Thursday, November 21, 2024
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अध्याय-31 – जगद्गुरु शंकराचार्य एवं उनका दर्शन

रास्ते में पड़े चिथड़ों से बनी झोली या गुदड़ी से काम चला लिया, पुण्य-अपुण्य से परे विशेष जीवन-मार्ग अपना लिया, न मैं हूं, न तुम हो, न ही यह संसार है यह जान लिया, तब फिर किस बात शोक किया जाये।  -आदि जगत्गुरु शंकराचार्य।

वेदों की रचना लगभग ई.पू. 1000 तक पूर्ण हो चुकी थी। उनके बाद ब्राह्मण ग्रंथों, आरण्यकों, उपनिषदों एवं सूत्रों की रचना हुई। इन्हें वेदों का ही भाग माना जाता है। ब्राह्मणों के परिशिष्ट ‘आरण्यक’ कहलाते हैं और उनके अन्तिम भाग ‘उपनिषद’ हैं। उपनिषदों को वेदांत कहा जाता है क्योंकि ये वेदों का अंतिम भाग हैं। उपनिषद् बहुत सारे थे तथा इनमें भिन्न-भिन्न मत प्रस्तुत किए गए थे।

इन्हें स्वतंत्र रूप से समझ पाना कठिन था। ई.पू. 500 से ई.पू. 200 के बीच महर्षि बादरायण ने उपनिषदों के तत्त्व ज्ञान को व्यवस्था करने के उद्देश्य से ‘वेदान्तसूत्र’ की रचना की जिसे ‘ब्रह्मसूत्र’ भी कहते हैं। श्रीमद्भगवत् गीता को बादरायण के ब्रह्मसूत्र का ही विकास मानना चाहिए। ई.700 के लगभग महर्षि गोडपाद ने माण्डूक्य उपनिषद पर कारिकाएं लिखकर बादरायण के मत को आगे बढ़ाया। गोडपाद की कारिकाओं पर बौद्ध विचारों का प्रभाव दिखाई देता है। गौडपाद के शिष्य गोविन्द; और गोविन्द के शिष्य शंकराचार्य हुए। शंकराचार्य ने वेदान्त का परिष्कृत एवं परिपक्व रूप प्रस्तुत किया।

शंकराचार्य का जीवन परिचय

शंकराचार्य का जन्म

शंकराचार्य के शिष्यों ने शंकर के जन्म के विषय में अनेक बातें प्रसारित कर रखी हैं जिनके कारण उनके जन्म की सही तिथि प्राप्त करना कठिन है। कतिपय हिन्दू शास्त्र आदिशंकर का जन्म ई.पू.507 में तथा निधन ई.पू.475 में होना बताते हैं किंतु यह तिथि इतिहास सम्मत नहीं है।

विभिन्न स्रोतों से प्राप्त समसामयिक तथ्यों के आधार पर यह स्थिर किया गया है कि शंकर का जन्म ई.788 में केरल के मलाबार में अलवाए नदी के किनारे स्थित कालाड़ी (इसे कालटी अथवा काषल भी कहते हैं) गांव के नम्बूदिरी ब्राह्मण परिवार में हुआ। उनके पिता का नाम शिवगुरु और माता का नाम आर्याम्बा था। कुछ स्रोत इनकी माता का नाम सुभद्रा बताते हैं। जब शंकर तीन वर्ष के हुए तब उनके पिता का देहांत हो गया। उनका पालन-पोषण उनकी माता ने किया। प्रतिवर्ष वैशाख शुक्ल पंचमी को शंकराचार्य जयंती मनाई जाती है।

शंकराचार्य की शिक्षा

माता आर्यम्बा ने पुत्र शंकर को गोविन्द स्वामी से शिक्षा दिलवाई। शंकर अत्यंत मेधावी तथा अद्भुत प्रतिभाशाली बालक थे। मान्यता है कि केवल छः वर्ष की आयु में ही उन्होंने वेद, पुराण, उपनिषद्, रामायण, महाभारत आदि ग्रंथ कंठस्थ कर लिए। आठ वर्ष की आयु में वे शिक्षा पूरी करके घर लौट आए।

संन्यास

माता उनका विवाह करना चाहती थीं किंतु किसी ज्योतिषि ने बताया कि शंकर अल्पायु होंगे। इसलिए शंकर ने विवाह के स्थान पर संन्यास लेने का निर्णय लिया किंतु माता उन्हें एकमात्र पुत्र होने के कारण संन्यासी बनने की आज्ञा नहीं देती थीं। एक दिन नदी किनारे स्नान करते समय एक मगरमच्छ ने शंकर का पैर पकड़ लिया।

तब शंकर ने माँ से कहा कि मुझे संन्यास लेने की आज्ञा दो अन्यथा मगरमच्छ मुझे खा जाएगा। भयभीत माता ने उन्हें संन्यासी होने की आज्ञा दे दी और मगरमच्छ ने शंकर का पैर छोड़ दिया। माता ने उनसे वचन लिया कि वे माता की मृत्यु के समय अवश्य आएंगे। शंकर ने गोविन्द स्वामी से संन्यास ग्रहण किया। जब कुछ वर्ष पश्चात् माता की मृत्यु का समय हुआ तो शंकर स्वतः ही माता के समक्ष उपस्थित हुए तथा उन्हें मुखाग्नि दी।

शंकर के शास्त्रार्थ

शंकर कुछ समय के लिए काशी में रहे तथा वहाँ अनेक विद्वानों को शास्त्रार्थ में परास्त किया। इसके बाद शंकर ने वेदान्त दर्शन के प्रचार के लिए देश के विभिन्न भागों में घूमना आरम्भ किया। शंकर ने मीमांसकों, चार्वाकों, जैनियों एवं बौद्धों से शास्त्रार्थ किया और उन्हें स्थान-स्थान पर परास्त किया। उनमें से बहुत से विधर्मियों ने शंकर का शिष्य बनना स्वीकार कर लिया।

बिहार के माहिष्मती क्षेत्र के प्रसिद्ध मीमांसक मण्डन मिश्र से हुआ उनका शास्त्रार्थ अत्यधिक प्रसिद्ध है। जब शंकराचार्य ने मण्डन मिश्र को परास्त कर दिया तब मंडन मिश्र की पत्नी भारती ने शंकराचार्य को शास्त्रार्थ हेतु चुनौती दी। मान्यता है कि भारती ने शंकर से ‘काम’ पर शास्त्रार्थ करना चाहा।

इस पर शंकर ने परकाया प्रवेश करके इस विषय का ज्ञान प्राप्त किया तथा भारती से शास्त्रार्थ कर उसे परास्त किया। मंडन मिश्र एवं भारती ने शंकराचार्य को अपना गुरु मान लिया तथा वे भी शंकराचार्य की आज्ञा से अद्वैत दर्शन के प्रचार में जुट गए।

शंकराचार्य ने चिदम्बरम से काश्मीर, केदार और बद्रिकाश्रम तक और द्वारिका से काशी और जगन्नाथपुरी तक अनेक पण्डितों और दार्शनिकों को परास्त करके अपने मत में सम्मिलित किया। बौद्ध उन्हें अपना शत्रु समझते हैं, क्योंकि उन्होंने बौद्धों को कई बार शास्त्रार्थ में पराजित करके वैदिक धर्म की पताका फहराई। आनन्दगिरि रचित ‘शंकर विजय’ और माधव द्वारा रचित ‘शंकर दिग्विजय’ में शंकराचार्य की यात्राओं और शास्त्रार्थों का विस्तृत वर्णन हुआ है।

शंकरचार्य के ग्रंथ

शंकराचार्य देश-व्यापी यात्रा और शास्त्रार्थ करते हुए निरन्तर लेखन भी करते रहे। उन्होंने अनेक भाष्य, प्रकरण तथा स्तोत्र ग्रन्थों की रचना की तथा सौन्दर्य लहरी एवं विवेक चूड़ामणि जैसे श्रेष्ठ ग्रंथ लिखे। उन्होंने ब्रह्मसूत्र, भगवद्गीता और ईश, केन, कठ, प्रश्न, मुण्डक, मांडूक्य, ऐतरेय, तैत्तिरीय, बृहदारण्यक, प्रस्थान त्रयी एवं छान्दोग्य उपनिषदों पर भाष्य लिखे। उन्होंने ब्रह्मसूत्र की विशद और रोचक व्याख्या की।

उन्होंने उपदेश सहस्री, आत्मबोध, आनन्द लहरी, दक्षिणामूर्ति, शिवापराधक्षमापण, हस्तामलक आदि स्तोत्रों और काव्यों की रचना की। शंकराचार्य ने शिव, पार्वती, गणेश, विष्णु आदि देवी-देवताओं के भक्ति-रस से परिपूर्ण स्तोत्र रचे। शंकर के लिखे ‘भजगोविन्दम्’ भजन ने अत्यधिक प्रसिद्धि प्राप्त की। उनकी तार्किक प्रतिभा, दार्शनिक प्रगल्भता और कवित्व-शक्ति ने देश में नई चेतना एवं स्फूर्ति का संचार किया।

उस युग में उनके जैसा लेखन-चातुर्य और प्रचार-कौशल किसी अन्य विद्वान ने प्रदर्शित नहीं किया। मान्यता है कि उन्होंने केवल सोलह वर्ष की आयु में ब्रह्मसूत्र पर शांकरभाष्य की रचना करके विद्वत् समाज को चकित कर दिया।

शंकराचार्य के सांगठनिक कार्य

शंकराचार्य उच्च-कोटि के संगठनकर्ता थे। उन्होंने भारतवर्ष में चार दिशाओं में चार वेदांत मठों की स्थापना की- (1.) उत्तर में बद्रिकाश्रम (ज्योतिमठ), (2.) दक्षिण में शृंगेरी पीठ, (3.) पश्चिम में द्वारिका शारदा पीठ और (4.) पूर्व में पुरी गोवर्धन पीठ।

ये मठ आज भी बहुत पवित्र माने जाते हैं और इनके अध्यक्ष शंकराचार्य कहलाते हैं। ये मठ अपने-अपने क्षेत्र के मठों की व्यवस्था करते हैं। प्रत्येक प्रधान मठ के अध्यक्ष अर्थात् शंकराचार्य के नीचे सन्यासियों की दस श्रेणियां हैं- सरस्वती, भारती, पुरी, गिरि, तीर्थ, आश्रम, वन, अरण्य, पर्वत और सागर। इन्हें सम्मिलित रूप से ‘दशनामी’ कहते हैं।

ज्ञान प्राप्ति की दृष्टि से इनके चार वर्ग- ब्रह्मचारी, दण्डी, परिव्राजक और परमहंस हैं। इनमें जाति-पांति का भेद नहीं है। एक बार बनारस में एक चाण्डाल के प्रश्न करने पर शंकराचार्य ने कहा- ‘मैं प्रत्येक व्यक्ति को जो संसार को अद्वैत दृष्टि से देखता है अपना गुरु मानता हूँ, चाहे वह चाण्डाल हो या द्विज।’ इससे स्पष्ट है कि शंकराचार्य ने अपने संगठन में वर्ण, आश्रम और लिंग के भेद को कोई स्थान नहीं दिया। देश की चार दिशाओं में चार आश्रमों की स्थापना के करके शंकर ने देश को एक जैसी धार्मिक संस्कृति देने का प्रयास किया।

वामाचार का निषेध

शंकराचार्य ने वेदांत दर्शन का प्रचार किया तथा गर्हित धर्माचार का निषेध किया। उन्होंने अनेक मंदिरों एवं मठों में होने वाली शाक्तों, तात्रिकों, भैरवों, कापालिकों तथा पाशुपतों की मलिन क्रियाएं बन्द करवा दीं। शंकर ने कांची के देवी मन्दिर में नर-बलि का प्रबल विरोध किया और उसे बन्द करवाया।

अद्भुत समन्वय क्षमता

शंकर में दूसरों को प्रभावित करने की अद्भुत प्रतिभा थी। वे दार्शनिक विचारों के समन्वय के पक्षधर थे। उन्होंने मीमांसा का खण्डन किया किंतु वैदिक रीतियों में अगाध श्रद्धा प्रकट की। बौद्धों का विरोध किया किंतु बुद्ध को योगियों का चक्रवर्ती बताया। शंकर ने बौद्ध धर्म के बहुत से विचारों को मान्यता दी जिनके कारण रूढ़िवादी लोग उन्हें ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ कहने लगे।

शंकर ने ब्रह्मज्ञान का प्रचार किया किंतु सूर्य, शक्ति, विष्णु, शिव और गणेश की पूजा को भी स्वीकार किया। इस प्रकार शंकराचार्य ने ज्ञान और भक्ति दोनों को मान्यता देकर भारतीय जन-मानस को व्यापक रूप से अपनी ओर आकर्षित किया। वर्तमान समय में भी हिन्दू-धर्म के प्रत्येक पक्ष पर शंकराचार्य की गहरी छाप है। शंकराचार्य के निधन के बाद उनके शिष्य शिवसोम ने काम्बुज देश (वर्तमान कम्बोडिया) में शंकर के अद्वैत मत का प्रचार किया।

शंकर का निधन

शंकरचार्य का निधन केवल 32 वर्ष की आयु में हुआ। उन्होंने केदारनाथ धाम में अपनी देह का त्याग किया। स्मार्त संप्रदाय में उन्हें शिव का अवतार माना जाता है। उन्हें आदिशंकराचार्य एवं जगत्गुरु भी कहा जाता है।

शंकराचार्य का दर्शन

शंकराचार्य का अद्वैतवाद

शंकराचार्य भारत के महान दार्शनिक एवं धर्म-प्रवर्तक थे। शंकराचार्य का दर्शन आत्मा और परमात्मा की एकरूपता पर आधारित है। इस दर्शन के अनुसार परमात्मा एक ही समय में सगुण और निर्गुण दोनों स्वरूपों में विद्यमान रहता है। उन्होंने अद्वैत वेदान्त को ठोस दार्शनिक आधार प्रदान किया तथा सनातन धर्म की विविध दार्शनिक धाराओं का एकीकरण किया।

उन्होंने अनुभव किया कि ज्ञान की अद्वैत भूमि पर जो परमात्मा निर्गुण निराकार ब्रह्म है, वही द्वैत की भूमि पर सगुण साकार है। उन्होंने निर्गुण और सगुण दोनों का समर्थन करके निर्गुण तक पहुँचने के लिए सगुण की उपासना को अपरिहार्य सीढ़ी माना। ज्ञान और भक्ति की मिलन भूमि पर यह भी अनुभव किया कि अद्वैत ज्ञान ही सभी साधनाओं की परम उपलब्धि है।

ब्रह्म का स्वरूप

शंकराचार्य का मानना था कि सृष्टि की ‘विविधता’ के मूल में ‘एकता’ विद्यमान है। अलग-अलग दिखाई देने वाली वस्तुएं एक ही सत्ता के विभिन्न रूप हैं। यह सत्ता अनन्त, सत्य और ज्ञान है। इसमें चैतन्य और आनन्द निहित है। यह देश, काल और अवस्था से परे है। इसे नाम, गुण और विशेषणों की सीमा में नहीं बांधा जा सकता। इसे ‘ब्रह्म’ कहते हैं।

‘ब्रह्म’ में निहित शक्ति के कारण इसके अनेक रूप दिखाई देते हैं। इस शक्ति का नाम ‘प्रकृति’ या ‘माया’ है। यह ब्रह्म में इस तरह है जैसे आग में जलाने की क्षमता किंतु इसे ब्रह्म का अंग नहीं कहा जा सकता, क्योंकि ऐसा करने से ब्रह्म भी सीमित या परिवर्तनशील या नाशवान् मानना पड़ेगा जो कि उसके स्वरूप के विपरीत है। वह तो केवल ब्रह्म की एक शक्ति है जिससे वह एक होते हुए भी अलग-अलग रूपों में दिखाई देता है। ये ब्रह्म के वास्तविक रूप नहीं है किंतु वास्तविक जैसे आभासित होते हैं। इन्हें ‘विवर्त’ कहा जाता है।

माया का अर्थ

शंकराचार्य ‘माया’ को ‘कारण’ या ‘शक्ति’ मानते हैं जिससे ब्रह्म के बहुत से अलग-अलग रूप दिखाई देते हैं। अर्थात् इससे बहुगुणी विश्व के बनने, बढ़ने और बिगड़ने की क्रिया चलती है। इसे ‘अव्यक्त प्रकृति’ भी कहा जा सकता है जिससे व्यक्त संसार चलता है। दूसरे शब्दों में यह ‘माया’ प्रकृति का पर्याय है जो समस्त वस्तुओं को प्रकट करती है। माया के कारण यह सृष्टि परिवर्तनशील है। सारांश यह है कि ‘ब्रह्म’ एक होता हुआ भी ‘माया’ के कारण बहुत से रूपों में दिखाई देता है।

जगत् का स्वरूप

शंकराचार्य ने जगत् का स्वरूप बताते हुए लिखा है- ‘नामरूपाभ्यां व्यक्तस्य अनेककर्तृभोक्तृसंयुक्तस्य प्रतिनियत देशकालनिमित्तक्रियाफलाश्रयस्य मनसापि अचिन्त्यरचनारूपस्य जन्मस्थितिभंगंयतः।’

अर्थात्- नाम एवं रूप से व्यक्त, अनेक कर्ता, अनेक भोक्ता से संयुक्त, जिसमें देश, काल, निमित्त और क्रियाफल भी नियत हैं, जिस जगत् की सृष्टि की मन से भी कल्पना नहीं कर सकते, उस जगत् की उत्पत्ति, स्थिति तथा लय ब्रह्म से होती है।

ब्रह्म और जगत की अभिन्नता

माया के द्वारा हमें ब्रह्म के अनेक रूप दिखाई देते हैं तथा ये विभिन्न रूप ब्रह्म की एकता को ढक लेते हैं। इसे ‘आवरण’ कहते हैं और इसका नाम ‘विक्षेप’ है। इससे ऐसा लगने लगता है कि वे ही सत्य हैं। ब्रह्म अपने आप में एक, और समस्त रूपों से परे है किंतु ‘माया’ का आश्रय होने से उसे ‘ईश्वर’ कहा जाता है। माया के कारण ब्रह्म सूक्ष्म रूपों में दिखाई देता है। सूक्ष्म रूपों का आधार होने से ब्रह्म ‘हिरण्यगर्भ’ कहलाता है।

माया के कारण ब्रह्म स्थूल रूपों में भी दिखाई देता है। स्थूल रूपों का आधार होने से ब्रह्म ‘वैश्वानर’ कहलाता है। सूक्ष्म रूपों का आर्विभाव इस क्रम में होता है- आकाश, वायु, अग्नि, जल और पृथ्वी। फिर इन पांचों का पांच तरह से मेल होता है, जिससे स्थूल रूप बनते हैं। जब आधे में आकाश और आधे में बाकी चारों रूप होते हैं तो स्थूल आकाश बनता है। जब आधे में वायु और आधे में बाकी चारों रूप होते हैं तो स्थूल वायु बनता है। इसी प्रकार स्थूल अग्नि, स्थूल जल और स्थूल पृथ्वी बनते हैं। इस क्रिया को ‘पंचीकरण’ कहते हैं।

जीव का स्वरूप

शंकराचार्य के अनुसार जीव ‘अज्ञान व्यष्टि की उपाधि’ से युक्त है। शंकराचार्य की दृष्टि में सम्पूर्ण जगत् के जीवों को ब्रह्म के रूप में स्वीकार करना चाहिए।

ब्रह्म परमार्थ सत्य व जगत व्यावहारिक सत्य

बहुत से दार्शनिक जगत को मिथ्या मानते हैं जिसका कोई अस्तित्त्व नहीं है। शंकराचार्य ऐसा नहीं मानते। वे कहते हैं कि ब्रह्म और जगत अभिन्न हैं, ब्रह्म परमार्थ रूप में सत्य है और जगत व्यावहारिक रूप में सत्य है। यह अवश्य है कि जगत् बिना ब्रह्म के सत्य नहीं है किंतु यह भी सत्य बात है कि जगत ब्रह्म का ही रूप है, और वह सत्य है।

इसलिए ब्रह्मसूत्र स्पष्ट कहता है कि जगत् असत् नहीं है। शंकराचार्य स्वयं लिखते हैं कि तरह-तरह के नामों और रूपों वाली चीजों की सत्ता है, यद्यपि वे अपने आप में पूरी न होने के कारण सत्य नहीं कही जा सकतीं क्योंकि सत्य से उस चीज का बोध होता है जो अपने आप में पूरी हो। जिस प्रकार भूत, वर्तमान और भविष्य तीनों कालों में ब्रह्म की सत्ता बनी रहती है, वैसे ही तीनों कालों में जगत भी बना रहता है।

अतः स्पष्ट है कि शंकर जगत को व्यावहारिक सत्य मानते हैं, केवल कल्पना नहीं समझते। कहने का तात्पर्य यह है कि यदि परमार्थ की दृष्टि से विचार किया जाए तो ब्रह्म ही सत्य है, इसके अतिरिक्त और कुछ है ही नहीं किन्तु यदि व्यावहारिक दृष्टि से विचार किया जाए तो जगत भी सत्य है। शंकर का मत है कि प्रत्येक कार्य, कारण का ही रूप है या उसकी अवस्था है। इसलिए जीव और जगत दोनों में ब्रह्म दिखाई देता है, जबकि दोनों उसके रूप हैं। दोनों में चैतन्य रहता है- जीव में व्यक्त रूप से एवं जगत में अव्यक्त रूप से।

अनन्त और सीमित ब्रह्म

ब्रह्म के विभिन्न रूप देश, काल, गुण और आकार की सीमाओं में बंधे हुए हैं। सामान्य तौर पर इन्हें परछाई की उपमा से समझाया जा सकता है। अर्थात् जल में जैसे चन्द्र की परछाई दिखाई देती है, उसी तरह संसार में जीव भी ब्रह्म की छायाएं हैं किंतु ऐसा मानने में कठिनाई यह है कि जैसे जल के हटने से उनमें दिखाई देने वाला चन्द्र समाप्त हो जाता है, इसी तरह अविद्या के हटने से संसार में दिखाई देने वाले जीव बिल्कुल नष्ट हो जाएंगे।

इससे बचने के लिए अद्वैतवादी एक दूसरी उपमा का सहारा लेते हैं। वे कहते हैं कि सर्वव्यापी आकाश घड़े की सीमाओं में बंधकर अलग-अलग जीवों और विषयों के रूप में प्रतीत होता है किंतु जब घड़ा फूट जाता है तो उसके अन्दर का आकाश बाहर का व्यापक आकाश बन जाता है। इसी तरह सीमाओं के समाप्त होने पर उनमें दिखाई देने वाला ब्रह्म अपने असली रूप में पहुंच जाता है। मुक्ति का यही अर्थ है कि मनुष्य सीमाओं का विचार छोड़़कर ब्रह्म को पहचाने। इस मत को ‘अवच्छेदनवाद’ कहते हैं।

मुक्ति

मुक्ति का अर्थ जगत् के परिवर्तनशील रूपों के पीछे ब्रह्म की एकता को पहचानना है। इसलिए ‘मुक्ति’ ज्ञान की अवस्था है और इसी जीवन में प्राप्त हो सकती है। मुक्ति पाकर भी मनुष्य जीवित रहता हुआ अपने दैनिक कर्म करता रह सकता है।

शंकर लिखते हैं कि व्यास, वसिष्ठ, भृगु, नारद आदि ऋषि मुक्ति के बाद भी अपने-अपने काम करते रहे। इसलिए मुक्ति का अर्थ यह नहीं समझना चाहिए कि जीवन समाप्त हो जाए अपितु इसका आशय यह है कि हम सही ज्ञान से जगत में इनके पीछे जो ब्रह्म मौजूद है उसे पहचानें। ऐसा करने से आसाक्ति, तृष्णा, और दुःख अपने आप नष्ट हो जाते हैं। वेदान्ती इसे ‘जीवन मुक्ति’ कहते हैं।

नैतिक आचरण पर बल

यह ज्ञान प्राप्त करने के लिए अच्छे आचरण की आवश्यकता है। जिन कर्मों से इसकी प्राप्ति में मदद मिलती है, वे पुण्य हैं और जिनसे इसमें बाधा पहुँचती है, वे पाप हैं। सत्य, अहिंसा, दया एवं परोपकार आदि पुण्यकर्म हैं और झूठ, हिंसा, अत्याचार आदि पाप हैं। पाप वही व्यक्ति करता है जो शरीर या इन्द्रिय को नित्य मानकर उसकी संतुष्टि की चेष्टा करता है। जो ऐसा नहीं मानता और इनके पीछे के ब्रह्म को जानता है, वह समस्त संसार को एक-समान समझता है।

उसके अन्दर सर्वात्मभाव होता है और मन में अपने-पराये का भेद नहीं रहता। वह स्वयं को औरों में एवं औरों को स्वयं में अनुभव करता है। इसलिए उसके हर कार्य में सच्चाई, अहिंसा और परोपकार का भाव होता है, उससे पाप हो ही नहीं सकता। इस प्रकार वेदान्त मनुष्य को उच्च नैतिक आचार की ओर ले जाता है, जिसका आधार विद्या और ज्ञान है।

क्या शंकराचार्य इस्लाम से प्रभावित थे?

डॉ. ताराचन्द की पुस्तक ‘इन्फ्लुएन्स ऑफ इस्लाम ऑन इण्डियन कल्चर’ के अनुसार शंकराचार्य इस्लामी प्रभाव से आविर्भूत हुए। प्रोफेसर हुमायँ कबीर ने हिन्दु-मुस्लिम एकता के उद्देश्य से ‘अवर हेरिटेज’ नामक पुस्तक लिखी। उनके अनुसार भी शंकर इस्लाम से प्रभावित थे। उसके बाद के बहुत से लेखकों ने डॉ. ताराचन्द तथा हुमायँ कबीर को उद्धृत करते हुए इस सिद्धांत को बार-बार दोहराया।

इन लोगों द्वारा ऐसा कहने का आधार यह है कि इस्लाम और शंकर दोनों ही एकेश्वरवाद में विश्वास करते हैं। जबकि वे इस तथ्य को भूल जाते हैं कि इस्लाम के जन्म से हजारों साल पहले लिखे गए वेदों में अनेक देवताओं की पूजा किए जाने पर भी एक ही परम-सत्ता अथवा एक ही ब्रह्म अथवा एक ही विराट पुरुष का अस्तित्व स्वीकार किया गया है। वस्तुतः शंकर का ऐकेश्वरवाद भारतीय अद्वैतवाद का ही विकसित रूप है और उसका इस्लामी एकेश्वरवाद से कोई साम्य नहीं है।

हिन्दू-मुस्लिम एकता के पक्षधर विद्वानों का कहना है कि इस्लाम ईश्वर को एक मानता है और विश्वास करता है कि सृष्टि की रचना ईश्वर ने की है, वह सातवें आकाश पर रहता है एवं उसके हृदय में भक्तों के लिए प्रेम और दुष्टों के लिए घृणा है। संसार असत्य है अर्थात् जो कुछ हम देखते हैं वह ‘कुछ नहीं में कुछ होने का आभास है’।

वास्तविकता यह है कि ये बातें इस्लाम में न तो पहले थीं और न अब हैं। यह सिद्धांत ईसा की नौवीं-दसवीं सदी के बाद सूफियों द्वारा प्रतिपादित किया गया। सूफियों को यह ज्ञान कुछ तो प्रत्यक्षतः ब्राह्मणों से और कुछ नव-अफलातूनी मत से मिला था। नव-अफलातूनी मत के प्रवर्त्तक प्लॉटिनस ने एकेश्वरवाद का सिद्धांत ब्राह्मणों और बौद्धों से प्राप्त किया था।

सूफियों के एकेश्वरवाद के सिद्धांत से अलग, शंकर का ब्रह्म, शुद्ध, बुद्ध, चैतन्य, निराकार और निर्विकार है। उसे भक्तों की चिन्ता नहीं है और न ही दुष्टों को दण्ड देने की चिंता है। शंकर के अनुसार, ईश्वर और जगत् दोनों ही सत् हैं किंतु जगत् का कारण भी ईश्वर ही है।

इस प्रकार शंकर का मत शुद्ध अद्वैत मत है किन्तु इस्लाम शुद्ध या विशिष्ट, किसी भी प्रकार के अद्वैतवाद में विश्वास नहीं करता। उसका विश्वास सिर्फ एक अल्लाह में है। सृष्टि के स्वभाव के विषय में भी कुरान का सिद्धांत शंकर के ठीक विपरीत है। अतः निश्चित रूप से कहा जा सकता है कि इस्लाम का एक अल्लाह का सिद्धांत, शंकर के अद्वैतवाद से बिल्कुल भिन्न है तथा शंकर पर इस्लाम का रंच मात्र भी प्रभाव नहीं है।

क्या शंकराचार्य प्रच्छन्न बौद्ध थे?

शंकराचार्य की दार्शनिक परम्परा की जड़ें उपनिषदों एवं ऋग्वेद के नासदीय-सूक्त तक पहुँचती हैं जिनमें जीवन और सृष्टि के विषय में मौलिक प्रश्न उठाये गए थे। उन्हीं प्रश्नों का समाधान खोजते-खोजते पहले उपनिषद, फिर बौद्ध दर्शन और अन्त में शंकर का सिद्धान्त प्रकट हुआ। शंकर के निकटतम वैचारिक-पूर्वज बौद्ध दार्शनिक थे जिन्होंने शून्यवाद की स्थापना की थी।

जो बौद्धों का शून्यवाद था, वहीं शंकर का मायावाद हुआ। शंकर ने बौद्धों से आगे बढ़कर एक तटस्थ ब्रह्म को स्थान दिया जो कि उपनिषदों के युग से चला आ रहा था। शून्यवाद को मायावाद के नाम से अपनाने के कारण ही रूढ़िवादी हिन्दू, शंकर को ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ कहते थे। शंकर ने ब्रह्म की कल्पना जिस रूप में की थी, वह भक्तों के लिए निराशाजनक थी, क्योंकि भक्तों की प्रार्थना सुनने के लिए इस ब्रह्म के कान की खिड़कियां खुली हुई नहीं थीं।

इसीलिए शांकर-मत के विरूद्ध, तीव्र प्रतिक्रिया उत्पन्न हुई और बाद के लगभग समस्त आचार्य ईश्वर के सगुण-साकार स्वरूप की ओर मुड़े। शंकराचार्य के गुरु गोविन्दाचार्य अथवा गोविंद स्वामी थे और गोविन्दाचार्य के गुरु गौडपादाचार्य थे जिन्होंने माण्डूक्योपनिषद पर कारिका लिखी थी।

इस कारिका के चतुर्थ प्रकरण के आरम्भ में उन्होंने बुद्ध की वन्दना की। संभवतः इस कारण भी कुछ रूढ़िवादी हिन्दू शंकर पर प्रच्छन्न बौद्ध होने का आरोप लगाने में तनिक भी नहीं हिचकिचाते।

शून्यवाद और मायावाद भारतीय दर्शन में उपनिषदों के युग से उपस्थित हैं। उनका ज्ञान यूनान तक भी पहुँच चुका था। बौद्ध दर्शन पर उपनिषदों के इन विचारों का प्रभाव था जिसके कारण ही बौद्धौं ने शून्यवाद का प्रतिपादन किया। शंकर ने इससे सहमति व्यक्त की और इस कारण कहा जाने लगा कि शंकर के विचारों पर पांचवीं शताब्दी ईस्वी के बौद्ध-दार्शनिक वसुबन्धु का प्रभाव है और वे ‘प्रच्छन्न बौद्ध’ हैं।

यह कभी नहीं भूलना चाहिए कि शंकर ने अनेक बौद्ध शास्त्रार्थियों को परास्त किया तथा प्रत्येक शास्त्रार्थ में बौद्ध दर्शन का खण्डन किया किंतु साथ ही बौद्धों के दर्शन की अच्छी बातें अपने दर्शन में सम्मिलित कीं जिससे बौद्ध धर्म की आवश्यकता ही समाप्त हो गई।

प्रसिद्ध दार्शनिक सुरेन्द्रनाथ दास ने भारतीय दर्शन परिषद के स्मारक ग्रन्थ में लिखा है कि नागार्जुन शून्यवादी थे। नागार्जुन का मानना था कि संसार में किसी भी वस्तु की सत्ता नहीं है। ‘कुछ नहीं में कुछ होने का भ्रम’ होता है। न तो कोई वस्तु उत्पन्न होती है, न नष्ट होती है।

लंकावतार-सूत्र का दर्शन यद्यपि विज्ञानवादी है तब भी वह नागार्जुन का ही दर्शन है। यह दर्शन भी मानता है कि हम जो कुछ देख रहे हैं, वह अपनी मानस-तरंग के कारण है। वस्तुतः बाह्य जगत से उसका कोई सम्बन्ध नहीं है। क्योंकि जगत सत्य है ही नहीं। इसी विचार को मैत्रैय और असंग ने आगे बढ़ाया तथा वसुबन्धु ने उसका विस्तार किया।

शंकर ने उपनिषदों का जो वेदान्ती भाष्य किया, उसकी नींव वसुबन्धु के दर्शन में डाली जा चुकी थी। शंकर ने ब्रह्म को ही एकमात्र सत्य मानते हुए भी जगत् की भी सत्ता स्वीकार की है तथा उसे व्यावहारिक सत्य माना है जो उन्हें बौद्धों के शून्यवाद से अलग करता है।

निष्कर्ष

उपरोक्त तथ्यों के आलोक में कहा जा सकता है कि शंकर का मत अपने आप में पूर्ण स्वतंत्र है, उस दर्शन का आधार वेदांत अर्थात् उपनिषद हैं, न कि इस्लाम या बौद्ध धर्म। शंकर ने भारतीय संस्कृति, धर्म-दर्शन एवं अध्यात्म को जितना प्रभावित किया, उतना बहुत कम दार्शनिक कर पाए हैं। उन्होंने आने वाली सदियों के लिए हिन्दू-धर्म को पूरी तरह से बदल दिया। आने वाले युगों के दार्शनिक शंकर का खण्डन या मण्डन करके ही नए दार्शनिक सिद्धांतों का प्रतिपादन कर सकते थे।

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