Thursday, December 26, 2024
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इटली का एकीकरण

37. इटली का एकीकरण

रीसॉर्जीमेंटो (Risorgimento)

वियना कांग्रेस में इटली का बंटवारा

 नेपोलियन बोनापार्ट को बंदी बनाए जाने के बाद सितंबर 1814 से जून 1815 तक ऑस्ट्रिया की राजधानी वियना में एक सम्मेलन का आयोजन हुआ जिसे विश्व इतिहास में वियना कांग्रेस कहा जाता है। यह यूरोपीय देशों के राजनेताओं का एक सम्मेलन था।

इसकी अध्यक्षता ऑस्ट्रियाई राजनेता मेटरनिख ने की। इस सम्मेलन का मुख्य उद्देश्य फ्रांसीसी क्रांतिकारी युद्ध, नेपोलियन युद्ध और पवित्र रोमन साम्राज्य के विघटन से उत्पन्न समस्याओं को सुलझाना था किंतु इस सम्मेलन में फ्रांस, ऑस्ट्रिया तथा इंग्लैण्ड के साम्राज्यवादी नेताओं ने इटली की समस्याओं को सुलझाने की बजाय भयानक रूप से बढ़ा दिया।

विजेता राष्ट्रों ने इटली एवं पूर्वी यूरोप के कई देशों को आपस में बांट लिया। ऑस्ट्रिया ने वेनिस (वेनेशिया) एवं उसके आसपास का बड़ा इलाका ले लिया। ऑस्ट्रिया के राजा को कई अच्छे क्षेत्र दे दिए गए। नेपल्स एवं दक्षिण इटली को मिलाकर दोनों सिसलियों का एक राज्य बना दिया गया और इसे बोर्बन राजा के अधीन कर दिया गया। फ्रांस की सीमा के निकट उत्तर-पश्चिम में पीडमॉण्ट और सार्डीनिया का राजा था।

पोप की वापसी

भले ही यूरोप के अनेक राजा पोप की सत्ता से छुटकारा  पाने के प्रयास करते रहे थे किंतु वे मन से यह कभी नहीं चाहते थे कि रोम का पोप सदैव के लिए समाप्त या विलुप्त  हो जाए। विएना समझौते के बाद हुए बंटवारे में पोप को उसका ‘पापल राज्य’ फिर से लौटा दिया गया जो नेपोलियन बोनापार्ट ने समाप्त कर दिया था। इस प्रकार रोम एवं उसके आसपास के क्षेत्रों पर पोप का शासन फिर से स्थापित हो गया।

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इटली केवल भौगोलिक अभिव्यक्ति बन गया

वियना कांग्रेस के बाद मेटरनिख ने कहा- ‘इटली वस्तुतः केवल एक भौगोलिक अभिव्यक्ति बन कर रहा गया।’  अब इटली का राजनीतिक मानचित्र इस प्रकार था-

(1) उत्तरी इटली में लोम्बार्डी और वेनेशिया के प्रदेश, ऑस्ट्रिया के अधीन हो गए।

(2) मध्य-इटली में पोप का शासन हो गया।

(3) दक्षिण-इटली में नेपल्स और सिसली के राज्य पर बूर्बो-वंश का राज्य हो गया।

(4) फ्रांस की सीमा के निकट उत्तर-पश्चिम में पीडमॉण्ट और सार्डीनिया का सम्राट था।

इस प्रकार विएना कांग्रेस ने इटली को चार बड़े भागों में बाँट दिया, उनके भीतर भी अगल-अलग राज्य थे तथा उनके अलग-अलग शासक थे। पीडमॉण्ट के राजा को छोड़कर शेष छोटे-बड़े राजाओं ने बड़े निरंकुश ढंग से शासन किया तथा जनता का बहुत शोषण किया। इटली की जनता को राजाओं ने पहले कभी इतना दुःख नहीं दिया था। इस कारण देश की जनता में इन राजाओं के विरुद्ध असंतोष भड़कने लगा।

राष्ट्रवादी इटलीवासियों की समस्याएं

यूरोप में चल रही राष्ट्रवाद की आंधी से प्रेरित होकर इटली के जन-साधारण ने संपूर्ण इटली को एक राष्ट्र बनाने के लिए आंदोलन चलाने का निर्णय लिया। इसमें अनेक बाधाएँ थीं, जिन्हें दूर करना आवश्यक था। इटली के देशभक्तों के ससक्ष तीन प्रमुख समस्याएँ थीं-

(1) इटली के वे प्रदेश जो ऑस्ट्रिया के प्रभाव में थे, उन्हें मुक्त कराना।

(2) देश के शासन को लोकतंत्रवाद के अनुकूल बनाना।

(3) इटली में राष्ट्रीय-एकता की स्थापना करना।

गुप्त-समितियों का गठन

इटली की स्वतंत्रता एवं उसके एकीकरण हेतु आंदोलन का आरम्भ देशभक्त लोगों द्वारा गुप्त-समितियों के गठन से हुआ जिनमें कार्बानेरी नामक समिति सबसे-प्रसिद्ध थी। लगभग सम्पूर्ण इटली में इसका जाल बिछाया गया। इसके नेतृत्व में इटली में अनेक विद्रोह हुए, जिन्हें मेटरनिख द्वारा कुचल दिया गया। अतः लोगों का यह विश्वास दृढ़ हो गया कि जब तक इटली से ऑस्ट्रिया का प्रभाव समाप्त नहीं होगा तब तक इटली की एकता के प्रयास सफल नहीं होंगे।

मैजिनी का उदय

ज्यूसेपे मैजिनी का जन्म 22 जून 1805 को जिनेवा में हुआ था। वह फ्रांस की क्रान्ति से अत्यंत प्रभावित था। पढ़ाई पूरी करके वह कार्बानेरी नामक गुप्त संस्था का सदस्य बन गया। मेजिनी का मानना था कि ‘नये विचार तभी पनपते हैं जब उसे शहीदों के रक्त से सींचा जाता है।’ 

वह देश की तत्कालीन व्यवस्था से दुःखी था और उसमें सुधार लाने का उपाय सोचता था। उसने देश की जनता को संबोधित करते हुए कहा- ‘हमारी प्रतिष्ठा और उन्नति अवरुद्ध है। हमारी शानदार प्राचीन परम्परा रही है परन्तु वर्तमान में हमारा कोई राष्ट्रीय अस्तित्व नहीं है। इसके लिए ऑस्ट्रिया जिम्मेदार है। उसके विरुद्ध संगठित होकर उसका सामना करने की आवश्यकता है।’

 ई.1830 में मेजिनी को जनता में असंतोष भड़काने के आरोप में गिरफ्तार कर लिया गया। वह लगभग एक वर्ष तक सेनोना की जेल में कैद रहा। जेल से मुक्ति के बाद उसने ई.1831 में मार्सेई में, निर्वासित इटालियन देशभक्तों की ‘जिओवेन इटालिया (जवान इटालिया)‘ नामक गुप्त समिति का गठन किया। मैजिनी ने इस संगठन के प्रसार के लिए कई वर्षों तक कठोर परिश्रम किया।

इसकी सदस्य संख्या में निरंतर वृद्धि होती गयी। ई.1833 में इस गुप्त समिति के सदस्यों की संख्या 60 हजार हो गयी। मेजिनी अच्छा साहित्यकार था। उसकी कई रचनाएं इटली के लोगों में राष्ट्रवादी भावनाएं संचारित करने में सफल हुईं। इस दौरान उसे देश-निकाले में भी रहना पड़ा और कई बार उसके प्राणों पर संकट आया। ज्यूसेपे मेजिनी को ‘इटली का स्पन्दित हृदय’ कहा जाता है।

महान् भारतीय क्रांतिकारी एवं भारतीय क्रांतिकारियों के मार्गदर्शक वीर सावरकर, मेजिनी को अपना आदर्श नायक मानते थे। लाला लाजपत राय मेजिनी को अपना राजनीतिक गुरु मानते थे। उन्होंने मेजिनी की प्रसिद्ध रचना ‘द ड्यूटी ऑफ मैन’ का उर्दू में अनुवाद किया। मेजिनी को इटली के राष्ट्रीय-एकीकरण के स्वप्न को साकार रूप देने का श्रेय है।

मेजिनी अपने विचारों से इटली की जनता को राष्ट्रीय-एकीकरण के लिए निरंतर प्रोत्साहित करता रहा और उनमें देशप्रेम तथा बलिदान की भावना उत्पन्न करता रहा। वह स्वतंत्रता के साथ-साथ गणतंत्र का भी समर्थक था। इस प्रकार वह इटली के स्वाधीनता संघर्ष का अग्रदूत बन गया। ई.1848 में ऑस्ट्रियाई चांसलर मेटरनिख का पतन हो गया। इससे इटली के देशभक्तों के उत्साह में वृद्धि हुई।

यूरोप के देशों में बलवे

ई.1848 का साल यूरोप में क्रांतियों का साल कहलाता है। इस साल यूरोप के कई देशों में दंगे हुए किंतु अधिकांश देशों में वे दबा दिए गए। पौलेण्ड, इटली, बोहेमिया और हंगरी के दंगों की पृष्ठभूमि में वहाँ के शासकों द्वारा बलपूर्वक दबाई गई राष्ट्रीयता थी। उत्तरी इटली में ऑस्ट्रिया के विरुद्ध विद्रोह किया गया।

पोप का रोम से निष्कासन

 ई.1848 में इटली में भी कई स्थानों पर विद्रोह की आग भड़क गई। मैजिनी इस अवसर का लाभ उठाने के लिए रोम आ गया। उसने पोप को रोम से बाहर निकाल दिया और रोम में एक गणराज्य की स्थापना की। इस गणराज्य के शासन के लिए उसने तीन सदस्यों की एक समिति बनाई। इस समिति को प्राचीन रोमन साम्राज्य की समिति की तर्ज पर ‘त्रियमवीर‘ कहा गया। इस समिति में मैजिनी स्वयं भी सम्मिलित था।

यूरोपीय राजाओं में बेचैनी

पोप का रोम से बाहर निकाला जाना एवं इटली में गणतंत्र का स्थापित होना यूरोप के विभिन्न देशों के राजाओं के लिए अत्यंत चिंताजनक था। वे सदियों से अपने देश की जनता को धर्म का भय दिखाकर राजा को ईश्वरीय प्रतिनिधि सिद्ध करते थे और अपने अस्तित्व को बनाए रहते थे। इन देशों के राजाओं की चिंता यह थी कि जब रोम में पोप ही नहीं रहेगा तब राजा लोग, धर्म को अपराजेय एवं स्वयं को धर्म के प्रतिनिधि के रूप में स्थापित कैसे रख सकेंगे!

संसार की समस्त शासन व्यवस्थाओं में अब तक धर्म ही उस रज्जु का काम करती आई थी जिससे बंधी हुई जनता को शासन के दण्ड से जिधर चाहे हांका जा सकता है।

उस काल की यूरोपीय राज्य-व्यवस्था को देखने से ऐसा लगता है मानो धर्म राजा पर शासन कर रहा था किंतु भीतरी सच्चाई यह थी कि धर्म, राज्य को बनाए रखने के लिए बांदी की भूमिका निभा रहा था और राजा लोग इस दासी को अपने हाथ से नहीं निकलने दे सकते थे। यही कारण है कि गणतंत्र प्रायः धर्म की उपेक्षा करता है और राजतंत्र धर्म को पकड़ कर रखता है।

इटली के नवीन गणराज्य पर ऑस्ट्रिया, नेपल्स एवं फ्रांस की सेनाओं ने आक्रमण किए। ये लोग रोम से गणराज्य समाप्त करके फिर से पोप का शासन स्थापित करना चाहते थे। रोम गणराज्य की रक्षा के लिए गैरीबाल्डी नामक एक युवक आगे आया। उसकी सहायता के लिए रोम के सैंकड़ों देशभक्त युवक स्वेच्छा से आगे आए।

उन स्वयं-सेवकों ने गैरीबाल्डी के नेतृत्व में ऑस्ट्रिया, नेपल्स एवं फ्रांस की सेनाओं को कुछ समय के लिए रोम की तरफ बढ़ने से रोक दिया किंतु वे अधिक समय तक तीन देशों की सेनाओं का एक साथ सामनानहीं कर सके और गैरीबाल्डी को इटली छोड़ अमरीका भाग जाना पड़ा।

पोप की वापसी

ऑस्ट्रिया, नेपल्स एवं फ्रांस की सेनाओं से अलग-अलग मोर्चों पर लड़ते हुए इटली के बहुत से युवकों की जानें गईं किंतु अंततः रोम गणराज्य फ्रांसीसियों से हार गया और फ्रांस ने फिर से पोप को रोम का राजा बना दिया। इस पर भी मैजिनी और गैरीबाल्डी ने देश की जनता को प्रजातंत्र देने के संकल्प का त्याग नहीं किया। वे फिर से अपने काम में जुट गए। यद्यपि इन दोनों के काम करने के तरीकों एवं विचारों में बहुत अंतर था तथापि उनका लक्ष्य एक था। मैजिनी विचारक और आदर्शवादी था जबकि गैरीबाल्डी सिपाही था और छापामार युद्ध में निष्णात था।

काबूर का उदय

विदेशी शक्तियों द्वारा पोप को बलपूर्वक रोम में पुनः स्थापित कर दिए जाने से इटली के स्वतंत्रता संग्राम को बड़ा झटका लगा किंतु इस असफलता ने इटालवी युवकों में देशभक्ति एवं राष्ट्रवाद की प्यास और अधिक बढ़ा दी। जब मैजिनी और गैरीबाल्डी इटली के शत्रुओं से लड़ते हुए हारने लगे तब इटली के राजनीतिक मैदान में एक और युवक इटली की आजादी और एकता के लिए आगे आया। उसका नाम काबूर था। वह पीडमॉण्ट के राजा विक्टर एमेनुएल का प्रधानमंत्री था।

वह अपने युग का एक महत्त्वपूर्ण और कुशल कूटनीतिज्ञ था। उसका जन्म ई.1810 में ट्यूरिन के एक जमींदार परिवार में हुआ था। उसने अपना जीवन एक सैनिक के रूप में आरंभ किया था किंतु बाद में वह पुनः नागरिक जीवन में आ गया। वह इटली में ‘वैधानिक- राजसत्ता’ का समर्थक था और इंग्लैण्ड की संसदीय प्रणाली से अत्यधिक प्रभावित था।

काबूर का लक्ष्य

ई.1848 में काबूर पीडमॉण्ट की संसद का सदस्य बना तथा उन्नति करता हुआ ई.1852 में पीडमाँट राज्य का प्रधानमंत्री बन गया।

काबूर का लक्ष्य इटली को विदेशी शक्तियों से मुक्त करवाकर इटली को एक राष्ट्र के रूप में स्थापित करने का था किंतु वह यह काम लोकतंत्र की स्थापना के लिए नहीं करना चाहता था। वह पीडमॉण्ट के राजा विक्टर एमेनुएल के अधीन एक विशाल इटली की स्थापना का स्वप्न देख रहा था।

पीडमॉण्ट का सशक्तीकरण

काबूर की मान्यता थी कि जब तक राज्य मजबूत नहीं होगा, तब तक वह अपने संघर्षों में सफल नहीं हो सकेगा। इसलिए उसने इटली के एकीकरण का नेतृत्व करने के लिए पीडमाँट को मजबूत बनाने का प्रयास किया। उसने राज्य को सुदृढ़ बनाने के लिए अनेक सुधार किए। राज्य में व्यापार और व्यवसाय के विकास लिए भी विशेष प्रयास किये गए।

उसने व्यापार के क्षेत्र में ‘खुला छोड़ दो’ की नीति का अनुसरण करते हुए व्यापार को राजकीय संरक्षण प्रदान किया। उसके मार्ग-दर्शन में यातायात के साधनों को मजूबत बनाया गया और कृषि क्षेत्र को विकसित किया गया। शिक्षा की उन्नति की ओर भी ध्यान दिया गया।

उसने सेना और कानून के क्षेत्र में नये सुधारों को क्रियान्वित किया और बैंक संबंधी नियमों में अनुकूल सुधार किए। इस प्रकार उसने प्रशासन के विभिन्न अंगों में सुधार करके राज्य के प्रशासन को गतिशील और मजबूत बनाया। उसके इन प्रयासों के कारण पीडमाँट राज्य की बहुमुखी उन्नति हुई और वह एक सशक्त राज्य बन गया।

अपनी बुनियाद को मजबूत कर लेने के बाद उसने देशभक्तों से सहयोग प्राप्त करने का प्रयास किया। मेजिनी और गैरीबाल्डी उससे सहयोग करने के लिए तैयार हो गये। इस प्रकार राष्ट्रीय एकीकरण के कार्य में वह बहुसंख्यक जनता का सहयोग प्राप्त करने में सफल हुआ।

क्रीमिया के युद्ध में भागीदारी

काबूर ने अनुभव किया कि ऑस्ट्रिया के प्रभाव को समाप्त करने के लिए उसे फ्रांस से सहयोग प्राप्त हो सकता है। अतः उसने क्रीमिया के युद्ध में फ्रांस की सहायता की। यह युद्ध ई.1854 में पूर्वी समस्या के प्रश्न पर लड़ा गया था। इसकी समाप्ति ई.1856 में पेरिस की संधि से हुई। पेरिस की संधि पर विचार-विमर्श करने के लिए आयोजित सम्मेलन में काबूर भी उपस्थित हुआ।

वह उस सम्मेलन में इटालियन स्वाधीनता के दावे को कुशलतापूर्वक प्रस्तुत करने में सफल रहा। उसने इटली की दयनीय स्थिति के लिए ऑस्ट्रिया को जिम्मेदार ठहराते हुए इटली से उसके प्रभाव को समाप्त करने की वकालत की। फ्रांस का तत्कालीन राष्ट्रपति नेपोलियन (तृतीय) काबूर के तर्कों से प्रभावित हुआ और उसने इटली को सैनिक सहायता देना स्वीकार किया।

फ्रांस से संधि

जून 1858 में नेपालियन (तृतीय) तथा काबूर के बीच प्लाम्बियर्स नामक स्थान पर एक संधि हुई जिसमें इस बात पर सहमति व्यक्त की गई कि इटली को ऑस्ट्रिया के नियंत्रण से निकालने के लिए फ्रांस, इटली को सैनिक सहायता देगा और इस सहायता के बदले इटली, नीस और सेवाय के प्रदेश फ्रांस को देगा। अब काबूर ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध करने के लिए तैयार हो गया।

ऑस्ट्रिया से युद्ध एवं ज्यूरिक की संधि

काबूर के प्रयासों से लोम्बार्डी और वेनेशिया में ऑस्ट्रिया के विरुद्ध विद्रोह हो गया। इस कारण ई.1859 में दोनों पक्षों में युद्ध प्रारंभ हो गया। इसी बीच प्रशिया, ऑस्ट्रिया की सहायता करने के लिए तैयार हो गया और युद्ध में भारी व्यय होने की संभावना उत्पन्न हो गई। इस कारण फ्रांस ने स्वयं को युद्ध से अलग कर लिया।

संभवतः अब तक नेपोलियन (तृतीय) को यह समझ में आ गया कि इटली का संगठित होना फ्रांस के लिए अच्छा नहीं है। ऐसी स्थिति में इटली, ऑस्ट्रिया और फ्रांस के बीच ज्यूरिक की संधि हुई जिसकी मुख्य शर्तें इस प्रकार थीं –

(1) लोम्बार्डी का प्रदेश पीडमाँट के अधिकार में दे दिया गया,

(2) वेनेशिया को ऑस्ट्रिया के ही अधिकार में रखा गया,

(3) नीस और सेवाय के प्रदेश फ्रांस को दे दिए गए।

इस संधि से इटली को बड़ी निराशा हुई। वेनेशिया का ऑस्ट्रिया के अधीन रहना तथा नीस एवं सेवाय का इटली के हाथ से निकल जाना देशवासियों को खल रहा था। फिर भी लोम्बार्डी की प्राप्ति एकीकरण की दिशा में पहली बड़ी उपलब्धि थी। मध्य और दक्षिण में एकीकरण का कार्य अभी शेष था।

मध्य-इटली का एकीकरण

मध्य-इटली के राज्यों में भी स्वतंत्रता की माँग जोर पकड़ने लगी थी। ये राज्य भी अब पीडमाँट के साथ मिलने का प्रयास करने लगे थे। ई.1860 में मोडेना, परमा और टस्कनी आदि मध्य-इटली के राज्यों ने जनमत द्वारा पीडमाँट में मिलने का फैसला किया। इस प्रकार मध्य-इटली के राज्यों का भी एकीकरण हो गया।

अब दक्षिण-इटली के राज्यों को संगठित करना शेष था। शेष इटली को पीडमाँट में शामिल करने का जो आंदोलन चला उसमें किसी विदेशी शक्ति का सहयोग नहीं लिया गया। यह इटालियन राष्ट्रीयता की अपनी सफलता थी, जिसका नेता गैरीबॉल्डी था। सिसली और नेपल्स दक्षिण-इटली के राज्य थे जहाँ बूर्वो-वंश के राजा की सत्ता थी।

गैरीबाल्डी का योगदान

गैरीबाल्डी ने इटली के राष्ट्रीय-एकीकरण के कार्य में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। उसका जन्म ई.1807 में नीस में हुआ था। उसने नौ-सेना की शिक्षा प्राप्त थी। वह समुद्री व्यापार से जुड़ा हुआ था तथा मेजिनी से बड़ा प्रभावित था। वह रिपब्लिकन-दल का समर्थक हो गया इसीलिए उसे गिरफ्तार कर लिया गया। सजा से बचने के लिए वह दक्षिण-अमेरिका भाग गया। ई.1848 में वह पुनः इटली लौटा।

क्रांति में असफलता प्राप्त करने के पश्चात वह पुनः अमेरिका चला गया। वहाँ से खूब धन कमाकर वह पुनः इटली आया। पीडमॉंट के प्रधानमंत्री काबूर और राजा विक्टर एमेनुअल से उसने संपर्क बनाये रखे। उसने अपने नेतृत्व में लालकुर्ती दल का गठन किया, जिसके सहयोग से वह सिसली और नेपल्स को स्वतंत्र करके उन्हें राष्ट्रीय-धारा से जोड़ने में सफल हुआ।

सिसली और नेपल्स की प्राप्ति

दक्षिण-इटली में सिसली और नेपल्स की जनता ने ब्रूवो राजा फ्रांसिस (द्वितीय) के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और गैरीबाल्डी से सहयोग मांगा। 11 मई 1859 को गैरीबाल्डी चुने हुए देशभक्तों के साथ अमरीका से पुनः अपनी मातृभूमि लौटा। गैरीबाल्डी एवं उसके एक हजार लाल-कुर्ती वाले सिपाही बिना किसी सैन्य-प्रशिक्षण के एवं बिना समुचित हथियारों के, नेपल्स एवं सिसली की प्रशिक्षित एवं विशाल सेना पर चढ़ बैठे।

यह एक अनोखी और बेमेल लड़ाई थी किंतु गैरीबाल्डी में गजब की नेतृत्व क्षमता थी जिसके बल पर उसकी छोटी सी अप्रशिक्षित सेना निरंतर सफलताएं हासिल करती थी। जब उसकी सेना हारने लगती थी तो गैरीबाल्डी अकेला ही युद्ध के मैदान में मौत का विकराल खेल खेलने लगता था जिसके कारण उसके भागते हुए सिपाही फिर से युद्ध के मैदान में आ-डटते थे और हारी हुई बाजी जीत ली जाती थी।

वह जब अपने साथियों के साथ गांवों एवं कस्बों से होकर गुजरता था तो ग्रामीण युवकों से अपील करता था कि वे देश की आजादी के लिए आगे आएं। वह कहता था- ‘चले आओ! चले आओ! जो घर में घुसा रहता है, वह कायर है। मैं तुम्हें थकान, तकलीफें और लड़ाइयां देने का वादा करता हूँ किंतु हम या तो जीतेंगे, या मर मिटेंगे। संसार सफलता की प्रतिष्ठा करता है।’

गैरीबाल्डी की पुकार सुनकर स्वयंसेवकों को तांता बंध गया। वे घरों से निकलकर गैरीबाल्डी का लिखा गीत गाते हुए सेनाओं में भर्ती होने लगे। इस गीत का आशय इस प्रकार था-

उघड़ गई हैं कब्रें, मुर्दे दूर-दूर से आते उठकर।

ले तलवारें हाथों में और कीर्ति-ध्वजों के साथ,

युद्ध के लिए खड़े हो रहे प्रेतगण, अमर शहीदों से अपने,

जिनके मृत हृदयों में गर्मी, इटली का नाम रहा है भर।

आओ, दो उनका साथ, देश के नवयुवको!

तुम चलो उन्हीं के पीछे!

आओ, फहरा दो झण्डा अपना और बाजे जंगी सब साजो!

आ जाओ! सब लेकर ठण्डी फौलादी तलवारें,

किन्तु हो आग हृदय में भरी हुई,

आ जाओ सब लेकर इटली की आशाओं की ज्योति अरे!

इटली से बाहर हो, ओ परदेशी,

तू बाहर निकल हमारे प्यारे वतन इटली से!

गैरीबाल्डी ने अपनी सेना की सहायता से जून 1860 में सिसली पर एवं सितम्बर 1860 में नेपल्स पर अधिकार कर लिया। सिसली विजय के बाद गैरीबाल्डी ने 20 हजार युवकों के साथ दक्षिण इटली में प्रवेश किया। 18 फ़रवरी 1861 को इटली की नई पार्लियामेंट की बैठक हुई और विक्टर इमानुअल को इटली का विधिवत् राजा घोषित कर दिया गया।

सिसली एवं नेपल्स को भी पीडमाँट के राज्य में शामिल कर लिया गया। सिसली और नेपल्स का शासक फ्रांसिस (द्वितीय) देश छोड़कर भाग गया। निःसंदेह काबूर ने गैरीबाल्डी की सफलताओं से लाभ उठाया था। इसी कारण पीडमॉण्ट का राजा विक्टर एमेनुएल इटली का शासक हो पाया था।

मैजिनी और गैरीबाल्डी इन अप्रत्याशित घटनाओं से हक्के-बक्के रह गए। वे जीवन भर इटली की आजादी और एकीकरण के लिए लड़ते रहे थे किंतु उन्होंने इस इटली की कल्पना नहीं की थी जिसका शासक एक राजा हो और जो देश पर सामंतशाही शिकंजा कड़ा कर दे। उनकी कल्पना ऐसे इटली की थी जिस पर इटली की प्रजा स्वयं शासन कर सके। गैरीबाल्डी के नेतृत्व में इटली के जिन युवकों ने आजादी की लड़ाई लड़ी थी, वे भी गणतंत्र की स्थापना के लिए व्याकुल थे।

इसलिए पीडमेंट का राजा और उसका प्रधानमंत्री काबूर, देश के बहुसंख्यक नागरिकों की भावनाओं की पूर्ण उपेक्षा नहीं सके। देश में एक पार्लियामेंट स्थापित की गई तथा देश के शासन के लिए एक संविधान का भी निर्माण किया गया किंतु यह सब राजतंत्रात्मक शासन व्यवस्था के अंतर्गत था।

इटली के एकीकरण के तुरंत बाद त्यूरिन में पार्लियामेंट की बैठक करके विक्टर एमेनुअल एवं काबूर ने देश की प्रजा को स्पष्ट संदेश दिया कि उन्हें संविधान के अंतर्गत शासन व्यवस्था प्रदान की जाएगी, राजा पूर्णतः निरंकुश होकर शासन नहीं करेगा।

काबूर का निधन

6 जून 1861 को काबूर की मृत्यु हो गयी। इटली को एक राष्ट्र का रूप देने का श्रेय काबूर को है, जिसमें मेजिनी, गैरीबाल्डी और विक्टर इमेनुएल का सहयोग उल्लेखनीय था। काबूर की इच्छा थी कि रोम संयुक्त इटली की राजधानी बने किंतु रोम अभी तक फ्रांसीसी सेना के अधिकार में था। वेनेशिया भी अभी तक ऑस्ट्रिया के अधिकार में था।

वेनेशिया की प्राप्ति

उन्हीं दिनों प्रशा के प्रधानमंत्री के नेतृत्व में जर्मन राज्यों के एकीकरण का कार्य आरम्भ हुआ। ई.1866 में प्रशा ने ऑस्ट्रिया के विरुद्ध युद्ध आरम्भ कर दिया। इटली भी प्रशा की ओर से इस युद्ध में शामिल हो गया। इस युद्ध में प्रशा विजयी रहा। इटली द्वारा किए गए सहयोग के बदले में वेनेशिया का राज्य इटली को प्राप्त हो गया। अक्टूबर ई.1866 में इसे भी पीडमाँट में मिला लिया गया।

रोम की प्राप्ति

रोम का प्राचीन वैभव इटलीवासियों के लिए गौरव का विषय था। इस कारण इटलीवासी रोम को नवीन इटली राज्य की राजधानी बनाना चाहते थे किंतु उस पर पोप का अधिकार था। ई.1870 में फ्रांस और प्रशा के बीच युद्ध छिड़ गया। ऐसी स्थिति में फ्रांस को रोम में स्थित अपनी सेना को वापस बुलाना पड़ा। यह युद्ध सीडान के मैदान में लड़ा गया, जिसमें अंतिम सफलता प्रशा को मिली।

इस स्थिति ने इटली को रोम पर आक्रमण करने के लिए प्रोत्साहित किया। 20 सितम्बर 1870 को इटली के सेनापति केडोनी ने रोम पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार इटलीवासियों की यह अंतिम इच्छा भी पूर्ण हो गयी।

2 जून 1871 को राजा विक्टर इमेनुएल ने रोम में प्रवेश किया। उसने इटली की नई संसद का उद्घाटन करते हुए कहा- ‘हमारी राष्ट्रीय एकता पूर्ण हो गयी, अब हमारा कार्य राष्ट्र को महान् बनाना है।’

विक्टर इमेनुएल का योगदान

यह सही है कि पीडमाँट के राजा विक्टर एमेनुएल ने एकीकृत इटली को गणतंत्र नहीं देकर राजतंत्र दिया किंतु इटली के एकीकरण को ठोस रूप देने में उसने महान् भूमिका का निर्वहन किया। यदि विक्टर इमेनुएल में दूरदृष्टि नहीं होती तो पीडमॉण्ट जैसे छोटे राज्य के लिए इतने बड़े देश के एकीकरण का नेतृत्व करना और अंत में उसे अपने संरक्षण में ले लेना कदापि संभव नहीं होता।

राजा विक्टर इमेनुएल उस काल के अन्य यूरोपीय शासकों से भिन्न व्यक्तित्व का धनी था। वह राष्ट्रीयता और देश के एकीकरण का समर्थक था। वह सच्चा देशभक्त, वीर और धैर्यवान राजा था। यह कहना अतिशयोक्तिपूर्ण नहीं होगा कि यदि विक्टर इमेनुएल नहीं होता तो इटली के एकीकरण का कार्य असंभव नहीं तो कठिन अवश्य हो जाता।

इटली की पीड़ा का चित्रण

इटली की आजादी के लिए हुए इस संघर्ष पर अंग्रेज कवि और उपन्यासकार जॉर्ज मेडिडिथ ने इटली के स्वातंत्र्य संग्राम पर एक बड़ा उपन्यास लिखा जिसे बहुत प्रसिद्धि मिली। मेडेडिथ द्वारा लिखी गई एक कविता का आशय इस प्रकार था-

हमने इटेलिया को घोर पीड़ा में देखा है!

वह उठने भी न पाई थी कि उसे फिर धरती

पर फैंक दिया गया,

और आज जब वह गेहूँ के पके हुए खेत की तरह,

जहाँ कभी हल चलते थे,

वरदानमयी तथा सुन्दर है,

तब हमें उनकी याद आती है,

जिन्होंने उसके ढांचे में जीवन की सांस फूंकी

काबूर, मैजिनी, गैरीबाल्डी तीनों;

एक उसका मस्तिष्क, एक आत्मा, एक तलवार,

जिन्होंने एक प्रकाशमान उद्देश्य को लेकर

विनाशकारी आंतरिक कलह से उसका उद्धार किया।

ट्रैवेलियन नामक अंग्रेज विद्वान ने गैरीबाल्डी को लेकर तीन पुस्तकें लिखीं- (1) गैरीबाल्डी एण्ड फाइट फॉर द रोमन रिपब्लिक, (2) गैरीबाल्डी एण्ड द थाउजैण्ड, (3.) गैरीबाल्डी एण्ड द मेकिंग ऑफ इटली।

इटली की लड़ाई के दिनों में इंग्लैण्ड के लोगों की सहानुभूति गैरीबाल्डी और उसके लाल कुर्तों के साथ थी। इस कारण बहुत से अंग्रेज कवियों ने इटली के लोगों को साहस बंधाने वाला साहित्य लिखा।

स्विनबर्न, मेरेडिथ और एलिजाबेथ बैरेट ब्राउनिंग नामक अंग्रेज कवियों ने सुंदर कविताएं लिखकर इटली-वासियों का उत्साह बढ़ाया। इन कविताओं में प्रजातंत्र एवं आाजादी के पक्ष में बहुत उच्च विचार व्यक्त किए गए थे। जबकि ठीक उन्हीं दिनों अंग्रेज जाति आयरलैण्ड, मिस्र एवं भारत की जनता पर बरसाने के लिए बंदूकें, मशीनगनें, तोपें और गोलियां बना रही थी।

जिस समय इटली का संघर्ष अपने दुर्दिनों से गुजर रहा था, तब अंग्रेज कवि स्विनबर्न ने ‘रोम के सामने पड़ाव’ शीर्षक से एक कविता लिखी जिसका आशय इस प्रकार था-

तुम क्रीतदास जिस स्वामी के, वह ही देगा उपहार तुम्हें,

उपहार भला क्या दे सकती, स्वतंत्रता की देवि तुम्हें;

वह आश्रयहीना स्वतंत्रता, आवास नहीं जिसका कोई,

वह बिना रुकावट सीमा के, प्रेरित करती जिन सेनाओं को,

बढ़ने को आगे नित ही।

वे सेनाएं खोकर जिन आंखों की निद्रा,

भूखों मरती, और खून बहाती चलती हैं,

निज प्राणों से आजादी की बोती जाती हैं बीज, तथा

बढ़ती जाती हैं, यह इच्छा लेकर-

उनकी मिट्टी से फिर निर्माण राष्ट्र का हो जाए,

और आत्माएं उनकी कर दें ज्योतित उसके ही तारे को।

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