Sunday, December 22, 2024
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अध्याय -45 – भारतीय साहित्यिक विरासत – रवीन्द्र नाथ टैगोर

प्रारम्भिक जीवन

रवीन्द्र नाथ टैगोर का जन्म 7 मई 1861 को कलकत्ता में हुआ। उनके पिता देवेन्द्रनाथ टैगोर ने केशवचंद्र सेन से मतभेद हो जाने के कारण ब्रह्मसमाज से अलग होकर आदि-ब्रह्मसमाज की स्थापना की थी। रवीन्द्रनाथ की माता का नाम शारदा देवी था। रवीन्द्र नाथ टैगोर की प्रारंभिक शिक्षा कोलकाता के सेंट जेवियर स्कूल में हुई।

देवेन्द्र नाथ अपने पुत्र रवीन्द्र नाथ को बैरिस्टर बनाना चाहते थे किंतु रवीन्द्र नाथ की रुचि साहित्य पढ़ने-लिखने में अधिक थी। रवीन्द्र नाथ के पिता ने ई.1878 में उनका लंदन विश्वविद्यालय में प्रवेश कराया परन्तु ई.1880 में वे बिना डिग्री लिये ही वापस आ गए। ई.1883 में रवीन्द्र नाथ टैगोर का विवाह मृणालिनी देवी से हुआ।

सार्वजनिक जीवन

रवीन्द्र नाथ टैगोर बीसवीं सदी के प्रारम्भिक भारत में प्रसिद्ध साहित्यकार, चित्रकार, संगीतज्ञ एवं समाजसेवी के रूप में जाने गए। उन्हें बंगाली एवं अंग्रेजी भाषा के साहित्यकार के रूप में अधिक प्रसिद्धि मिली। उनकी प्रमुख रचना गीतांजलि को ई.1913 में नोबोल पुरुस्कार मिला। ई.1901 में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने शांति निकेतन की स्थापना की जिसके कारण वे गुरुदेव के नाम से प्रसिद्ध हुए।

वे चाहते थे कि प्रत्येक विद्यार्थी प्रकृति के निकट रहकर पढ़े, इसलिये शान्ति निकेतन में बड़ी संख्या में वृक्ष लगाए गए। उन्होंने शांति निकेतन में एक पुस्तकालय की भी स्थापना की। शान्ति निकेतन को विश्वविद्यालय के रूप में मान्यता दी गई। वे अपने जीवन में तीन बार अल्बर्ट आइंस्टीन से मिले जो रवीन्द्र नाथ टैगोर को ‘रब्बी टैगोर’ कहते थे। 7 अगस्त 1941 को रवीन्द्र नाथ टैगोर का निधन हुआ।

रवीन्द्र नाथ टैगोर की प्रमुख रचनाएं

रवीन्द्र नाथ टैगोर ने अपनी पहली कविता केवल आठ वर्ष की आयु में लिखी। ई.1877 में सोलह वर्ष की आयु में उन्होंने प्रथम लघुकथा लिखी। रवीन्द्रनाथ ठाकुर ने बड़ी संख्या में कविता, गीत, उपन्यास, कहानियाँ, निबन्ध तथा नाटक लिखे। उन्होंने 2,230 गीतों एवं कविताओं की रचना की। रवीन्द्र नाथ टैगोर के लिखे गीतों में से ‘जन मन गण’ को भारत के तथा ‘आमार सोनार बांग्ला’ को बांग्लादेश के राष्ट्रगान के रूप में मान्यता मिली।

टैगोर ने बांग्ला साहित्य में नए गद्य और छंद तथा लोकभाषा के उपयोग की शुरुआत की और इस प्रकार शास्त्रीय संस्कृत पर आधारित पारंपरिक प्रारूपों से उसे मुक्ति दिलाई। भारत में रवीन्द्र नाथ टैगोर ने 1880 के दशक में कविताओं की अनेक पुस्तकें प्रकाशित कीं तथा ई.1890 में ‘मानसी’ की रचना की। यह संग्रह उनकी प्रतिभा की परिपक्वता का परिचायक है।

इसमें उनकी कुछ सर्वश्रेष्ठ कविताएँ शामिल हैं, जिनमें से कई बांग्ला भाषा में अपरिचित नई पद्य शैलियों में हैं। साथ ही समसामयिक बंगालियों पर कुछ सामाजिक और राजनीतिक व्यंग्य भी हैं। वे वैश्विक समानता और एकांतिकता के पक्षधर थे। उनकी अधिकतर रचनाएँ बांग्ला भाषा में लिखी हुई हैं। वह एक ऐसे लोक कवि थे जिनका केन्द्रीय तत्त्व अंतिम आदमी की भावनाओं का परिष्कार करना था।

वह मनुष्य मात्र के स्पन्दन के कवि थे। एक ऐसे रचनाकार जिनकी रचनाओं में शाश्वत प्रेम की गहरी अनुभूति है, एक ऐसा नाटककार जिसके रंगमंच पर सिर्फ़ ट्रेजडी ही ज़िंदा नहीं है, जीवन जीने की गहरी जिजीविषा भी है। एक ऐसा कथाकार जो अपने आस-पास से कथालोक चुनता है, बुनता है, सिर्फ़ इसलिए नहीं कि घनीभूत पीड़ा की आवृत्ति करे या उसे ही अनावृत्त करे, बल्कि उस कथालोक में वह आदमी के अंतिम गंतव्य की तलाश भी करता है।

सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ

रवीन्द्र नाथ टैगोर सियालदह और शजादपुर में स्थित पैतृक जमींदारी के प्रबंधन के लिए 10 वर्ष तक पूर्वी बंगाल (वर्तमान बांगला देश) में रहे, वहाँ वह पद्मा नदी (गंगा नदी) पर एक हाउस बोट में ग्रामीणों के निकट संपर्क में रहते थे और उन ग्रामीणों की निर्धनता एवं पिछड़ेपन के प्रति संवेदनाएं ही टैगोर की रचनाओं का मूल स्वर बनीं।

उनकी सर्वश्रेष्ठ कहानियाँ, जिनमें दीन-हीनों का जीवन और उनके छोटे-मोटे दुःख वर्णित हैं, ई.1890 के बाद की हैं और उनकी मार्मिकता में हल्का सा विडंबना का पुट है जो टैगोर की निजी विशेषता है तथा जिसे बाद में फिल्म-निर्देशक सत्यजित राय ने अपनी फ़िल्मों में दर्शाया।

उनकी समस्त चैरासी कहानियाँ ‘गल्पगुच्छ’ की तीन जिल्दों में संग्रहीत हैं। ई.1891 से 1895 के बीच के पाँच वर्षों का समय रवीन्द्रनाथ की साधना का महान् काल था। वे अपनी कहानियाँ सबुज पत्र (हरे पत्ते) में छपवाते थे। आज भी पाठकों को उनकी कहानियों में हरे पत्ते और हरे गाछ मिल सकते हैं। उनकी कहानियों में सूर्य, वर्षा, नदियाँ और नदी किनारे के सरकंडे, वर्षा ऋतु का आकाश, छायादार गाँव, वर्षा से भरे अनाज के प्रसन्न खेत मिलते हैं।

उनकी कहानियों के साधारण पात्र कहानी सम्पूर्ण होते-होते असाधारण मनुष्यों में बदल जाते हैं तथा महानता की पराकाष्ठा छू लेते हैं। उनकी मूक पीड़ा की करुणा पाठक के हृदय को अभिभूत कर लेती है। उनकी कहानी पोस्टमास्टर इस बात का सजीव उदाहरण है कि एक सच्चा कलाकार साधारण उपकरणों से कैसी अद्भुत सृष्टि कर सकता है। कहानी में केवल दो सजीव साधारण-से पात्र हैं।

बहुत कम घटनाओं से भी वे अपनी कहानी का महल खड़ा कर देते हैं। एक छोटी लड़की कैसे बड़े-बड़े इंसानों को अपने स्नेह-पाश में बाँध देती हैं। क़ाबुलीवाला भी इस बात का जीता-जागता उदाहरण है। रवीन्द्रनाथ ने पहली बार अपनी कहानियों में साधारण की महिमा का बखान किया।

रवीन्द्रनाथ की कहानियों में अनपढ़ क़ाबुलीवाला और सुसंस्कृत बंगाली भूत भावनाओं में एक समान हैं। उनकी क़ाबुलीवाला, मास्टर साहब, पोस्टमास्टर आदि कहानियाँ आज भी लोकप्रिय हैं और सर्वश्रेष्ठ भी। पात्रों के साथ रवीन्द्रनाथ की अद्भुत सहानुभूतिपूर्ण एकात्मकता और उसके चित्रण का अतीव सौंदर्य उनकी कहानी को सर्वश्रेष्ठ बना देते हैं जिसे पढ़कर द्रवित हुए बिना नहीं रहा जा सकता।

उनकी कहानियाँ कठोर एवं शुष्क हृदय व्यक्ति को मोम जैसा कोमल बनाने की क्षमता रखती हैं। अतिथि का तारापद रवीन्द्रनाथ की अविस्मरणीय रचनाओं में है। इसका नायक कहीं बँधकर नहीं रह पाता। आजीवन अतिथि ही रहता है। क्षुधित पाषाण, आधी रात में (निशीथे) तथा मास्टर साहब कहानियों में दैवीय तत्त्व का स्पर्श है। क्षुधित पाषाण में रचनाकार की कल्पना अपने सुंदरतम रूप में व्यक्त हुई है।

यहाँ अतीत वर्तमान के साथ वार्तालाप करता है- रंगीन प्रभामय अतीत के साथ नीरस वर्तमान। समाज में महिलाओं का स्थान तथा नारी जीवन की विशेषताएँ उनके लिए गंभीर चिंता के विषय थे और इस विषय में भी उन्होंने गहरी अंतर्दृष्टि का परिचय दिया है।

गीतांजलि का अंग्रेज़ी अनुवाद प्रकाशित होने के एक सप्ताह के भीतर लंदन से प्रकाशित होने वाले प्रसिद्ध साप्ताहिक टाइम्स लिटरेरी सप्लीमेंट में उसकी समीक्षा प्रकाशित हुई थी और बाद में आगामी तीन माह के अंदर तीन समाचार पत्रों में भी उसकी समीक्षा प्रकाशित हुई। रवीन्द्रनाथ ठाकुर को नोबेल पुरस्कार मिलने के सम्बन्ध में ब्रिटिश समाचार पत्रों में मिश्रित प्रतिक्रिया हुई।

द टाइम्स ने लिखा- ‘स्वीडिश एकेडेमी के इस अप्रत्याशित निर्णय पर कुछ समाचार पत्रों में आश्चर्य व्यक्त किया गया है।’ किंतु इसी पत्र के स्टाकहोम स्थित संवाददाता ने अपने डिस्पेच में लिखा- ‘स्वीडन के प्रमुख कवियों और लेखकों ने स्वीडिश कमेटी के सदस्यों की हैसियत से नोबेल कमेटी के इस निर्णय पर पूर्ण संतोष व्यक्त किया है।’

ब्रिटेन के प्रतिष्ठित समाचार पत्र मेन्चेस्टर गार्डियन ने लिखा- ‘रवीन्द्रनाथ टैगोर को नोबेल पुरस्कार मिलने की सूचना पर कुछ लोगों को आश्चर्य अवश्य हुआ पर असंतोष नहीं। टैगोर एक प्रतिभाशाली कवि हैं।’

बाद में द केरसेण्ट मून नामक समाचार पत्र ने लिखा- ‘इस बंगाली (यानी रवीन्द्रनाथ ठाकुर) का अंग्रेज़ी भाषा पर जैसा अधिकार है वैसा बहुत कम अंग्रेज़ों का होता है।’

टैगोर की कविताओं की पांडुलिपि को सबसे पहले विलियम रोथेनस्टाइन ने पढ़ा था और वे इतने मुग्ध हुए कि उन्होंने अंग्रेज़ी कवि यीट्स से संपर्क किया और पश्चिमी जगत् के लेखकों, कवियों, चित्रकारों और चिंतकों से टैगोर का परिचय कराया। उन्होंने ही इंडिया सोसायटी से इसके प्रकाशन की व्यवस्था की। शुरू में 750 प्रतियाँ छापी गईं, जिनमें से सिर्फ़ 250 प्रतियाँ ही बिक्री के लिए थीं।

बाद में मार्च 1913 में मेकमिलन एंड कंपनी लंदन ने इसे प्रकाशित किया और 13 नवंबर 1913 को नोबेल पुरस्कार की घोषणा से पहले इसके दस संस्करण छापने पड़े। यीट्स ने टैगोर के अंग्रेज़ी अनुवादों का चयन करके उनमें कुछ सुधार किए और अंतिम स्वीकृति के लिए उन्हें टैगोर के पास भेजा और लिखा- ‘हम इन कविताओं में निहित अजनबीपन से उतने प्रभावित नहीं हुए, जितना कि यह देखकर कि इनमें तो हमारी ही छवि नज़र आ रही है।’

बाद में यीट्स ने ही अंग्रेज़ी अनुवाद की भूमिका लिखी। उन्होंने लिखा कि कई दिनों तक इन कविताओं का अनुवाद लिए मैं रेलों, बसों और रेस्तराओं में घूमा हूँ और मुझे बार-बार इन कविताओं को इस डर से पढ़ना बंद करना पड़ा है कि कहीं कोई मुझे रोते-सिसकते हुए न देख ले। अपनी भूमिका में यीट्स ने लिखा कि हम लोग लंबी-लंबी किताबें लिखते हैं जिनमें शायद एक भी पन्ना लिखने का ऐसा आनंद नहीं देता है।

बाद में गीतांजलि का जर्मन, फ्रैंच, जापानी, रूसी आदि विश्व की सभी प्रमुख भाषाओं में अनुवाद हुआ और टैगोर की ख्याति विश्व भर में फैल गई। गीतांजलि के लिए उन्हें ई1913 में साहित्य के लिए नोबेल पुरस्कार प्रदान किया गया।

राष्ट्रवाद से ऊपर मानवता

रवीन्द्र नाथ टैगोर मानवता को राष्ट्रीयता से ऊपर रखते थे। टैगोर मानते थे कि देशभक्ति चार-दिवारी से बाहर विचारों से जुड़ने की आजादी से हमें रोकती है, साथ ही दूसरे देशों की जनता के दुःख-दर्द को समझने की स्वतंत्रता भी सीमित कर देती है। वह अपने लेखन में राष्ट्रवाद को लेकर आलोचनात्मक दृष्टि रखते थे। ई.1908 में प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीश चंद्र बोस की पत्नी अबला बोस की आलोचना का जवाब देते हुए टैगोर ने कहा था- ‘देशभक्ति हमारा आखिरी आध्यात्मिक सहारा नहीं बन सकता, मेरा आश्रय मानवता है।’

ई.1916-17 में टैगोर ने जापान और अमेरिका की यात्रा के दौरान राष्ट्रवाद पर कई वक्तव्य दिए जिनमें उन्होंने कहा- ‘राष्ट्रवाद का राजनीतिक और आर्थिक संगठनात्मक आधार उत्पादन में बढ़ोतरी और मानवीय श्रम की बचत कर अधिक संपन्नता हासिल करने का प्रयास है। राष्ट्रवाद की धारणा मूलतः राष्ट्र की समृद्धि और राजनैतिक शक्ति में बढ़ोतरी करने में इस्तेमाल की गई है।

शक्ति की बढ़ोतरी की इस संकल्पना ने देशों में पारस्परिक द्वेष, घृणा और भय का वातावरण बनाकर मानव जीवन को अस्थिर और असुरक्षित बना दिया है। यह सीधे-सीधे जीवन से खिलवाड़ है, क्योंकि राष्ट्रवाद की इस शक्ति का प्रयोग बाहरी सम्बन्धों के साथ ही राष्ट्र की आंतरिक स्थिति को नियंत्रित करने में भी होता है। ऐसी स्थिति में समाज पर नियंत्रण बढ़ना स्वाभाविक है।

ऐसी स्थिति में समाज और व्यक्ति के निजी जीवन पर राष्ट्र छा जाता है और एक भयावह नियंत्रणकारी स्वरूप हासिल कर लेता है। दुर्बल और असंगठित पड़ोसी राज्यों पर अधिकार करने का प्रयास राष्ट्रवाद का ही स्वाभाविक प्रतिफलन है। इससे पैदा हुआ साम्राज्यवाद अंततः मानवता का संहारक बनता है।’

भारत के संदर्भ में टैगोर ने लिखा है- ‘भारत की समस्या राजनैतिक नहीं सामाजिक है, यहाँ राष्ट्रवाद नहीं के बराबर है। हकीकत तो ये है कि यहाँ पर पश्चिमी देशों जैसा राष्ट्रवाद पनप ही नहीं सकता, क्योंकि सामाजिक काम में अपनी रूढ़िवादिता का हवाला देने वाले लोग जब राष्ट्रवाद की बात करें तो वह कैसे प्रसारित होगा? भारत को राष्ट्र की संकरी मान्यता छोड़कर अंतरराष्ट्रीय दृष्टिकोण अपनाना चाहिए।’

टैगोर ने लिखा है- ‘भारत भले ही पिछड़ा हो, मानवीय मूल्यों में पिछड़ापन नहीं होना चाहिए। निर्धन भारत भी विश्व का मार्गदर्शन कर मानवीय एकता में आदर्श को प्राप्त कर सकता है। भारत का अतीत यह सिद्ध कर सकता है कि भौतिक संपन्नता की चिंता नहीं करके भारत ने आध्यात्मिक चेतना का सफलतापूर्वक प्रचार किया है।’

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