17. ईसाई धर्म का अंतर्द्वन्द्व
ईसाई धर्म अपने जन्म के साथ ही अंतर्द्वन्द्वों में फंसा हुआ था। यह एक स्वाभाविक बात ही थी क्योंकि किसी श्रेष्ठ संस्था, श्रेष्ठ विचार, श्रेष्ठ रचना या व्यवस्था का परिष्कार अंतर्द्वन्द्वों के बाद ही हो सकता है। किसी भी विषय के सम्बन्ध में मनुष्य के हृदय में उत्पन्न होने वाला विचार, आवश्यक नहीं है कि वह इतना श्रेष्ठ हो कि उसमें किसी परिष्कार की संभावना मौजूद ही न हो।
ईसा मसीह ने स्वयं को प्रभु का पुत्र बताया था तथा कभी भी किसी देवत्व का दावा नहीं किया था। वे अंतिम क्षणों में भी ईश्वर से अपने शत्रुओं के लिए क्षमा मांगते रहे थे। अतः यह निश्चित था कि उन्होंने कभी स्वयं ईश्वर होने का दावा नहीं किया।
जब वे इस संसार से चले गए तब मनुष्यों में उन्हें देवत्व प्रदान करने की होड़ लगी। इसके पीछे कई कारण एवं भावनाएं काम कर रही थीं। कुछ लोग किसी मनुष्य की महानता तब स्वीकार करते हैं जब वह मृत्यु को प्राप्त हो जाता है। इस भावना के कारण बहुत से लोगों को यीशू अब महान् लगने लगे थे।
कुछ लोग इसलिए यीशू को देवत्व का स्तर प्रदान करना चाहते थे ताकि वे प्रचलित धर्मों के पुजारियों एवं ठेकेदारों के समक्ष नई चुनौती खड़ी कर सकें। कुछ लोगों को अपने अंतःकरण की शुद्ध भावनाओं के कारण यीशू में देवत्व दिखाई देने लगा था तो कुछ लोग अपने स्वार्थों की पूर्ति के लिए एक नया धर्म खड़ा करने के लिए उतावले हो रहे थे।
इसमें कोई संदेह नहीं कि अपने जीवन काल में यीशू देवत्व के गुणों से युक्त थे किंतु सूली के बाद कुछ सौ सालों में करोड़ों लोगों को यीशू के देवत्व में विश्वास हो गया। अब वे ईश्वर के पुत्र होने के साथ-साथ इतने गरिमा युक्त हो गए थे कि ईश्वर की जगह उन्हें ही पूजा जाने लगा।
ईसा की चौथी शताब्दी ईस्वी के आरम्भ में जब रोम के राजा ने ईसाई धर्म स्वीकार कर लिया तो ईसाई धर्म उपेक्षित और जन-सामान्य का धर्म नहीं रह गया। वह राज्य-संरक्षण के गौरव से अनुप्राणित हो उठा। ईसाई धर्म के प्रचारकों के लिए अब अपने विरोधियों से हिसाब चुकता करने का समय आ गया था किन्तु इसी समय ईसाई धर्म एक नए अंतर्द्वन्द्व में उलझ गया। ईसाई प्रचारक यीशू के उपदेशों को समझने और उन्हें व्यवहार में लाने की बजाय यीशू के देवत्व और क्रिश्चियन ट्रिनिटी (ईसाई त्रिपुटी) को लेकर तर्क-वितर्क में फंस गए।
ईसाई धर्म में फादर, सन और होली घोस्ट (पिता, पुत्र और पवित्र आत्मा) को ट्रिनिटी कहते हैं। इस विषय पर उनके अलग-अलग समूह बन गए और वे एक दूसरे को काफिर कहने लगे, एक-दूसरे पर अत्याचार करने लगे और यहाँ तक कि एक-दूसरे का गला काटने लगे। एक बार ईसाइयों के कुछ सम्प्रदायों में ‘होमो आउजिन’ शब्द के उच्चारण को लेकर झगड़ा हुआ।
कुछ समुदाय कहते थे कि प्रार्थना के समय होमो आउजिन शब्द उच्चारित किया जाना चाहिए जबकि कुछ समुदाय इस मत पर अड़ गए कि होमोई आउजिन शब्द उच्चारित किया जाना चाहिए। यह शब्द ईसा मसीह के देवत्व से सम्बन्ध रखता है। इस विवाद को सुलझाने के लिए दोनों पक्षों में भयंकर युद्ध हुआ जिसमें बहुत से लोग मारे गए।
ईसाई प्रचारकों के झगड़े इतने अधिक थे कि वह रोम के राजा का धर्म बन जाने के उपरांत भी उससे तत्काल लाभ नहीं उठा सका। रोमन राजा के रोम छोड़कर कुस्तुंतुनिया चले जाने से रोम और कुस्तुंतुनिया के ईसाईयों में यह झगड़ा उठ खड़ा हुआ कि उनमें से बड़ा और असली ईसाई कौन है! इस कारण रोमन सामा्रज्य का ईसाई समुदाय दो समुदायों में विभक्त हो गया। कुस्तुंतुनिया का ईसाई समुदाय स्वयं को यूनानी सम्प्रदाय कहने लगा और रोम का ईसाई समुदाय स्वयं को लैटिन सम्प्रदाय कहने लगा।
रोमन चर्च कैथोलिक चर्च कहलाने लगा और कुस्तुंतुनिया का चर्च ऑर्थोडॉक्स चर्च कहलाने लगा। रोमन कैथोलिक चर्च का बिशप लैटिन ईसाई समुदाय का प्रमुख बन गया जो बाद में सेंट पीटर का उत्तराधिकारी होने के कारण विशिष्ट माना जाने लगा। कुछ समय बाद विशिष्टता का यह भाव इतना अधिक बढ़ा कि रोम के कैथोलिक चर्च का बिशप ‘पोप’ अर्थात् ‘पिता’ कहलाने लगा। यह एक विस्मयकारी स्थिति थी। प्रभु के पुत्र यीशू के शिष्य का उत्तराधिकारी सारे संसार के ईसाइयों का पिता बन गया था! रोम में राजा की अनुपस्थिति से पोप की हैसियत दिन पर दिन बढ़ती चली गई।
छठी शताब्दी ईस्वी में भी ईसाई धर्म की लड़ाइयां गैर ईसाइयों से न होकर, अन्य ईसाई सम्प्रदायों से हुआ करती थीं। ये सम्प्रदाय एक दूसरे के प्रति अत्यंत असहिष्णु थे।
समस्त उत्तरी अफ्रीका, पश्चिमी एशिया और यूरोप में भी ईसाइयों ने अपने ईसाई भाइयों को घूंसों, डण्डों और तलवारों से धर्म का मर्म समझाने का प्रयास किया। इस काल में ईसाइयत तुर्किस्तान, चीन और एबीसीनिया (हब्श) तक फैल गई थी तथा रोम और कुस्तुन्तुनिया की ईसाइयत से पूरी तरह कट गई।
यूरोप में अंधकार का युग आरम्भ हो गया। ईसाइयों ने तब तक लिखी गई पुस्तकों को ढूंढ-ढूंढकर नष्ट किया क्योंकि उनमें प्राचीन यूनानी दर्शन था, प्राचीन रोमन धर्म था और प्राचीन देवी-देवताओं की पूजा सम्बन्धी बातें लिखी हुई थीं। इन पुस्तकों के साथ प्राचीन काल की चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत कला आदि को भी उस काल के ईसाइयों के हाथों बड़ा नुक्सान उठाना पड़ा। उन्हें ढूंढ-ढूंढ कर नष्ट किया गया। क्योंकि ये कलाकृतियां निःसंदेह प्राचीन रोमन देवी-देवताओं का निरूपण करती थीं।
कुछ ईसाई पादरी एवं पुजारी अपने दूसरे भाइयों की तरह अनुदार नहीं थे। वे अतीत को अपने पुरखों की विरासत समझते थे। इसलिए कुछ ईसाई आश्रमों, गिरिजाघरों एवं मठों में पुरानी पुस्तकों का चोरी-छिपे भण्डारण किया गया और उन्हें नष्ट होने से बचाया गया। इसी प्रकार कुछ प्राचीन चित्र भी बचा लिए गए। इस काल में कुछ ईसाई दरवेश मानव बस्तियों से दूर रेगिस्तानी क्षेत्रों में चले जाते थे।
वहाँ ये लोग जंगली हालत में रहते थे तथा स्वयं को पीड़ा पहुँचाया करते थे। ये नहाते-धोते नहीं थे और अधिक से अधिक कष्ट सहने का प्रयास करते थे। यह बात मिस्र में विशेषतः पाई जाती थी जहाँ इस प्रकार के बहुत से दरवेश रेगिस्तान में रहा करते थे। उनका विचार था कि- ‘वे जितना स्वयं को पीड़ा पहुँचाएंगे, नहाने-धोने से दूर रहेंगे, उतने ही पवित्र हो जाएंगे।’
एक दरवेश तो बहुत वर्षों तक एक खम्भे के ऊपर बैठा रहा। ये लोग अपना हाथ ऊपर उठाए रहते थे। यहाँ तक कि यह हाथ सूख कर बेकार हो जाता था। या लोहे की कीलों पर बैठे रहते थे। इन दरवेशों की यह जीवन-पद्धति बहुत कुछ भारतीय हठ-योगियों से साम्य रखती थी। धीरे-धीरे इन ईसाई-दरवेशों की परम्परा समाप्त हो गई किंतु बहुत दिनों तक बहुत से ईसाईयों का यह विश्वास था कि- ‘आनंद मनाना पाप है।’