एशिया महाद्वीप के निम्न-मध्य-पूर्व भाग में स्थित एक प्रायद्वीप ‘अरब’ कहलाता है। इसके दक्षिण में अदन की खाड़ी, पश्चिम में लालसागर और पूर्व में फारस की खाड़ी स्थित है। इस कारण इस क्षेत्र के निवासी प्राचीन काल से कुशल नाविक रहे हैं और उनकी विदेशों से व्यापार करने में रुचि रही है।
अरब की मुख्य भूमि एक विशाल रेगिस्तान के रूप में स्थित है परन्तु उसके बीच-बीच में उपजाऊ भूमि भी है जहाँ पानी मिल जाता है। इन्हीं उपजाऊ स्थानों में इस देश के लोग निवास करते थे। ये लोग परम्परागत रूप से कबीले बनाकर रहते थे। प्रत्येक कबीले का एक सरदार होता था। इन लोगों की अपने कबीले के प्रति बड़ी भक्ति होती थी और ये उसके लिए अपना सर्वस्व निछावर करने के लिए तैयार रहते थे। ये लोग तम्बुओं में निवास करते थे और खानाबदोशों का जीवन व्यतीत करते थे। ये लोग एक स्थान से दूसरे स्थान में घूमा करते थे और लूट-खसोट करके पेट भरते थे। ऊँट उनकी मुख्य सवारी थी और खजूर उनका मुख्य भोजन था। ये लोग बड़े लड़ाके होते थे।
अरब के रेगिस्तान में इस्लाम का उदय होने से पहले, अरबवासियों के भी धार्मिक विचार प्राचीन काल के हिन्दुओं के समान थे। वे भी हिन्दुओं की भाँति मूर्ति-पूजक थे और उनका अनेक देवी-देवताओं में विश्वास था। जिस प्रकार हिन्दू लोग कुल-देवता, ग्राम-देवता आदि में विश्वास करते थे, उसी प्रकार अरबवासियों के प्रत्येक कबीले का एक देवता होता था, जो उनकी रक्षा करता था।
उस काल में अरब के रेगिस्तान में रहने वाले जनजातीय कबीलों में देवी-देवताओं को जनजातियों के संरक्षक के रूप में देखा जाता था। अरबवासियों का मानना था कि देवी-देवताओं की आत्मा पवित्र पेड़ों, पत्थरों, झरनों और कुओं से जुड़ी हुई थी। ठीक उसी प्रकार आज भी हिन्दू मानते हैं कि वृक्षों, नदियों, पहाड़ों और बावलियों में देवी-देवता निवास करते हैं। अरबवासी आज के हिन्दुओं की तरह भूत-प्रेतों में भी विश्वास करते थे। उनकी धारणा थी कि भूत-प्रेत वृक्षों तथा पत्थरों में निवास करते हैं और मनुष्य को विभिन्न प्रकार के कष्ट देने की शक्ति रखते हैं।
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अरब के रेगिस्तान में मक्का नामक एक प्राचीन कस्बा था जहाँ हजारों साल पुराना एक मंदिर हुआ करता था। इसे काबा का मंदिर कहा जाता था। इस मंदिर में जनजातीय संरक्षक देवी-देवताओं की 360 मूर्तियां थीं। इनमें से तीन देवियां अल्लाह के साथ उनकी बेटियों के रूप में जुड़ी हुई थीं। उन्हें अल्लात, मनात और अल-उज्जा कहा जाता था। अरब के रेगिस्तान में रहने वाले लोग इन 360 मूर्तियों की पूजा करने के लिए साल में कम से कम एक बार अवश्य ही मक्का आया करते थे।
काबा में अत्यंत प्राचीन काल से एक काला पत्थर मौजूद है। अरबवासियों का विश्वास था कि इस पत्थर को अल्लाह ने आसमान से गिरा दिया था। इसलिए वे इस पत्थर को बड़ा पवित्र मानते थे और इसके दर्शन तथा पूजन के लिए काबा जाया करते थे। बहुत से वैज्ञानिकों की धारणा है कि यह पत्थर उल्कापिण्ड के रूप में धरती पर गिरा था। काबा के इस काले पत्थर को आज भी इस्लाम के अनुयाइयों में आदर की दृष्टि से देखा जाता है।
काबा की रक्षा का भार कुरेश नामक कबीले के ऊपर था। इसी कुरेश कबीले में ई.570 में मुहम्मद नामक एक बालक का जन्म हुआ जिसने आगे चलकर अरब की प्राचीन धार्मिक व्यवस्था के विरुद्ध बहुत बड़ी क्रान्ति की और एक नए मत को जन्म दिया, जो इस्लाम के नाम से जाना गया। जब हजरत मुहम्मद 40 साल के हुए तो उन्होंने एक गुफा में फरिश्ता जिबराइल से भेंट की तथा उन्हें अल्लाह से पहला इल्हाम प्राप्त हुआ। यह संदेश इस प्रकार से था- ‘अल्लाह का नाम लो, जिसने सब वस्तुओं की रचना की है।’ मान्यता है कि पैगम्बर मुहम्मद को प्रत्यक्ष रूप में अल्लाह के दर्शन हुए और यह संदेश मिला- ‘अल्लाह के अतिरिक्त कोई दूसरा ईश्वर नहीं है और मुहम्मद उसका पैगम्बर है।’
हजरत मुहम्मद को जिब्राइल के माध्यम से कुरान प्राप्त हुई जो अल्लाह की तरफ से दी गई थी। हजरत मुहम्मद ने अरब के लोगों को उस इल्हाम के रहस्य बताने आरम्भ किए जो उन्हें अल्लाह की तरफ से प्राप्त हुआ था। इस प्रकार संसार में एक नया मजहब स्थापित हुआ जिसे इस्लाम कहते थे।
ई.622 में जब मक्का के प्रभावशाली लोगों को लगा कि आम जनता हजरत मुहम्मद की बातों को पसंद करती है तो उन प्रभावशाली लोगों ने हजरत मुहम्मद को मक्का से बाहर निकाल दिया। इस पर हजरत मुहम्मद अरब के रेगिस्तान में स्थित मदीना नामक कस्बे में चले गए। वहाँ उन्होंने एक सेना संगठित करके मक्का पर आक्रमण किया। इसी के साथ इस्लाम को सैन्य स्वरूप भी प्राप्त हो गया।
इस घटना के बाद हजरत मुहम्मद न केवल इस्लाम के प्रधान स्वीकार कर लिए गए वरन् वे राजनीति के भी प्रधान बन गए और उनके निर्णय सर्वमान्य हो गए। इस प्रकार हजरत मुहम्मद के जीवन काल में इस्लाम तथा राज्य के अध्यक्ष का पद एक ही व्यक्ति में संयुक्त हो गया।
अरब में इस्लाम का प्रचार हो जाने के बाद अरब प्रायद्वीप में स्थित सैंकड़ों मंदिरों को तोड़ दिया गया तथा देव-मूर्तियों को कुफ्र मानकर हटा दिया गया। मस्जिदों का निर्माण करके उनमें अजान दी जाने लगी तथा नमाज पढ़ी जाने लगी। बहुत से लोग मानते हैं कि इस्लाम का उदय केवल धार्मिक आंदोलन नहीं था अपितु वह एक सैनिक एवं राजनीतिक आंदोलन भी था। हज़रत मुहम्मद के जीवनकाल में अरब प्रायद्वीप के अधिकांश भू-भाग पर इस्लाम का वर्चस्व हो गया। 8 जून 632 को हजरत मुहम्मद का देहांत हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता