसमें देलवाड़ा के जैन मन्दिरों के दर्शनार्थ आने वाले यात्रियों को कर माफी दिये जाने का उल्लेख है।
चौमुखा पार्श्वनाथ: इस मंदिर समूह का चौथा मंदिर चौमुखा पार्श्वनाथ मंदिर है। यह तीन-मंजिला है तथा इसे सिलावटों का मन्दिर भी कहते हैं। इसमें दो कलात्मक तोरण, खड्गासन प्रतिमायें, यक्षों एवं देवी-देवताओं की मूर्तियाँ विद्यमान हैं। गंभारे के बाहर चतुर्दिश कोरणी है।
महावीर स्वामी मन्दिर: मंदिर समूह का पांचवा मंदिर महावीर स्वामी को समर्पित है। इसकी दीवारों एवं गुम्बद में प्राचीन चित्रकारी विद्यमान है।