Thursday, November 21, 2024
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9. मुहम्मद बिन तुगलक ने मंगोलों से लड़ने की बजाय उन्हें सोने-चांदी के रुपए दिए।

चीन के उत्तर में स्थित गोबी-रेगिस्तान में मंगोल नामक घुमंतू एवं अर्द्धसभ्य जाति रहती थी जिसका मुख्य पेशा घोड़ों और अन्य पशुओं का पालन करना था। वे बहुत गंदे रहते थे और सभी प्रकार का मांस खाते थे। एक मंगोल निरंतर 40 घण्टे तक घोड़े की पीठ पर बैठकर यात्रा कर सकता था।

उनमें स्त्री सम्बन्धी नैतिकता का सर्वथा अभाव था किंतु वे माँ का सम्मान करते थे। वे विभिन्न कबीलों में बंटे हुए थे जिनमें परस्पर शत्रुता रहती थी। बारहवीं शताब्दी ईस्वी में उन्हीं कबीलों में से एक कबीले का सरदार येसूगाई था जिसने एक अन्य कबीले के सरदार की औरत को छीन लिया।

इस औरत के पेट से ई.1163 में तेमूचिन नामक बालक का जन्म हुआ। जब येसूगाई मर गया तब उसकी औरत एवं बच्चों को मजदूरी करके पेट भरना पड़ा किंतु जब तेमूचिन बड़ा हुआ तो उसने विश्व के सबसे बड़े मंगोल साम्राज्य की नींव रखी और वह इतिहास में चंगेजखां के नाम से जाना गया।

उसने चीन का अधिकांश भाग, रूस का दक्षिणी भाग, मध्य एशिया, टर्की (तुर्की), पर्शिया (ईरान), और अफगानिस्तान के प्रदेशों को जीत लिया। इस काल में मंगोल, इस्लाम से घृणा करते थे। इस कारण तुर्किस्तान का ख्वारिज्म साम्राज्य एवं बगदाद के खलीफा का राज्य, मंगोलों द्वारा धूल में मिला दिये गये। इसके बाद उसने भारत के मुस्लिम शासकों की ओर रुख किया।

मंगोलों की सेना एक रात्रि में 20 मील से अधिक का मार्ग तय कर लेती थी। वे तेजी से दौड़ते हुए घोड़े की पीठ पर बैठकर अपने शत्रुओं को तीरों से मार डालते थे।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

मंगोल जहाँ-कहीं गये, उन्होंने वहाँ की सभ्यता के समस्त चिह्नों को नष्ट कर दिया। बारहवीं शताब्दी से सोलहवीं शताब्दी तक सम्पूर्ण एशिया एवं यूरोप में मंगोल आक्रमणों का भय एवं आतंक व्याप्त रहा। भारत पर उनका पहला आक्रमण ई.1221 में  हुआ। उस समय इल्तुतमिश, दिल्ली का शासक था।

चंगेजखाँ, ख्वारिज्म के शाह के पुत्र जलालुद्दीन का पीछा करते हुए भारत आ पहुँचा तथा उसका पीछा करते हुए उसी गति से लौट गया किंतु इसी शताब्दी में मंगोलों ने सिन्धु नदी को पार करके सिन्ध तथा पश्चिमी पंजाब में अपने शासक नियुक्त कर दिये।

उस समय दिल्ली सल्तनत पर बलबन का शासन था। उसके लिये यह संभव नहीं था कि वह मंगोलों को निष्कासित कर सके। मंगोलों ने कई बार व्यास को पार करके आगे बढ़ने का प्रयत्न किया किंतु दिल्ली सल्तनत की सेनाओं ने उन्हें व्यास नदी पार नहीं करने दी।

ई.1221 से लेकर ई.1526 तक मंगोल आक्रमणकारियों की कई लहरें भारत में आईं। इस दौरान वे विदेशी आक्रांता बने रहे। वे नृशंस हत्याओं, भयानक आगजनी तथा क्रूरतम विध्वंस के लिये कुख्यात थे।

तुर्कों ने मंगोलों से अपनी लड़कियों की शादियां करनी भी आरंभ कर दीं। इस प्रकार धीरे-धीरे मंगोलों में तुर्की-रक्त का मिश्रण हो गया। कुछ ही समय में मंगोल, मध्य-एशिया के उजबेकिस्तान, समरकंद, ताशकंद तथा फरगना आदि क्षेत्रों पर शासन करने लगे। मध्य-एशिया से ही वे भारत में आए।

भारत में मंगोलों को अत्यंत घृणा की दृष्टि से देखा जाता था क्योंकि चंगेज खाँ तथा तैमूर लंग जैसे अनेक मंगोल नेता भारत में भारी रक्तपात और हिंसा करते आए थे। ई.1292 में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी ने अपनी पुत्री का विवाह चंगेज खाँ के पुत्र उलूग खाँ से करके मंगोलों के साथ शांति स्थापति की।

ई.1302 में जब मंगोलों ने दिल्ली पर आक्रमण किया तो तब तक का सबसे शक्तिशाली सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी, दिल्ली से भाग कर सीरी के दुर्ग में छिप गया। मंगोलों ने तीन महीनों तक दिल्ली में ताण्डव किया और सुल्तान कुछ नहीं कर सका।

दिल्ली के सुल्तान लाखों सैनिकों को मरवाकर तथा करोड़ों रुपया गंवा कर पिछले सवा सौ साल से मंगोलों को भारत से दूर रखने में सफल रहे थे। फिर भी मंगोल टिड्डी दलों की भांति भारत में घुस जाते थे और भारी तबाही मचाते थे।

ई.1328 में मंगोलों ने तरमाशिरीन नामक एक मंगोल सेनापति के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। वे लोग सिंध नदी को पार करके, पंजाब को रौंदते हुए दिल्ली के निकट आ गये। इस काल में मुहम्मद बिन तुगलक दिल्ली का सुल्तान था। कई खर्चीली योजनाओं के कारण उसका खजाना खाली हो चुका था तथा उसके पास विशाल सेनाओं को वेतन देने के लिए धन नहीं था। इसलिए मुहम्मद ने मंगोलों से युद्ध करने के स्थान पर उन्हें कुछ धन देकर उनसे अपना पीछा छुड़ाने की योजना बनाई।

सुल्तान ने मंगोलों से बात की तथा उन्हें धन देकर संतुष्ट किया। मंगोलों ने भविष्य में तुगलक के राज्य पर आक्रमण नहीं करने तथा सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक को अपना दोस्त मानने का वचन दिया।

पहले से ही चिढ़े हुए मौलवियों, मुफ्तियों, काजियों तथा उलेमाओं को सुल्तान की आलोचना करने का नया अवसर मिल गया। उन्होंने पानी पी-पीकर सुल्तान को गालियां दीं तथा जनता में प्रचार किया कि सुल्तान ने असभ्य मंगोलों के हाथों महान तुर्कों की नाक कटवा कर फैंक दी है।

मुहम्मद बिन तुगलक से धन स्वीकार करने के बाद तरमाशिरीन ने दिल्ली के सुल्तान के साथ सदैव मैत्री-भाव रखा।

निष्कर्ष रूप में केवल यही कहा जा सकता है कि उलेमाओं में यह समझने की शक्ति ही नहीं थी कि सुल्तान उन दिनों ऐसी परिस्थिति में नहीं था कि मंगोलों का सामना कर सके। सुल्तान के पास सल्तनत को नष्ट-भ्रष्ट होने तथा पराजय से बचाने का कोई दूसरा उपाय ही नहीं था।

अगली कड़ी में देखिए- कटोच राजपूतों ने मुहम्मद बिन तुगलक को पहाड़ी तलवार का स्वाद चखाया!

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