सन्त शिरोमणि मीराबाई
मध्य-कालीन राजस्थान में सगुण-भक्ति-रस की धारा प्रवाहित करने वाले संत-कवियों में मीराबाई का नाम सर्वोपरि है। उनके जन्मकाल की घटनाएं तो मिलती हैं किंतु जन्म-मृत्यु के सम्बन्ध में निश्चित तिथियाँ नहीं मिलती हैं।
आचार्य रामचन्द्र शुक्ल ने मीरा का जन्म वि.सं. 1573 (ई.1516) में माना है जबकि गौरीशंकर हीराचंद ओझा, हरविलास शारदा तथा गोपीनाथ शर्मा आदि इतिहासकारों ने मीराबाई का जन्म वि.सं. 1555 (ई.1498) में माना है। मीरा के कुछ पदों के आधार पर अनुमान लगाया जाता है कि वह कबीर, तुलसीदास, रैदास और अकबर की समकालीन थीं किन्तु कबीर के जन्म और अकबर की मृत्यु के बीच 200 वर्षों से भी अधिक समय का अंतराल होने से यह सत्य प्रतीत नहीं होता।
मीरां के जन्म के सम्बन्ध में ओझा आदि विद्वानों का मत अधिक सही प्रतीत होता है अतः मीराबाई का जन्म कबीर के निधन के बाद और अकबर के बादशाह बनने से पहले हुआ।
मीराबाई का प्रारम्भिक जीवन
मीराबाई मेड़ता के राव दूदा के द्वितीय पुत्र राठौड़ रतनसिंह की इकलौती पुत्री थी। मीरा का जन्म मेड़ता से लगभग 21 मील दूर कुड़की गांव में हुआ। मीरा की अल्पायु में ही उनकी माँ का निधन हो गया। मीराबाई के दादा राव दूदा तथा उनका परिवार भगवान श्रीकृष्ण के भक्त थे। राव दूदा ने पण्डित गजाधर को मीरा का शिक्षक नियुक्त किया जो पूजा-पाठ के साथ-साथ मीरा को पुराणों की कथाएं एवं स्मृतियां आदि सुनाया करते थे।
इस प्रकार मीरा में कृष्ण के प्रति भक्ति-भावना का बीजारोपण बाल्यकाल में ही हो गया था। मान्यता है कि किसी साधु ने मीरा को उसके बाल्यकाल में भगवान मुरलीधर की मूर्ति दी थी। मीरा उन्हें अपना पति मानने लगीं। राव दूदा की मृत्यु के बाद मीरा के ताऊ वीरमदेव मेड़ता के शासक हुए। ई.1516 में मीरा का विवाह मेवाड़ के महाराणा सांगा के ज्येष्ठ पुत्र भोजराज के साथ हुआ।
विवाह के बाद मीरा भगवान मुरलीधर की मूर्ति को तथा पण्डित गजाधर को चित्तौड़ ले गयी। मीरा ने चित्तौड़ दुर्ग में मुरलीधरजी का मन्दिर बनवाया तथा उनकी सेवा का दायित्व पण्डित गजाधर को सौंप दिया। इस सेवा के बदले गजाधर को मांडल एवं पुर में 2,000 बीघा जमीन प्रदान की गई जो अब भी उनके वंशजों के पास है।
विवाह के 7 वर्ष बाद मीरा के पति भोजराज एक युद्ध में वीरगति को प्राप्त हुए। मीराबाई सांसारिक सुखों से विरक्त होकर सत्संग और भजन-कीर्तन करने लगीं। ई.1528 में मीरा के श्वसुर महाराणा सांगा भी खानवा की लड़ाई में घायल होकर वीरगति को प्राप्त हुए। उनके बाद महाराणा रत्नसिंह और उसके बाद महाराणा विक्रमादित्य मेवाड़ के शासक बने। उन दोनों को यह पसंद नहीं था कि मीरा साधुओं के बीच उठे-बैठे। उन्होंने मीरां का अपमान किया तथा उसे मारने का भी प्रयत्न किया। इस पर मीराबाई चित्तौड़ छोड़कर अपने पीहर मेड़ता लौट गई।
कुछ समय बाद जोधपुर के राव मालदेव ने मीरा के ताऊ वीरमदेव का मेड़ता राज्य छीन लिया। अतः मीरा वृन्दावन चली गईं। महाराणा विक्रमादित्य द्वारा यहाँ भी तंग किए जाने पर मीराबाई वृन्दावन छोड़़कर द्वारिका चली गईं। कुछ समय बाद मीरा के ताऊ के पुत्र जयमल राठौड़ ने मेड़ता पुनः अधिकृत कर लिया और मीरा को द्वारिका से मेड़ता बुलाया किंतु मीरा ने द्वारिका छोड़़ने से मना कर दिया। इस पर जयमल ने कुछ पुरोहितों को द्वारिका भेजा। वे मीरा के द्वार पर बैठ कर उपवास करने लगे।
तब मीराबराई मन्दिर में गयी और एक भजन गाया जिसका अर्थ था कि हे प्रभु! मैं तुम्हारे इस धाम को नहीं त्यागना चाहती, यह मेरा प्रण है किंतु यदि ये ब्राह्मण भूख से मृत्यु को प्राप्त हुए तो मुझे ब्रह्महत्या का दोष लगेगा। अतः आप ऐसा उपाय करें जिससे मेरा प्रण और ब्राह्मणों के प्राण दोनों की रक्षा हो जाए। इस भजन के गाते हुए मीरा के प्राण-पँखेरू उड़ गए और वह द्वारिकाधीश की प्रतिमा में विलीन हो गई।
मीरा की भक्ति भावना
मीरा की रचनाओं में उनकी आध्यात्मिक यात्रा के तीन पड़ाव दिखाई देते हैं। प्रारम्भ में उनकी आत्मा भगवान श्रीकृष्ण के लिए लालायित रहती है और वे प्रेमविरह में व्याकुल होकर कहती हैं- ‘मैं विरहणी बैठी जागूँ, जग सोवे री आली’ ….. ‘दरस बिन दूखण लागे नैण।’ भक्ति के दूसरे पड़ाव में उन्हें श्री कृष्ण की उपलब्धि हो जाती है वह कहती हैं- ‘पायोजी मैंने रामरतन धन पायो’ ……. ‘साजन म्हारे घरि आया हो, जुगा-जुगा री जोवता, विरहणी पिव पाया हो।’
मीरा की भक्ति का तीसरा और अन्तिम पड़ाव है जब उन्हें भक्ति एवं ईश-प्राप्ति के फलस्वरूप उत्पन्न चरम-आनंद की प्राप्ति होती है- ‘अंसुवन जल सींच-सींच प्रेम बेल बोई, अब तो बेल फैल गई आनन्द फल होई।’
भारतीय अध्यात्म में चार प्रकार के मोक्ष माने गए हैं- सायुज्य, सारूप्य, सालोक्य और सामीप्य। सायुज्य मोक्ष में भक्त अपने ईश्वर के साथ एकाकार हो जाता है। सारूप्य मोक्ष में भक्त, ईश्वर के समान रूप धारण कर लेता है, सालोक्य मोक्ष में भक्त अपने ईश्वर के लोक में जाकर स्थित हो जाता है।
सामीप्य मोक्ष में भक्त अपने ईश्वर के समीप स्थित होता है। मीरां को सगुण भक्ति के कारण तथा सगुण भक्ति में भी दाम्पत्य भाव की भक्ति के कारण सायुज्य मोक्ष की प्राप्ति होती है जिसमें वे ईश्वर से एकाकार हो जाती हैं। इस अनुभूति को मीरा ने इस प्रकार व्यक्त किया है- ‘मेरे तो गिरधर गोपाल दूसरा न कोई।’
जनसाधारण में मीराबाई के पद भक्ति-भाव से गाए जाते हैं। मीराबाई भले ही राजस्थान की भक्त-कवयित्री थीं किंतु उनके पदों का गायन पूरे देश में होता है। विभिन्न स्थानों का प्रभाव हो जाने के कारण इन पदों के स्वरूप एवं भाषा में अंतर मिलता है। कर्नल टॉड तथा स्ट्रैटन ने मीराबाई के जीवन पर प्रकाश डाला। नैणसी ने भी मीराबाई का उल्लेख इन शब्दों में किया है- ‘भोजराज सांगावत इणनु कहै छै, मीरांबाई राठौड़ परणाई हुती।’ मुंशी देवी प्रसाद मुंसिफ ने ‘मीराबाई का जीवन और उनका काव्य’ नामक पुस्तक लिखी। महादेवी वर्मा के अनुसार, ‘मीरा के पद विश्व के भक्ति साहित्य के रत्न हैं।’
मीराबाई की रचनाएं
मीराबाई ने अपने फुटकर पद लिखे हैं तथा उनकी भाषा राजस्थानी मिश्रित खड़ी बोली है। कुछ पद विशुद्ध ब्रजभाषा में और कुछ पद गुजराती भाषा भी मिलते हैं। उनके पदों में हिंदी एवं राजस्थानी के साथ-साथ डिंगल, पिंगल, ब्रज, संस्कृत, सधुक्कड़ी भाषाओं के भी दर्शन होते हैं। मीरा के विरह गीतों में समकालीन कवियों की अपेक्षा अधिक स्वाभाविकता एवं मौलिकता पाई जाती है।
इनके लिखें पदों में शांत रस एवं शृंगार रस का प्रयोग अधिक हुआ है। माना जाता है कि मीराबाई ने चार ग्रंथों की रचना की- (1.) बरसी का मायरा, (2.) गीत गोविंद टीका, (3.) राग गोविंद, (4.) राग सोरठ के पद। मीराबाई के लिखे पदों का संकलन ‘मीराबाई की पदावली’ नामक ग्रन्थ में भी किया गया है।
हृदय की गहरी पीड़ा, विरहानुभूति और प्रेम की तन्मयता से भरे हुए मीराबाई के पद हिन्दी साहित्य की अनमोल धरोहर हैं। समर्पण की तीव्र अनुभूति, विरह की घनीभूत वेदना एवं मिलन की प्रसन्नता से निकल पड़ने वाले आँसुओं से सिंचित मीरा के पद गीतिकाव्य के उत्तम नमूने हैं। भावों की सुकुमारता, आडम्बरहीनता और भाषा के सहज प्रवाह के कारण इन्हें लोक में विशेष प्रसिद्धि मिली।
मीरा के पदों में माधुर्य-भक्ति के साथ प्रेम की गहन पीड़ा, विरह की आंतरिक अनुभूति और आध्यात्मिक उदात्तता व्यक्त हुई है जो हिन्दी-साहित्य की अप्रतिम थाती है। सामंती परिवेश की वर्जनाओं को तोड़कर कृष्ण-भक्ति में रंगी-पगी मीरा के पदों में सीधी-सरल एवं हृदय-ग्राही भाषा का प्रयोग हुआ है जो मार्मिक विरह-अभिव्यक्ति एवं अलंकारों के सहज-स्वाभाविक प्रयोग के कारण अनूठा बन पड़ा है।
मीराबाई को संगीत का अच्छा ज्ञान था, इस कारण उनका काव्य विभिन्न राग-रागनियों पर आधारित है। अतः शास्त्रीय गायन में भी मीरा के पदों का उपयोग किया जाता है।
मीरादासी सम्प्रदाय
मीरांबाई ने किसी संप्रदाय की स्थापना नहीं की फिर भी मीरांबाई के भक्ति मार्ग पर चलने वाले भक्त अपने आप को मीरादासी संप्रदाय से जोड़ते हैं। इस संप्रदाय के लोगों की संख्या बहुत कम है। इस संप्रदाय के लोग मीरांबाई की तरह तन्मय होकर हरि-कीर्तन एवं नृत्य करते हैं।
एनसाइक्लोपीडिया ऑफ रिलीजन एण्ड एथिक्स के अनुसार मीरादासी सम्प्रदाय की भक्त-नारियों में कृष्ण के बाल-स्वरूप की अराधना पद्धति प्रचलित है। एच. एच. विल्सन ने भी इस सम्प्रदाय का उल्लेख किया है। माना जाता है कि मीराबाई ने राजस्थान में अनेक राजकुमारों और राजकुमारियों को भक्ति के मार्ग पर चलने की प्रेरणा दी।
इनमें ईडर के अखैराज, बीकानेर के पृथ्वीराज, जयपुर के जयसिंह और प्रतापसिंह, किशनगढ़ के सावन्तसिंह (नागरीदास), पृथ्वीराज की पत्नी रानावतजी, सावंतसिंह की प्रेयसी रसिक बिहारी (बनी-ठनी) एवं उसकी बहिन सुन्दर कंवरी, मारवाड़ की किसनी आदि प्रमुख हैं। मीरा की दाम्पत्य भाव की भक्ति का विधवा स्त्रियों पर विशेष प्रभाव पड़ा जो मीरा की तरह श्रीकृष्ण को अपना पति मानने लगती थीं। मीरादासी सम्प्रदाय की भक्त-नारियां मीराबाई जैसे ही वस्त्र धारण करती थीं।
वर्तमान समय में मीराबाई की प्रसिद्धि
आज मीराबाई की ख्याति पूरे विश्व में है। राव दूदा की राजधानी मेड़ता में भगवान कृष्ण का मध्य-कालीन मंदिर है जिसमें मीराबाई की मनुष्याकार प्रतिमा लगी हुई है। चित्तौड़ दुर्ग में भी मीराबाई का मंदिर है जिस पर भारत सरकार के डाक विभाग ने विशेष आवरण जारी किया। मीराबाई को लेकर कई फीचर-फिल्मों का भी निर्माण हुआ। राजस्थान साहित्य अकादमी का सर्वोच्च साहित्य पुरस्कार मीरा पुरस्कार के नाम से जाना जाता है।