Thursday, November 21, 2024
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क्या भारत के लोगों का डीएनए एक है?

पिछले कुछ समय से देश के समक्ष यह अवधारणा प्रस्तुत की जा रही है कि विगत चालीस हजार साल से भारत के लोगों का डीएनए एक है! संभवतः इस बात को इसलिए बार-बार दोहराया जा रहा है कि ‘डीएनए का एक होना’ अच्छी बात है। चालीस हजार साल की अवधि भारत में ‘उत्तर पाषाण काल’ के आरम्भ होने की अवधारणा से ली गई जान पड़ती है, जब मनुष्य का नवीनतम संस्करण ‘क्रो-मैगनन मैन’ भारत की धरती पर पहली बार दिखाई दिया। इस प्रकार समस्त भारतीयों को मानव के उसी संस्करण की संतान मान लिया गया है।

विज्ञान के आधार पर न तो समस्त भारतीयों के ‘क्रो-मैगनन मैन’ की संतान होने की बात सही ठहरती है और न भारतीयों का डीएनए एक होने की बात सही ठहरती है। आधुनिक पुरातत्व विज्ञान ने भारत में मिली आदिम खोपड़ियों से छः प्रकार के डीएनए की पहचान की है- नीग्रेटो, प्रोटोऑस्ट्रेलॉयड, मंगोलायड, मेडिटेरियन द्रविड़, वेस्टर्न ब्रेचीसेफल्स तथा नॉर्डिक। इन छः प्रकार के आदिम डीएनए से मुण्डा, संथाल, द्रविड़, निषाद, कोल और किरात आदि जनसमुदायों की उत्पत्ति हुई है। आर्य-जनसमुदाय छः प्रकार के आदिम डीएनए से अलग है। अतः विज्ञान इस बात की पुष्टि नहीं करता कि भारतीयों का डीएनए एक है।

यदि कन्वर्टेड मुसलमानों एवं कन्वर्टेड ईसाइयों को लक्ष्य करके हिन्दुओं, मुसलमानों एवं ईसाइयों के डीएनए का उद्गम एक ही मान लिया गया है, तो भी भारत के विगत 1400 साल के इतिहास के आधार पर यह अवधारणा गलत सिद्ध होती है कि समस्त भारतीयों का डीएनए एक है। हिन्दुओं के डीएनए का मूल हिस्सा आर्य, द्रविड़, मंगोल, मुण्डा तथा संथाल आदि आदिम जनजातीय समूहों से आया है। उसमें ईरानी एवं यूनानी आर्यों का डीएनए भी मिश्रित है। मुसलमानों के डीएनए में अरब, मेसोपोटामिया (ईराक), पर्शिया (ईरान) तथा अफगानिस्तान से आए हुए डीएनए का मिश्रण है जिसमें कुछ हिस्सा हिन्दुओं से कन्वर्टेड मसुलमानों का भी है। आज के भारतीय ईसाइयों के डीएनए में यूरोप के इंग्लैण्ड, फ्रांस, स्पेन, नीदरलैण्ड तथा पुर्तगाल आदि देशों से आया हुआ डीएनए शामिल है। पारसियों का डीएनए तो मूलतः ईरान से ही आया है।

हम भारतीयों के ज्ञान का आदिस्रोत वेद है, अतः इस संदर्भ में वेदों को भी देखा जाना चाहिए। वेदों में डीएनए के एक होने की अवधारणा नहीं है। वहाँ देवों, दस्युओं एवं आर्यजनों की चर्चा है। वेद डीएनए के एक होने की नहीं, मन, विचारों और चेष्टाओं के एक होने की बात कहता है।

ऋग्वेद कहता है- ‘समानी व आकूतिः समाना हृदयानी वः।’ (ऋग्वेद 10/191) अर्थात्- हमारी अभिव्यक्ति एक जैसी हो, हमारे अन्तःकरण एक जैसे हों। ‘समानो मन्त्रः समितिः समानी समानं मनः सहचित्तमेषाम्।’ (ऋग्वेद 8/49/3) अर्थात्- मिलकर कार्य करने वालों का मन्त्र समान होता है। चित्त सहित इनका मन समान होता है। ‘संगच्छध्वं संवदध्वं सं वो मनांसि जानताम्।’ (ऋग्वेद 10/191/2) अर्थात्- हम सब एक साथ चलें, आपस में संवाद करें, हमारे मन एक हों। इस प्रकार वेदों में डीएनए जैसे किसी विचार की अवधारणा नहीं है।

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यदि भारत के संविधान पर दृष्टिपात करें तो हम पाते हैं कि किसी को भी भारत की नागरिकता डीएनए के आधार पर नहीं मिली, संविधान के आधार पर मिली है। संविधान में डीएनए को किसी भी तरह व्याख्यायित नहीं किया गया है, चर्चा तक नहीं की गई है। अतः वैज्ञानिक, ऐतिहासिक, अध्यात्मिक, राजनीतिक किसी भी स्तर पर समस्त भारतीय एक ही डीएनए समूह से निकले हुए दिखाई नहीं देते। यह भी विचारणीय है कि डीएनए भारतीयों के लिए कभी समस्या या चिंतन का विषय नहीं रहा। हो सकता है कि इस चिंतन का उद्देश्य राष्ट्रीय एकता स्थापित करना हो किंतु डीएनए के आधार पर यह एकता स्थापित करना एक दूर की कौड़ी है।

यदि डीएनए एकता का आधार होता तो कौरवों और पाण्डवों में एकता स्थापित हो ही गई होती। कंस और भगवान श्रीकृष्ण का डीएनए एक ही था। आतताई रावण और धर्मात्मा विभीषणजी का डीएनए भी एक ही था। हिरणाकश्यपु और भक्तराज प्रहलाद का डीएनए भी एक ही था। भारत में रह गए और पाकिस्तान चले गए मुसलमानों का डीएनए भी एक ही था।

अब इसके उलटे उदाहरण देखते हैं। समान डीएनए वाली माता कैकेई ने रामजी को वनवास दे दिया। जबकि असमान डीएनए वाले रामजी ने जटायु की अंत्येष्टि इस भाव से की जिस प्रकार कोई पुत्र अपने पिता की अंत्येष्टि करता है- ‘तेहि की क्रिया जथोचित निज कर कीन्ही राम।’ उन्हीं रामजी ने अलग डीएनए वाली शबरी के झूठे बेर खाए।

मध्यकाल में दिल्ली के सुल्तान गयासुद्दीन तुगलक और सिकन्दर लोदी की माताएं हिन्दू स्त्रियाँ थीं किंतु इन दोनों सुल्तानों ने भारत की हिन्दू प्रजा पर जो अत्याचार किए उनका खूनी भारतीय इतिहास की पुस्तकों में भलीभांति अंकित है। मुगल बादशाह जहांगीर की माता हिन्दू थी। उसके पुत्र शाहजहाँ की माता भी हिन्दू स्त्री थी। इस प्रकार औरंगजेब की दादी और परदादी दोनों हिन्दू थीं। इन तीनों बादशाहों ने देश की बहुसंख्य हिन्दू प्रजा पर जो अत्याचार किए, उनसे कौन परिचित नहीं है। इन सबकी हड्डियों में हिन्दुओं का डीएनए था। फिर वे हिन्दुओं के प्रति सहानुभूति क्यों नहीं रख सके?

यदि इसका उलटा करके देखें तो खानखाना अब्दुर्रहीम, सयैद रसखान और चांदबीबी की माताएं हिन्दू नहीं थीं किंतु इन तीनों ने भगवान श्रीकृष्ण की भक्ति करके भारत की बहुसंख्य प्रजा को श्रीकृष्ण भक्ति पर अटल रहने का मार्ग दिखाया। उपरोक्त उदाहरणों के आधार पर यदि यह कहा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी कि भगवान और उनके भक्त का डीएनए एक होता है, न कि विरोधी विचारों वाले माता और पुत्र का!

कुछ ही वर्ष पहले भारत के प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी तथा इजराइल के प्रधानमंत्री नेतन्याहू के बीच जो स्वागत-मिलन हुआ, उस दृश्य की सुगंध वैसी ही प्रसन्नतादायक थी जैसी रामजी और भरतजी के मिलाप के समय रही होगी। निश्चय ही भारत और इजराइल के प्रधानमंत्रियों का डीएनए एक नहीं है, और इससे दोनों देशों के सांस्कृतिक प्रेम की सुगंध मंद नहीं हो जाती!

कहने का आशय केवल इतना है कि डीएनए कभी भी एकता स्थापित करने के उद्देश्य को पूरा नहीं कर सकता। डीएनए की एकता के बिना भी वह उद्देश्य पूरा हो सकता है और एक ही डीएनए के बीच कौरव-पाण्डवों जैसी शत्रुता स्थापित हो सकती है। खोखले नारों से देश की एकता कभी स्थापित नहीं हो सकती। डीएनए की एकता भी एक खोखला नारा प्रतीत होता है। भारत के जनसामान्य में डीएनए किसी भी प्रकार के चिंतन का आधार नहीं है!

जवाहरलाल नेहरू से लेकर इंदिरा गांधी तक के प्रधानमंत्रित्व काल में भारत में राष्ट्रीय एकता के उद्देश्य से कुछ बातें इस प्रकार कही जाती थीं- लहू का रंग एक है; अनेकता में एकता – हिन्द की विशेषता; कश्मीर से कन्याकुमारी तक भारत एक है। हम जानते हैं कि ऊपरी तौर पर ये नारे ठीक ही दिखते थे किंतु भीतर से ये तीनों नारे खोखले थे। लहू का रंग तो चोर और सिपाही का भी एक ही होता है; चूहे और बिल्ली का भी एक ही होता है। जिस कश्मीर की बात कही गई है, उसमें से अधिकतर हिस्सा पाकिस्तान एवं चीन के पास जा चुका है। ‘अनेकता में एकता’ वैसी ही बात है जैसे गुलाब की झाड़ी पर गुलाब और कांटे दोनों होते हैं और कोई व्यक्ति इस आधार पर गुलाब और कांटों के गुणों में एकता स्थापित करने का प्रयास करे!

वर्ष 1947 तथा उसके बाद हमारे देश के तीन टुकड़े हो जाने के बाद आज भी विभाजनकारी शक्तियाँ देश को खण्ड-खण्ड करने पर तुली हुई हैं। अतीत में अमर हो गए लाला लाजपत राय, सरदार भगतसिंह, हरगोबिंद खुराना और आज के खालिस्तान समर्थकों का डीएनए भी एक ही है। क्या उनके जीवन मूल्यों में कहीं-कोई साम्य है? डीएनए ढूंढने से तो गुमराह होने की दिशा प्राप्त होगी।

कड़वी सच्चाई यह है कि जब तक देश में रहने वाले लोगों के जीवन मूल्य एक नहीं होंगे तब तक देश में एकता का स्थापित होना आकाश-कुसुम प्राप्त करने की कल्पना ही बना रहेगा। डीएनए जीवन मूल्यों का निर्माण नहीं करता! हमारा अभीष्ट डीएनए नहीं, हमारा अभीष्ट है- वन्दे मातरम्, भारत माता की जय, जयहिन्द, जय भारत।

डीएनए की परख राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में कोई मायने रखती हो, ऐसा लगता नहीं है। राष्ट्रीय एकता के संदर्भ में डीएनए को ढूंढना तो गुमराह होकर वास्तविक समस्या से दूर हो जाने जैसा है!

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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