भारतीय इतिहास के मध्य-काल में तथा आर्य-संस्कृति के लिए सर्वाधिक कठिन समय में गोस्वामी तुलसी दास आर्य-संस्कृति के प्रतिनिधि कवि हुए। वे हिन्दी साहित्य के सर्वाधिक प्रसिद्ध और सर्वाधिक प्रतिभाशाली कवि थे। उनके जीवन के बारे में ठीक-ठीक जानकारी नहीं मिलती किन्तु उनके जीवन की बहुत सी घटनाओं से उनके काल एवं आयु आदि का अनुमान लगाया जाता है।
तुलसीदास सोलहवीं सदी के मुगल बादशाह अकबर के समकालीन थे। अधिकांश विद्वान तुलसीदास का जनम ई.1532 में होना मानते हैं। उनका जन्म सोरों (उत्तरप्रदेश) में एक ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम आत्माराम दूबे तथा माता का नाम हुलसी था। तुलसी का जन्म मूल-नक्षत्र में हुआ था। किंवदंतियों के अनुसार तुलसी ने जन्मते ही राम नाम का उच्चारण किया जिसके कारण उन्हें रामबोला कहा जाता था।
जन्म के समय ही उनके मुंह में पूरे दाँत थे। तुलसी जब छोटे बालक थे, तभी उनके माता-पिता का निधन हो गया और उन्हें भिक्षा मांगकर जीवन-यापन करना पड़ा। काशी में रहते हुए उन्होंने गुरु नरहरिदास से संस्कृत भाषा की शिक्षा ली तथा वेद-पुराणों का अध्ययन किया। युवा होने पर इनका विवाह दीनबन्धु पाठक की कन्या रत्नावली से हुआ। तुलसीदास अपनी पत्नी में अत्यधिक आसक्ति रखते थे और वियोग सहन नहीं कर पाते थे।
एक दिन इनकी पत्नी उनकी अनुपस्थिति में अपने भाई के साथ मायके चली गई। तुलसीदास भी रात के समय नदी को पार करके अपने ससुराल जा पहुँचे। इस कामासक्ति को देखकर रत्नावली ने तुलसीदास को झिड़कते हुए कहा कि आपने मेरी हाड़-चर्म युक्त देह से इतना स्नेह किया है, यदि ऐसी प्रीति ईश्वर में रखी होती तो आप सांसारिक बंधनों से मुक्त हो जाते।
पत्नी की इस झिड़की ने तुलसी के भावुक हृदय पर प्रहार किया और उन्हें सासांरिक जीवन से विरक्ति हो गई। उन्होंने घर का त्याग कर दिया और अनेक स्थानों का भ्रमण करते हुए काशी में जाकर बस गए। यहाँ रहते हुए उन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। अन्तिम समय में सुख एवं शान्ति के साथ भगवान श्रीराम का यशोगायन करते हुए वि.सं.1680 (ई.1623) में उन्होंने देह का त्याग किया। उनकी मृत्यु के सम्बन्ध में यह दोहा प्रसिद्ध है –
संवत सोलह सो असी, असी गंग के तीर।
श्रावण शुक्ला सप्तमी, तुलसी तज्यो शरीर।।
तुलसीदास राम-काव्य के पुरोधा कवि हैं क्योंकि इन्होनें अपने युग की परिस्थितियों को सामने रखकर सकल मानव जाति के लिए भक्तिपूर्ण, सामाजिक, संस्कृति-प्रधान एवं मार्गदर्शक ग्रन्थ ‘रामचरितमानस’ की रचना की। प्रसिद्ध इतिहासकार ‘वेन्सेंट स्मिथ’ ने तुलसीदास को अपने युग का सर्वश्रेष्ठ पुरुष माना है और इन्हें अकबर से भी महान स्वीकार किया है।
क्योंकि तुलसीदास ने अपने द्वारा रचे गए साहित्य के द्वारा करोड़ों मानवों के हृदयों पर विजय प्राप्त की, उनके सामने सम्राट अकबर की विजयें नगण्य हैं। गोस्वामी तुलसीदास अपने समय के महान रामभक्त, महान कवि, महान संत एवं महान् चिंतक थे। उन्होंने अनेक ग्रन्थ लिखे जिन्होंने भारतीय जन-मानस को रामभक्ति की तरफ मोड़ा। उनके द्वारा लिखित ‘रामचरित मानस’ उनकी कीर्ति का सबसे ऊँचा स्तम्भ है।
तुलसी का साहित्य
तुलसीदास वैष्णव-भक्ति की रामभक्ति शाखा के महान् कवि थे। उन्होंने हिन्दी साहित्य में प्रचलित समस्त काव्य-शैलियों में रचना की। आचार्य रामचंद्र शुक्ल के अनुसार तुलसीदास ने बारह ग्रंथों की रचना की। कुछ विद्वान तुलसीदास के ग्रंथों की संख्या 25 मानते हैं।
इनमें से रामचरित मानस महाकाव्य है। शेष रचनाएं यथा- बरवै रामायण, पार्वती मंगल, जानकी मंगल, वैराग्य संदीपनी, रामाज्ञा प्रश्न, दोहावली, कवितावली, गीतावली, श्रीकृष्ण गीतावली, विनय पत्रिका, और रामलला नहछू आदि रचनाएँ खंड काव्य, मुक्तक काव्य, प्रबंधात्मक मुक्तक और लोकगीतात्मक मुक्तक काव्य के रूप में रचित हैं।
(1.) रामचरित मानस: रामचरित मानस एक प्रबन्ध काव्य है तथा न केवल हिन्दी साहित्य में अपितु सम्पूर्ण विश्व साहित्य में अत्यंत आदर की दृष्टि से देखा जाता है। विषय, उद्देश्य, भाव, भाषा, प्रबन्ध कौशल, छन्द, अलंकार योजना, शैली, कथा प्रवाह, नीति, धर्म एवं सामाजिक सरोकार आदि समस्त दृष्टियों से रामचरित मानस विश्व-साहित्य का अद्वितीय ग्रन्थ है।
इस काव्य में रामकथा का विस्तृत वर्णन है। रामचरित मानस में सात अध्याय हैं जिन्हें वाल्मीकि रामायण के अनुकरण में काण्ड कहा गया है। किसी ग्रंथ के प्रबंध काव्य होने की पहली शर्त यही होती है कि उसमें कम से कम सात अध्याय हों।
इस ग्रंथ में अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र श्रीराम को भगवान विष्णु के अवतार के रूप में तथा मिथिला के राजा जनक की पुत्री सीता को लक्ष्मी के अवतार के रूप में स्थापित किया गया है। रामचरित मानस की कथा के माध्यम से भगवान के दुष्ट-हंता, भक्त-वत्सल स्वरूप की अराधना की गई है।
रामकथा के प्रसंग भारतीय जनमानस में अत्यंत प्राचीन काल से प्रचलित थे। सबसे पहले महर्षि वाल्मीकि द्वारा दशरथ नंदन राम को मर्यादा पुरुषोत्तम मानकर स्वतंत्र प्रबंध काव्य लिखा गया। चैथी शताब्दी ईस्वी में राम को विष्णु का अवतार मानकर रामकथा को महाभारत का अंश बना दिया गया तथा नौवीं शताब्दी ईस्वी में दक्षिण भारत के आलवार संतों ने राम-भक्ति परम्परा को विकसित स्वरूप प्रदान किया। इस परम्परा को गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरित मानस में चरम पर पहुँचा दिया।
गोस्वामीजी ने रामचरित मानस के विभिन्न पात्रों के माध्यम से समाज के समक्ष उच्च-आदर्श उपस्थित किए हैं तथा वाल्मीकि द्वारा आरम्भ किए गए कार्य को नवीन ऊंचाइयां प्रदान कीं। राजा के रूप में दशरथ और जनक, गुरु के रूप में वसिष्ठ एवं विश्वामित्र, माता के रूप में कौशल्या और सुमित्रा, पुत्र के रूप में राम, लक्षमण, भरत और शत्रुघ्न, पत्नी के रूप में सीता, मित्र के रूप में सुग्रीव एवं विभीषण तथा सेवक के रूप में हनुमान एवं अंगद के चरित्रों को आदर्श के रूप में स्थापित किया गया है।
राजा दशरथ सत्यवादी धर्मनिष्ठ राजा हैं जो वचन देकर धर्म की और प्राण देकर पुत्र-प्रेम की रक्षा करते हैं। सीता आदर्श भारतीय नारी की प्रतिमूर्ति हैं जो कत्र्तव्य और पति के साथ वन जाने हेतु तर्क पूर्ण उत्तर द्वारा राम को भी निरूत्तर कर देती हैं- ‘जिय बिनु देहु, नदी बिनु वारि। तैसिय नाथ पुरुष बिनु नारी।’ तुलसी के लक्ष्मण चपल और उग्र स्वभाव के हैं किंतु भातृ-प्रेम के अनूठे आदर्श हैं।
भरत का चरित्र शीलता का चरमोत्कर्ष है। मानवीय चरित्र इससे ऊपर नहीं जा सकता। भरत का चरित्र इतना उज्ज्वल है कि प्रकृति भी उनके प्रति सहानुभूति रखती है- ‘जहँ जहँ जायँ भरत रघुराया, तहँ तहँ मेघ करहिं नवछाया।’
खर, दूषण, रावण, कुंभकर्ण एवं मेघनाथ जैसे राक्षसी चरित्र वाले अहंकारी पात्र हैं जो धर्म एवं नीति से च्युत हो गए हैं। ऐसे पात्रों का अंत राम के हाथों होता है जो असत्य पर सत्य की और बुराई पर अच्छाई की विजय का प्रतीक है।
समन्वय का अद्भुत ग्रंथ: रामचरित मानस समन्वय का अद्भुत ग्रंथ है। उन्होंने भारत में प्रचलित विभिन्न धार्मिक मतों एवं सम्प्रदायों में समन्वय स्थापित करके उन्हें एक ही केन्द्र-बिंदु ‘राम’ से जुड़ा हुआ बताया। दिल्ली सल्तनत (13वीं-16वीं शताब्दी ईस्वी) एवं मुगलों के शासन काल (16वीं-18वीं शताब्दी ईस्वी) में हिन्दू-धर्म के शैव, शाक्त एवं वैष्णव सम्प्रदायों के बीच कटुता का वातावरण था।
यहाँ तक कि सगुणोपासकों एवं निर्गुणोपासकों के बीच भी कटुता व्याप्त थी। सभी सम्प्रदायों के मतावलम्बी अपने-अपने मत को श्रेष्ठ बताकर दूसरे के मत को बिल्कुल ही नकारते थे। गोस्वामी तुलसीदास ने राम चरित मानस के माध्यम से इस कटुता को समाप्त करने का सफल प्रयास किया।
इस ग्रंथ में तुलसी ने शैवों के आराध्य देव शिव तथा विष्णु के अवतार राम को एक दूसरे का स्वामी, सखा और सेवक घोषित किया। राम भक्त तुलसी ने ‘सेवक स्वामि सखा सिय-पिय के, हित निरुपधि सब बिधि तुलसी के’ कहकर शंकर की स्तुति की।
इतना ही नहीं तुलसी ने अपने स्वामी राम के मुख से- ‘औरउ एक गुपुत मत सबहि कहउं कर जोरि, संकर भजन बिना नर भगति न पावई मोर’ कहलवाकर राम-भक्तों को शिव की पूजा करने का मार्ग दिखाया एवं राम-पत्नी सीता के मुख से शिव-पत्नी गौरी की स्तुति करवाकर शाक्तों एवं वैष्णवों को निकट लाने में सफलता प्राप्त की- ‘जय जय गिरिबर राज किसोरी। जय महेस मुख चंद चकोरी।’
तुलसी ने ‘सगुनहि अगुनहि नहीं कछु भेदा, गावहिं मुनि पुरान बुध बेदा’ कहकर सगुणोपासकों एवं निर्गुणोपासकों के बीच की खाई को पाटने का प्रयास किया। तुलसी ने भक्तिमार्गियों एवं ज्ञानमार्गियों के बीच की दूरी समाप्त करते हुए कहा- ‘भगतहि ज्ञानही नहीं कछु भेदा, उभय हरहिं भव संभव खेदा।’
हजारी प्रसाद द्विवेदी के अनुसार- ‘तुलसी का सम्पूर्ण काव्य समन्वय की विरोट चेष्टा है।’ ग्रियर्सन के अनुसार- ‘भारत का लोकनायक वही हो सकता है जो समन्वय करना जानता हो’ तुलसी का मानस समन्वय की विराट चेष्टा है। उन्होंने द्वैत-अद्वैत, निर्गुण-सगुण, माया एवं जीव का भेद एवं अभेद, कर्म ज्ञान, भक्ति, ब्राह्मण, शूद्र, शैव, शाक्त, वैष्णव समाज संस्कृति के संगम के साथ-साथ भाव-पक्ष और कला-पक्ष का भी समन्वय किया है।
साहित्य की परिपक्व रचना: साहित्य की दृष्टि से भी रामचरित मानस एक परिपक्व रचना है। इसमें शास्त्रीय लक्षणों का भली-भांति निर्वाह हुआ है। इसकी भाषा सधी हुई है जिसमें भाषा की तीनों शक्तियों- अभिधा, लक्षणा एवं व्यंजना का भरपूर गुम्फन किया गया है। सम्पूर्ण ग्रंथ में छंदों एवं अलंकारों का शास्त्रीय विधान प्रयुक्त हुआ है तथा रसों का परिपाक प्रसंगानुकूल एवं पात्रानुकूल है।
इसमें शृंगार रस, वीर रस, भक्ति रस (शान्त रस) की प्रधानता है। पात्रों के चरित्र-चित्रण में भी तुलसी ने महान् कौशल प्रदर्शित किया है। सम्पूर्ण महाकाव्य दोहा और चैपाइयों में लिखा गया है। यह संगीतमय काव्य है, जिसके पद श्रोताओं को मन्त्र-मुग्ध कर देते हैं। समग्र रूप में यह भारतीय संस्कृति का आदर्श धार्मिक ग्रन्थ है।
मानस पर 500 से अधिक पीएच.डी. एवं डी.लिट्. डिग्रियां: महाकवि तुलसीदास पर विश्व में सबसे पहला शोधग्रंथ ‘रामचरित और रामायण’ इटली के विद्वान एल एल. पी. टेस्सीटोरी ने लिखा था। उन्होंने ई.1911 में फ्लोरेंस विश्वविद्यालय से इस ग्रंथ के लिए पीएचडी की उपाधि प्राप्त की।
तुलसीदास पर दूसरा शोध कार्य लंदन में ई.1918 में जे. एन. कापैनर ने किया। भारत में तुलसीदास पर पहली पीएचडी ई.1938 में नागपुर विश्वविद्यालय से बलदेव प्रसाद मिश्र ने की थी। ई.1949 में हरिशचन्द्र राय ने तुलसीदास पर लंदन से पीएचडी की तथा फादर कामिल बुल्के ने प्रयाग विश्वविद्यालय से डी.फिल. की डिग्री प्राप्त की।
तुलसीदास के साहित्य पर अब तक विश्वभर में पीएचडी और डीलिट की पांच सौ से अधिक डिग्रियां दी जा चुकी हैं। इतनी संख्या में हिन्दी में किसी लेखक पर शोधकार्य नहीं हुआ है।
सर्वाधिक शब्दों का प्रयोग: विश्व में सर्वाधिक शब्दों का प्रयोग तुलसीदास ने किया है। उन्होंने अपनी रचनाओं में 36 हजार से अधिक विभिन्न शब्दों का प्रयोग किया है जबकि शेक्सपियर ने लगभग 35 हजार शब्दों का प्रयोग किया है।
विश्व का सर्वश्रेष्ठ ग्रंथ: तुलसीदास पर लगभग 250 आलोचनात्मक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। रूस के विख्यात लेखक वरात्रिकोव ने विश्व की 2,796 भाषाओं के साहित्य में से रामचरित मानस को सर्वश्रेष्ठ महाकाव्य घोषित किया। उन्होंने ई.1938 से 1942 के बीच रामचरित मानस का रूसी भाषा में अनुवाद किया जब द्वितीय विश्व युद्ध चल रहा था।
(2.) विनय पत्रिका: ब्रज भाषा में लिखे हुए इस मुक्तक काव्य में अनेक राग-रागनियों में बंधे हुए विनय सम्बन्धी पद हैं। इसमें मुक्ति के आत्म-निवेदन का तथा आराध्य देव राम से उद्धार की कामना का मार्मिक चित्रण हुआ है। यह दास्य-भक्ति की उत्कृट कृति है। इसके गीतों में दैन्य-भाव तथा शान्त-रस की प्रधानता है। इसमें ज्ञान, भक्ति और वैराग्य सम्बन्धी विचारों का सुन्दर वर्णन है तथा इसके गीत संवेदनापूर्ण तथा संगीत प्रधान हैं। इसकी भाषा संस्कृतनिष्ठ है तथा उसमें अल्प मात्रा में फारसी-अरबी शब्दों का मिश्रण है।
(3.) कवितावली: यह खण्ड-काव्य है, जिसमें गोस्वामीजी ने अपने इष्ट-देव राम का स्तुतिगान किया है। इसमें वात्सल्य, शृंगार, वीभत्स तथा भयानक रसों का परिपाक है। इसमें केवट प्रसंग, लंका दहन तथा हनुमानजी के युद्ध का बड़ा सजीव चित्रण है। इसमें एक क्रम और योजना का पालन किया गया है।
(4.) गीतावली: यह भी तुलसी का एक सुन्दर गीति-काव्य है, जिसमें ब्रज भाषा के गीतों में रामचरित का सुन्दर वर्णन किया गया है। यह सरल तथा लीला-प्रधान रचना है जिसमें वात्सल्य रस का सजीव एवं हृदयग्राही वर्णन है।
(5.) दोहावली: इसमें दोहों के रूप में राम-भक्ति का वर्णन है। इसमें 573 दोहों का संकलन है। ये दोहे जनमानस में उक्तियों के रूप में प्रयुक्त किए जाते हैं।
(6.) रामाज्ञाप्रश्न: यह ज्योतिष शास्त्रीय ग्रंथ है। इस ग्रन्थ में सात सर्ग हैं तथा राम कथा का दोहों में वर्णन किया गया है जिसमें प्रश्न और उत्तर समाहित हैं। दोहों, सप्तकों और सर्गों में विभक्त यह ग्रंथ रामकथा के विविध मंगल एवं अमंगलमय प्रसंगों की मिश्रित रचना है। इसमें कथा-शृंखला का अभाव है तथा अनेक दोहों में वाल्मीकी रामायण के प्रसंगों का अनुवाद है।
(7.) बरवै रामायण: इस लघु ग्रंथ में बरवै छन्द के अंतर्गत बांधकर रामकथा से सम्बन्धित घटनाओं का वर्णन किया गया है।
(8.) रामललानहछू: यह संस्कार-गीत है। इसमें कतिपय उल्लेख राम-विवाह कथा से भिन्न हैं। इसे पूर्वी-अवधी भाषा के छंदों में लिखा गया है।
(9.) कृष्ण गीतावली: इसमें ब्रज भाषा में कृष्ण चरित्र का स्फुट पदों में वर्णन किया गया है।
(10.) वैराग्य संदीपनी: इसमें वैरागय सम्बन्धी छन्द हैं, जिनमें धर्म और ज्ञान के साधारण सिद्धन्तों का विवेचन है।
(11.) पार्वती मंगल: इस लघु-ग्रंथ में शिव-पार्वती विवाह का वर्णन है।
(12.) जानकी मंगल: यह भी लघु-ग्रंथ है। इसमें ब्रज भाषा में राम और सीता के विवाह का वर्णन किया गया है।
(13.) हनुमानबाहुक: इस लघु रचना में हनुमानजी को सम्बोधित करके उनके प्रति भक्ति भाव से पूर्ण प्रार्थनाएं लिखी गई हैं। यह एक प्रौढ़ रचना है जिसमें भाषा और भाव नवीन ठाठ के साथ उपस्थित हुए हैं।
महान् लोकनायक तुलसी
गोस्वामी तुलसीदास अपने समय के सर्वश्रेष्ठ कवि, संत, रामभक्त एवं विचारक ही नहीं थे अपितु वे महान लोकनायक भी थे। महाकवि अपने युग का ज्ञापक एवं निर्माता होता है। तुलसी ने मध्य-कालीन भारत में हिन्दू जाति में व्याप्त निराशा को अनुभव किया तथा अपनी रचनाओं के माध्यम से समाज में भक्ति एवं विनय के साथ-साथ शौर्य, साहस एवं स्वातंत्र्य भाव का संचरण किया।
भक्ति-काल के निर्गुणोपासक सन्त, धर्म और समाज में प्रचलित परम्पराओं की निन्दा कर सामाजिक और धार्मिक मर्यादाओं पर भी प्रहार कर रहे थे जिनके प्रभाव से लोगों का मूर्ति-पूजा तथा पौराणिक धर्म से विश्वास उठने लगा था। ऐसे समय में गोस्वामी तुलसीदास ने सगुण भक्ति का मार्ग खोला तथा राम के रूप में समाज को ऐसा महानायक प्रदान किया जो शक्ति, शील एवं सौंदर्य की प्रतिमूर्ति था।
वह सर्वशक्तिमान, दयालु, दुष्टहंता, भक्त-वत्सल तथा मोक्ष प्रदान करने में समर्थ था। उन्होंने रामचरित मानस के पात्रों के माध्यम से प्रजा में आदर्श समाज की रचना का संदेश दिया। उन्होंने जनभाषा में रामचरित मानस की रचना करके उसे सर्वजन के लिए सुलभ बनाया। उन्होंने समाज को आचरणगत दूषण त्यागकर दीनता और हीनता से स्वतः मुक्त होने का संदेश दिया। उन्होंने श्रीराम को गौ, ब्राह्मण, धरती, स्त्री, दीन-दुःखी एवं शरणागत का रक्षक बताकर वस्तुतः मानवता आधारित सम्पूर्ण हिन्दू-संस्कृति का रक्षक बताया।
महात्मा बुद्ध एवं शंकाराचार्य के बाद भारत में यदि कोई सबसे बड़े लोकनायक हुए तो वह गोस्वामी तुलसीदास ही थे जिनका शिक्षित एवं अशिक्षित, धनी एवं निर्धन, राजा एवं प्रजा आदि सम्पूर्ण समाज पर व्यापक रूप से प्रभाव पड़ा। उनकी रामचरित मानस घर-घर गाई जाने लगी। उसके सामूहिक गायन के विशाल आयोजन होने लगे।
रामचरित मानस को आधार बनाकर नगर-नगर एवं गांव-गांव में रामलीलाएं खेली जाने लगीं। लोग संकट के समय, अपनी सत्यता प्रमाणित करते समय एवं एक-दूसरे को धैर्य बंधाते समय रामचरित मानस की चैपाइयां बोलकर सुनाने लगे। समाज में ऐसी व्यापक क्रांति कोई महानायक ही कर सकता था और तुलसीदास ने उसमें सफलता प्राप्त की।
संस्कृति के रक्षक एवं समाज सुधारक
गोस्वामी तुलसीदास भारतीय संस्कृति के रक्षक, पोषक एवं उन्नायक थे। उनका स्वयं का व्यक्तित्त्व हिन्दू-धर्म और संस्कृति का प्रतिनिधि व्यक्तित्व था। वे त्याग, तपस्या एवं साधना की प्रतिमूर्ति थे। उन्हें हिन्दू शास्त्रों का अद्भुत ज्ञान था। उन्होंने जो कुछ लिखा वही धर्म, संस्कृति एवं परम्परा बन गया। उन्होंने हिन्दू-धर्म में प्रचलित आडम्बर तथा पाखण्डों का रामचरित मानस के माध्यम से खण्डन करके वास्तविक धर्म की प्रतिष्ठा की।
उन्होंने दया, करुणा, परोपकार, अहिंसा आदि नैतिक गुणों को निजी जीवन और सार्वजनिक आचरण का आधार बताया तथा अभिमान, पर-पीड़ा, हिंसा आदि दुर्गणों को पाप तथा नर्क की तरफ ले जाने वाला घोषित किया। तुलसीदास अपने समय के महान् समाज सुधारक भी थे। उन्होंने लोगों से पाखण्ड पूर्ण आचरण, दम्भ, कपट, हिंसा एवं अनाचार त्यागकर सद्व्यवहार एवं सादगी पर आधारित जीवन जीने का मंत्र दिया। उन्होंने कलियुग में होने वाले कदाचारों का विशद वर्णन करके लोगों को उनसे दूर रहने के लिए कहा।
कुछ लोग तुलसीदास पर नारी-विरोधी मानसिकता रखने का आरोप लगाते हैं किंतु वे गलत हैं। माता कौशल्या, सीता, मन्दोदरी और तारा के उज्जवल चरित्रों की प्रशंसा करके उन्होंने यह स्पष्ट कर दिया है कि वे समाज में किस तरह की नारी चाहते हैं। वे उच्छृंखलता और कदाचार के विरोधी हैं न कि नारी जाति के।
‘ढोल-गंवार शूद्र पशु नारी’ वाला संवाद समुद्र के मुंह से कहलवाया गया है और यह तत्कालीन समाज में नारी के प्रति प्रचलित धारणा को व्यक्त करता है, यह संवाद राम अथवा किसी ऐसे पात्र ने नहीं कहा है जिससे यह कहा जा सके कि तुलसीदास नारी की प्रताड़ना करके उसे नियंत्रण में रखना चाहते थे। न ही यह बात गोस्वामीजी ने अपनी ओर से कही है।