जहाँदारशाह मरहूम बादशाह शाहआलम प्रथम (बहादुरशाह प्रथम) का सबसे बड़ा पुत्र था जिसने अपने भाइयों को हराकर मुगलिया तख्त पर अधिकार कर लिया। वह इतना अय्याश किस्म का आदमी था कि उसने लाल किले को नृत्यांगनाओं का अड्डा बना दिया!
24 फरवरी 1712 को बहादुरशाह की मृत्यु हो गई। उसके चार पुत्र थे- जहाँदारशाह, अजीमुश्शान, रफ़ीउश्शान और जहानशाह। जैसे ही बहादुरशाह की मृत्यु हुई, उसके दो पुत्रों जहाँदारशाह तथा अजीमुश्शान ने स्वयं को बादशाह घोषित कर दिया।
बहादुरशाह के पुत्रों में से जहाँदारशाह सबसे बड़ा था। उसका वास्तविक नाम मिर्जा मुइज्जुद्दीन बेग मुहम्मद खान था। उसका जन्म 9 मई 1661 को दक्षिण भारत में हुआ था। उसकी माँ निजामबाई हैदराबाद के शिया अमीर फतेहयार की बेटी थी।
जहाँदारशाह की बुआ जीनत उन्निसा जहाँदारशाह को बिल्कुल भी पसंद नहीं करती थी और प्रायः बादशाह औरंगजेब के समक्ष जहाँदारशाह की शिकायत किया करती थी। फिर भी औरंगजेब ने अपने पोते जहाँदारशाह को ई.1671 में बल्ख का सूबेदार नियुक्त किया था। एक बार उसे सिंध का सूबेदार भी नियुक्त किया गया।
जहाँदारशाह को समुद्री मार्ग से दूर देशों के साथ व्यापार करने का बहुत शौक था और वह अपने व्यापारिक जहाजों के साथ हिंद महासागर में दूर-दूर तक घूमा करता था। इस व्यापार के कारण ही जहाँदारशाह ने बहुत पैसा कमा लिया था।
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17 मार्च 1712 को जब बहादुरशाह मर गया तो लाहौर के निकट जहाँदारशाह तथा अजीमुश्शान के बीच बड़ा युद्ध हुआ। इस युद्ध में जहाँदारशाह को अपने पिता के वजीर मीर बख्शी जुल्फिकार खाँ की सहायता प्राप्त हो गई। इस कारण जहाँदारशाह उत्तराधिकार के युद्ध में विजयी रहा। अजीमुश्शन मारा गया।
जहाँदारशाह ने अपने शेष दोनों छोटे भाइयों रफ़ीउश्शान और जहानशाह को भी मार डाला। इसके बाद 29 मार्च 1712 को जहाँदारशाह मुग़लों के तख्त पर बैठा। जिस समय जहाँदारशाह बादशाह बना, वह 51 साल का प्रौढ़ हो चुका था।
जहाँदारशाह का पहला विवाह ईरान के सफावी राजवंश की पुत्री से हुआ था। जब जहाँदारशाह की पहली बेगम का निधन हो गया तो जहाँदारशाह ने मरहूम बेगम की भतीजी सयैद उन्निसा से विवाह कर लिया। जहाँदारशाह का तीसरा विवाह अनूपबाई नामक एक हिन्दू स्त्री से हुआ था।
इन विवाहों से जहाँदारशाह को तीन पुत्र प्राप्त हुए जिनमें से अनूपबाई का पुत्र अजीजुद्दीन आगे चलकर ई.1754 से 1759 की अवधि आलमगीर (द्वितीय) के नाम से बादशाह बना। जब जहाँदारशाह बादशाह बन गया तो उसने अपनी चहेती नर्तकी लाल कुंवर से विवाह कर लिया तथा उसे इम्तियाज महल का खिताब देकर अपनी मुख्य बेगम घोषित कर दिया।
औरंगजेब के समय में एक शिया मुसलमान असद खाँ बादशाह का प्रधानमंत्री था। बहादुरशाह ने भी उसे अपना वकीले मुतलक नियुक्त किया था तथा उसके पुत्र ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ को अपना बख्शी बनाया था। चूंकि असद खाँ तथा जुल्फिकार खाँ के सहयोग से ही जहाँदारशाह बादशाह बन सका था इसलिए जहाँदारशाह ने जुल्फिकार खाँ को प्रधान मंत्री एवं उसके पिता असद खाँ को वकीले मुतलक बने रहने दिया। असद खाँ तथा जुल्फिकार खाँ दोनों ही औरंगजेब तथा बहादुरशाह के प्रति पूर्ण निष्ठावान बनकर रहे थे अतः नए बादशाह ने भी उन पर पूर्ण विश्वास कर लिया। ये दोनों ही राजकाज से लेकर युद्धों के मैदान तक कई बार अपनी विश्वसनीयता, योग्यता एवं दक्षता को सिद्ध कर चुके थे।
जिस दिन जहाँदारशाह मुग़लों के तख्त पर बैठा, उस दिन उसके पिता बहादुरशाह को मरे हुए ठीक एक माह हुआ था। तब से बहादुरशाह का शव लाहौर के दुर्ग में पड़ा था। इसलिए प्रधानमंत्री ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ ने बादशाह का शव दिल्ली मंगवाकर दफनाया। प्रधानमंत्री जुल्फिकार खाँ तथा उसका पिता असद खाँ शिया मुसलमान थे तथा मुगल दरबार में ईरानी गुट के नेता थे।
तत्कालीन इतिहासकार खफी ख़ाँ ने लिखा है कि जहाँदारशाह के दरबार में चारणों, गायकों, नर्तकों, भाटों एवं भाण्डों का बोलबाला हो गया। इस कारण शासन की बागडोर ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ के हाथों में चली गई तथा जहाँदारशाह का दरबार नृत्यांगनाओं का अड्डा बन गया।
नए बादशाह ने मुगल सल्तनत पर भले ही अधिकार कर लिया था किंतु अपने ही दरबार में उसकी स्थिति मजूबत नहीं थी। उसका दरबार शिया और सुन्नी अर्थात् ईरानी एवं तूरानी गुटों में बंटा हुआ था। हिन्दुस्तानी अमीरों ने अपना अलग गुट बना रखा था। इस काल में बहुत से दरबारी एवं सूबेदार, जहाँदारशाह के अन्य भाइयों के पुत्रों को सुल्तान बनाने का प्रयास कर रहे थे।
शासन की शक्तियां जुल्फिकार खाँ के हाथों में चले जाने से बादशाह की स्थिति बड़ी विचित्र हो गई। एक ओर तो प्रधानमंत्री अपनी मनमर्जी से आदेश जारी करने लगा और दूसरी ओर दरबार के ईरानी एवं तूरानी अमीर, जुल्फिकार खाँ का निर्देशन स्वीकार करने को तैयार नहीं थे। इस काल में हिन्दू उमराव लगभग पूरी तरह से मुगल दरबार से दूर हो चुके थे।
बहादुरशाह ने हालांकि अपनी मृत्यु से पहले राजपूतों, मराठों एवं जाटों से अपने सम्बन्ध सामान्य बनाने का प्रयास किया था और सिक्खों के अंतिम गुरु गोविंदसिंह से भी उसके सम्बन्ध अच्छे हो गए थे तथापि बंदा बहादुर द्वारा संघर्ष को जारी रखने के कारण बहादुरशाह सिक्खों को अपने पक्ष में नहीं कर सका था। केवल पौने पांच साल के शासन के बाद बहादुरशाह की अचानक मृत्यु हो जाने से वह अपने प्रति निष्ठावान हिन्दू पक्ष खड़ा नहीं कर सका था।
जहांदारशाह इस बात को समझता था कि मुसलमान अमीर चाहे वे शिया हों या सुन्नी, चाहे वे ईरानी हों या तूरानी, चाहे वे विदेशी हों या देशी, हर समय अपनी ताकत बढ़ाने और बादशाह को कमजोर करने में लगे रहेंगे। जबकि हिन्दू सरदार विशेषतः राजपूत राजा यदि एक बार वचन दे देंगे तो जीवन भर बादशाह के प्रति निष्ठावान बने रहेंगे। इसलिए उसने अपने पूर्वज अकबर की मधु-मण्डित सुलह कुल नीति पर लौटने का निर्णय लिया जिसे उसके बाबा औरंगजेब तथा पिता बहादुरशाह ने त्याग दिया था और जिसके कारण मुगल बादशाह की ताकत कमजोर हो गई थी तथा मुस्लिम अमीर बादशाह के विरुद्ध सिर उठाने लगे थे।
जहाँदारशाह ने सबसे पहले आम्बेर के सवाई राजा जयसिंह के पूर्वजों की सेवाओं को ध्यान में रखकर मुगल सल्तनत में उसकी शक्ति को पुनर्स्थापित करने का निर्णय लिया तथा सवाई जयसिंह को मालवा का सूबेदार नियुक्त कर दिया और उसे मिर्जाराजा की पदवी दी। सवाई जयसिंह के कहने से जहाँदारशाह ने पूरी सल्तनत में जजिया कर को भी समाप्त कर दिया।
बादशाह ने इसी तरह की रेशमी नीति मारवाड़ के राजा अजीत सिंह के साथ अपनाई तथा उसे महाराजा की पदवी देकर गुजरात का सूबेदार बना दिया। बादशाह ने चूड़ामन जाट तथा छत्रसाल बुन्देला के साथ भी मेल-मिलाप की नीति को तथा बन्दा बहादुर के विरुद्ध दमन की नीति को जारी रखा।
इस तरह जहाँदारशाह के काल में एक तरफ हिन्दू राजाओं को प्रसन्न करने का प्रयास किया जा रहा था तो दूसरी ओर मुस्लिम अमीरों के ओहदों में पिछले बादशाह के समय में की गई अंधाधुंध वृद्धि पर रोक लगा दी गई थी ताकि सल्तनत की वित्तीय स्थिति सुधर सके। इससे मुस्लिम अमीर जहाँदारशाह से नाराज हो गए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता