अंग्रेज चाहते थे कि प्रथम विश्वयुद्ध के मोर्चे पर भारतीय युवक लड़ने के लिए भेजे जाएं किंतु भारतीय युवक अंग्रेजों से मुक्ति चाहते थे इसलिए वे अंग्रेजों की तरफ से लड़ने के लिए जाने को तैयार नहीं थे।
अंग्रेजों की साम्राज्य लिप्सा ने संसार को दो भागों में बांट दिया। एक भाग में संसार के वे देश थे जो अंग्रेजों के अधीन थे और दूसरे भाग में वे देश थे जो अंग्रेजों के शत्रु हो गये थे। अंग्रेजों की साम्राज्य लिप्सा के चलते ई.1914 में पहला विश्वयुद्ध आरम्भ हुआ। इस युद्ध में एक तरफ इंग्लैण्ड, फ्रांस, रूस, इटली, जापान तथा अमरीका आदि देश थे तथा दूसरी तरफ जर्मनी, ऑस्ट्रिया, हंगरी, ऑटोमन एम्पायर तथा बुल्गारिया आदि देश थे।
वर्ष 1918 आरम्भ होते-होते अंग्रेजों ने विश्वयुद्ध के मोर्चे पर इतनी बड़ी संख्या में सैनिक गंवा दिये कि अब उसे अपने गुलाम देशों के नौजवानों को बल पूर्वक सेना में भरती करके युद्ध के मोर्चों पर भेजना पड़ा। अप्रेल 1918 में वायसराय ने दिल्ली में युद्ध परिषद का आयोजन किया जिसमें गांधीजी को भी बुलाया गया। इस युद्ध परिषद में वायसराय ने गांधीजी के समक्ष प्रस्ताव रखा कि कांग्रेस, भारतीय नौजवानों को ब्रिटिश सेना में भरती होने के लिये प्रेरित करे। इसके बदले में युद्ध की समाप्ति के बाद भारत को स्वतंत्रता प्रदान की जायेगी।
गांधीजी ने अंग्रेजों के इस प्रस्ताव को स्वीकार कर लिया। कांग्रेस के राजनीतिक मंच से देश के नौजवानों का आह्वान किया कि वे प्रथम विश्वयुद्ध के मोर्चे पर जाएं किंतु नौजवानों ने गांधीजी की बात पर कोई ध्यान नहीं दिया। गांधीजी ने वल्लभभाई को अपना रिक्रूटिंग सार्जेण्ट नियुक्त किया तथा उन्हें गांव-गांव जाकर नौजवानों को सेना में भरती होने के लिये प्रेरित करने की जिम्मेदारी दी। भारत में आम आदमी गांधीजी की इस राय से सहमत नहीं था कि भारतीय नौजवानों को सेना में भरती होकर विश्व युद्ध के मोर्चे पर जाना चाहिये।
आम भारतीय का मानना था कि यदि अंग्रेज प्रथम विश्वयुद्ध के मोर्चे पर हार जायेंगे तो स्वतः ही भारत छोड़कर भाग जायेंगे। इसलिये कांग्रेस को इस अभियान में अधिक सफलता नहीं मिली।
वल्लभभाई ने गांधीजी के कहने पर, गुजरात के गांवों में जाकर नौजवानों का आह्वान किया कि वे भारतीय सेना में भर्ती होकर विश्वयुद्ध के मोर्चे पर जायें। इससे उन्हें संसार को जानने का तथा संसार में भारत की स्थिति को समझने का अवसर मिलेगा।
नौजवानों ने सरदार पटेल का सहज ही विश्वास कर लिया और वे बड़ी संख्या में भारतीय सेना में भर्ती हो गये। नवम्बर 1918 में जर्मनी परास्त हो गया तथा विश्वयुद्ध समाप्त हो गया। इस कारण भारतीय नौजवानों की भरती बंद कर दी गई।
सरदार पटेल का अनुमान सही निकला। जो भारतीय नौजवान प्रथम विश्वयुद्ध के मोर्चे पर गए थे, वे जब लौट कर आये, उन्होंने भारत की स्थिति की तुलना संसार के अन्य देशों से की। उन सैनिकों को भरोसा हो गया कि भारत में भी संसार के समक्ष पूरी तरह तन कर खड़े होने की क्षमता है।
इन सिपाहियों ने अपने गांवों में राष्ट्रीयता की भावना का प्रसार किया। इन नौजवानों को पूरा भरोसा था कि यदि समस्त भारतीय एकजुट होकर अंग्रेजों को खदेड़ दें तो भारत को आसानी से स्वतंत्र कराया जा सकता है। इस कारण कांग्रेस का आंदोलन और व्यापक हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता