जैन-धर्म का साहित्य
जैन-धर्म का साहित्य बहुत विशाल है। अधिकांश में वह दार्शनिक साहित्य है। जैन-धर्म का मूल साहित्य ‘प्राकृत’ भाषा में लिखा गया है। मागधी भाषा में लिखा गया जैन साहित्य भी प्रचुर मात्रा में मिलता है। जैन विद्वानों ने कन्नड़, तमिल और तेलगु भाषाओं में भी अनेक ग्रन्थ लिखे। महावीर स्वामी के बाद जैन विद्वानों ने संस्कृत भाषा में भी अनेक ग्रन्थों की रचना की।
महावीर स्वामी की गतिविधियों का केन्द्र मगध था इसलिए उन्होंने लोकभाषा अर्धमागधी में उपदेश दिए जो जैन आगमों में सुरक्षित हैं। श्वेताम्बर सम्प्रदाय ‘आगमों’ को प्रमाण मानता है जबकि दिगम्बर सम्प्रदाय आगमों को प्रमाण नहीं मानता। दिगम्बर सम्प्रदाय की मान्यताओं के अनुसार आगम साहित्य कालदोष से विच्छिन्न हो गया है, इसलिए मान्य नहीं है।
दिगंबर सम्प्रदाय ‘षट्खंडागम’ को स्वीकार करता है जो 12वें अंग दृष्टिवाद का अंश माना गया है। दिगंबरों के प्राचीन साहित्य की भाषा ‘शौरसेनी’ है। जैन मुनियों ने आगे चलकर अपभ्रंश तथा अपभ्रंश की उत्तरकालीन लोक-भाषाओं में भी ग्रंथों की रचना की।
विषय-वस्तु की दृष्टि से सम्पूर्ण जैन साहित्य को दो भागों में विभाजित किया जा सकता है-
(1.) आगम साहित्य- आगम, ज्ञान के अक्षय भण्डार होने के कारण गणिपिटक तथा संख्या में बारह होने से द्वादशांगी नाम से भी पुकारे जाते हैं। आगम साहित्य के भी दो भाग हैं-
(अ.) अर्थागम- तीर्थंकरों द्वारा उपदिष्ट वाणी अर्थागम है।
(ब.) सूत्रागम- तीर्थंकरों के प्रवचन के आधार पर गणधरों द्वारा रचित साहित्य सूत्रागम है। आचरंगसूत्र में जैन भिक्षुओं के आचरण सम्बन्धी नियम दिए गए हैं। भगवतीसूत्र में महावीर स्वामी के माध्यम से जैन-धर्म के सिद्धान्तों की विवेचना की गई है। आचार्य भद्रबाहु रचित ‘कल्पसूत्र’ अत्यंत प्रसिद्ध है।
(2.) आगमेतर साहित्य- स्वयंभू, पुष्प दंत, हेमचंद्र, सोमप्रभ सूरी आदि जैन रचनाकारों ने पुराण काव्य, चरित काव्य, कथा काव्य, रास काव्य आदि विविध ग्रंथों की रचना की। उन्होंने संस्कृत साहित्य में प्रचलित लोक-कथाओं को भी अपनी रचनाओं का आधार बनाया और उन कथाओं की परिणति अपने धर्म के अनुसार दिखाई।
आगमों का संकलन
जैन-आगमों में तीर्थंकरों के उपदेशों तथा गणधरों द्वारा की गई उनकी व्याख्याओं का संकलन है। इनका प्रथम संकलन महावीर स्वामी के निधन के लगभग 160 वर्ष पश्चात् पाटलिपुत्र में हुआ। इसे प्रथम जैन परिषद कहा जाता है। इस संकलन के समय महावीर के बताए सिद्धांतों में बहुत से परिवर्तन कर दिए गए।
इस सम्मेलन में आगमों के 12 अंग संकलित किए गए। कुछ समय पश्चात् जब आगम साहित्य का विच्छेदन होने लगा तो महावीर के निर्वाण के 827 या 840 वर्ष बाद (ईस्वी 300 या 313 में) मथुरा में आर्य स्कन्दिल की अध्यक्षता में एक और जैन सम्मेलन आयोजित हुआ। इसे द्वितीय जैन परिषद् कहा जाता है। इसमें विभिन्न साधुओं की स्मृति के आधार पर आगमों के 12 अंगों का नए सिरे से संकलन किया गया। इन्हें ‘माथुरी-वाचना’ कहते हैं।
मथुरा सम्मेलन के लगभग 153 वर्ष बाद अर्थात् महावीर के निर्वाण के 980 या 993 वर्ष बाद (ईस्वी 453-466 में) वलभी में देवर्षि क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में जैन साधुओं का तीसरा सम्मेलन हुआ, जिसे तृतीय जैन परिषद भी कहा जाता है। इस परिषद् में आगमों का अन्तिम बार संकलन किया गया। इन्हें ‘वलभी-वाचना’ भी कहा जाता है।
वर्तमान आगम इसी संकलना के रूप हैं। प्रथम परिषद में जिन द्वादश अंगों की रचना हुई थी, उनमें से एक अंग लुप्त हो गया। ग्यारह अंग ही शेष बचे थे। कुछ विद्वान इस सम्मेलन का समय ई.512 मानते हैं।
जैन आगमों की उक्त तीन संकलनाओं के इतिहास से अनुमान होता है कि आगम साहित्य को बार-बार विपुल क्षति उठानी पड़ी जिसके कारण आगम साहित्य अपने मौलिक रूप में सुरक्षित नहीं रह सका। संभवतः इसी कारण बौद्ध साहित्य की तुलना में जैन साहित्य अत्यल्प है तथा इसमें अनेक विकार आ जाने की संभावना से दिगम्बर सम्प्रदाय ने आगमों को अस्वीकार कर दिया।
जैन आगमों का महत्त्व
वैदिक साहित्य में जो स्थान वेदों का और बौद्ध साहित्य में त्रिपिटक का है, वही स्थान जैन साहित्य में आगमों का है। जैन आगमों की संख्या 46 है-
(क) 12 अंग: आयारंग, सूयगडं, ठाणांग, समवायांग, भगवती, नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अंतगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, पण्हवागरण, विवागसुय, दिठ्ठवाय।
(ख) 12 उपांग: ओवाइय, रायपसेणिय, जीवाभिगम, पन्नवणा, सूरियपन्नति, जम्बुद्दीवपन्नति, निरयावलि, कप्पवडंसिया, पुप्फिया, पुप्फचूलिया, वण्हिदसा।
(ग) 10 पइन्ना: चउसरण, आउरपचक्खाण, भत्तपरिन्ना, संथर, तंदुलवेयालिय, चंदविज्झय, देविंदत्थव, गणिविज्जा, महापंचक्खाण, वोरत्थव।
(घ) 6 छेदसूत्र: निसीह, महानिसीह, ववहार, आचारदसा, कप्प (बृहत्कल्प), पंचकप्प।
(च) 4 मूलसूत्र: उत्तरज्झयण, आवस्सय, दसवेयालिय, पिंडनिज्जुति। नंदि और अनुयोग।
ईसा पूर्व चौथी शताब्दी से पाँचवी शताब्दी ईस्वी तक के भारत की आर्थिक तथा सामाजिक दशा का चित्रण करने वाला यह साहित्य अनेक दृष्टियों से महत्त्वपूर्ण है। आयारंग, सूयगडं, उत्तरज्झयण, दसवेयालिय आदि ग्रन्थों में जैन भिक्षुओं के आचार-विचारों का विस्तृत वर्णन है। यह वर्णन बौद्धों के धम्मपद, सुत्तानिपात तथा महाभारत (शान्ति पर्व) आदि ग्रन्थों से काफी मेल खाता है। डॉ. विण्टरनीज आदि पश्चिमी विद्वानों के अनुसार यह साहित्य, श्रमण-काव्य का प्रतीक है।
भगवती कल्पसूत्र, ओवाइय, ठाणांग, निरयावलि आदि ग्रन्थों में श्रमण भगवान महावीर, उनकी चर्या, उनके उपदेशों तथा तत्कालीन राजा, राजकुमार और उनके युद्धों आदि का विस्तृत वर्णन है, जिससे तत्कालीन इतिहास की अनेक अनुश्रुतियों का पता लगता है।
नायाधम्मकहा, उवासगदसा, अन्तगडदसा, अनुत्तरोववाइयदसा, विवागसुय आदि ग्रन्थों में महावीर द्वारा कही हुई कथा-कहानियों तथा उनकी शिष्य-शिष्याओं का वर्णन है, जिनसे जैन परम्परा सम्बन्धी अनेक बातों का परिचय मिलता है। रायपणेसिय, जीवाभिगम तथा पन्नवणा आदि ग्रन्थों में वास्तुशास्त्र, संगीत, वनस्पति आदि सम्बन्धी अनेक महत्त्वपूर्ण विषयों का वर्णन है जो प्रायः अन्यत्र उपलब्ध नहीं होता है।
छेदसूत्रों में साधुओं के आहार-विहार तथा प्रायश्चित आदि का विस्तृत वर्णन है, जिसकी तुलना बौद्धों के विनय-पिटक से की सकती है। वृहत्कल्पसूत्र (1-50) में बताया गया है कि जब महावीर साकेत (अयोध्या) सुभूमिभाग नामक उद्यान में विहार करते थे तो उस समय उन्होंने भिक्षु-भिक्षुणियों को साकेत के पूर्व में अंग-मगध तक दक्षइ के कौशाम्बी तक तथा उत्तर में कुणाला (उत्तरोसल) तक विहार करने की अनुमति दी।
इससे पता लगता है कि आरम्भ में जैन-धर्म का प्रचार सीमित था तथा जैन श्रमण मगध और उत्तर प्रदेश के कुछ हिस्सों को छोड़़कर अन्यत्र नहीं जा सकते थे। निस्सन्देह छेदसूत्रों का यह भाग उतना ही प्राचीन है जितने स्वयं महावीर।
कनिष्क कालीन मथुरा के जैन शिलालेखों में भिन्न-भिन्न गण, कुल और शाखाओं का उल्लेख है। यह वर्णन भद्रबाहु के कल्पसूत्र में वर्णित गण, कुल और शाखाओं से मेल खाता है। इससे जैन आगम ग्रन्थों की प्रामाणिकता का पता चलता है। संभवतः इस समय तक जैन-धर्म में श्वेताम्बर और दिगम्बर का भेद नहीं था। जैन आगमों के विषय, भाषा आदि में जो पालि-त्रिपिटक से समानता है, वह भी इस साहित्य की प्राचीनता को दर्शाती है।
बौद्धों के पालि-सूत्रों की अट्टकथाओं की तरह जैनों के आगमों की भी अनेक टीका-टिप्पणियाँ, दीपिका, निवृत्ति, विवरण, अवचूरि आदि लिखी गईं। इस साहित्य को सामान्यतः चार भागों- निर्युक्ति, भाष्य, चूर्णि और टीका में विभक्त किया जाता है, आगम को मिलाकर इन्हें ‘पांचांगी’ कहा जाता है। आगम साहित्य की तरह यह साहित्य भी महत्त्वपूर्ण है तथा इसमें आगमों के विषयों का विस्तार किया गया है। इस साहित्य में अनेक अनुश्रुतियाँ संकलित हैं तथा ऐतिहासिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण हैं। वृ
हत्कल्पभाष्य, व्यवहारभाष्य, निशीथचूर्णि, आवश्यकचूर्णि, आवश्यकटीका, उत्तराध्ययन टीका आदि टीका-ग्रन्थों में पुरातत्त्व सम्बन्धी विविध सामग्री मिलती है, जिससे प्राचीन भारत के रीति-रिवाज, मेले त्यौहार, साधु-सम्प्रदाय, अकाल, बाढ़, चोर-लुटेरे, सार्थवाह, व्यापारिक मार्ग, शिल्पकला, वास्तुकला, पाककला, आभूषण निर्माण आदि विविध विषयों की जानकारी मिलती है।
लोक-कथा और भाषा शास्त्र की दृष्टि से भी यह साहित्य महत्त्वपूर्ण है। चूर्णि-साहित्य में प्राकृत मिश्रित संस्कृत का उपयोग किया गया है, जो भाषाशास्त्र की दृष्टि से विशेष महत्त्व का है, और साथ ही यह उस महत्त्वपूर्ण काल का द्योतक है जब जैन विद्वान ‘प्राकृत’ का आश्रय छोड़़कर संस्कृत भाषा की ओर बढ़ रहे थे।
जैन-धर्म की भारतीय संस्कृति को देन
यद्यपि जैन-धर्म का व्यापक प्रचार-प्रसार नहीं हुआ तथापि इस धर्म ने भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति के विभिन्न पक्षों को गहराई तक प्रभावित किया और भारतीय दर्शन, साहित्य तथा कला के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। जैन-धर्म की भारतीय संस्कृति को प्रमुख देन इस प्रकार से है-
(1.) दार्शनिक क्षेत्र में
जैन विचारधारा ने ज्ञान-सिद्धान्त, स्याद्वाद और अहिंसा आदि के विचारों को पनपाकर भारतीय दार्शनिक चिन्तन को अधिक तटस्थ और गौरवपूर्ण बनाने में योगदान दिया। ज्ञान सिद्धान्त के अनुसार प्रत्येक जीव की आत्मा पूर्ण ज्ञानयुक्त है किंतु सांसारिक पर्दा उसके ज्ञान के प्रकाश को प्रकट नहीं होने देता। अतः प्राणी मात्र को इस पर्दे को हटाकर ज्ञान को समझना चाहिए। ऐसा करने पर वह ‘निग्रन्थ’ हो जाता है। विचार-समन्वय के लिए अनेकान्त दर्शन जैन-धर्म की महत्त्वपूर्ण देन है।
भगवान् महावीर ने इस दर्शन की मूल भावना का विश्लेषण करते हुए सांसारिक प्राणियों को बोध दिया- ‘किसी बात को, सिद्धान्त को एक तरफ से मत देखो, एक ही तरह उस पर विचार मत करो। तुम जो कहते तो वह सच होगा, पर दूसरे जो कहते हैं, वह भी सच हो सकता है। इसलिए सुनते ही भड़को मत। वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो।’
आज संसार में जो तनाव और द्वन्द्व है, वह दूसरों के दृष्टिकोण को न समझने के कारण है। संस्कृति के रक्षण और प्रसार में जैन-धर्म की यह देन अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। भारतीय समाज को सत्य और अहिंसा का पाठ पढ़ाकर जैन-धर्म ने भारतीय जीवन में नवीन चेतना का प्रसार किया। अहिंसा की नीति आज भी भारत की आन्तरिक एवं बाह्य नीतियों की प्रमुख अंग है।
(2.) साहित्य के क्षेत्र में
भाषा और साहित्य के क्षेत्र में भी जैन-धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय को प्रोत्साहन दिया। जैनाचार्यों ने देश में प्रचलित विभिन्न भाषाओं एवं लोक-भाषाओं को अपनाकर उन्हें समुचित सम्मान दिया। जैन-साधु एवं प्रचारक जहाँ कहीं भी वे गए, उन्होंने वहाँ की भाषाओं को अपने उपदेश और साहित्य का माध्यम बनाया। उनकी इसी उदार प्रवृत्ति के कारण मध्ययुगीन विभिन्न जनपदीय भाषाओं के मूल रूप सुरक्षित रह सके।
जैन लेखकों ने प्राकृत और संस्कृत भाषा को समृद्ध किया और भारतीय पौराणिक सामग्री को अपनी मान्यताओं के साथ समन्वित किया। इससे भारत के आध्यात्मिक चिन्तन को सर्वसाधारण तक पहुँचाने में बड़ी सहायता मिली। विमल सूरी ने प्राकृत भाषा में ‘षडमचरिय’ लिखकर राम कथा को जैन रूप दिया। सातवीं सदी में रविषेण ने ‘पद्मपुराण’ की रचना की और स्वयंम्भू ने अपभ्रंश में ‘षडमचरिउ’ लिखा।
आठवीं सदी में जिनसेन (द्वितीय) ने ‘हरिवंश पुराण’ की रचना की जो महाभारत और हरिवंश पुराण का जैन रुपान्तरण था। तेरहवीं सदी में देवप्रभ ने ‘पाण्डव चरित’ लिखा। सोलहवीं सदी में शुभचन्द्र ने ‘पाण्डव पुराण’ की रचना की। कथा साहित्य के विकास में भी जैन लेखकों ने विपुल योगदान दिया। पादलिप्त ने ‘तरंगवती’ की रचना की। चौदहवी सदी में इसी रचना के आधार पर ‘तरंगलीला’ बनी।
आठवीं सदी में हरिभद्र ने ‘समरादित्य कथा’ की रचना की। दसवीं सदी में सिद्धर्षि ने ‘उपमिति प्रपंच कथा’, चौदहवीं सदी में धर्मचन्द्र ने ‘मलय सुन्दरी कथा’ और बाद में बुद्धि विजय ने ‘पद्मावती कथा’ की रचना की। नाटक और गीत काव्य के क्षेत्र में भी जैन लेखकों की बड़ी देन है। उनके लिखे ‘हमीर-मद मर्दन‘, ‘मोहराज पराजय’ और ‘एरबुद्ध-रोहिणेय’ उल्लेखनीय नाटक हैं। जैन मुनियों ने नीति, दर्शन, व्याकरण, ज्योतिष तथा चिकित्सा पर भी अनेक ग्रन्थों की रचना की।
(3.) कला के क्षेत्र में
जैन-धर्म ने भारतीय कला-संसार के निर्माण महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई। प्राचीन एवं मध्य-काल में जैन मुनियों द्वारा निर्मित कलात्मक स्मारक, मूर्तियां, मन्दिर, मठ और गुफाएं देश के विभिन्न प्रांतों में आज भी देखी जा सकती हैं। उड़ीसा के पुरी जिले में उदयगिरी और खण्डगिरी में 35 जैन गुफाएं मिली हैं। एलोरा में भी कई जैन गुफाएँ स्थित हैं। इन गुफाओं में जैन-धर्म प्रतिमाओं की तक्षण-कला देखते ही बनती है।
मध्य भारत में खजुराहो नामक स्थान पर 10वीं तथा 11वीं शताब्दी के कई मन्दिर बने हुए हैं। राजस्थान में आबूपर्वत पर देलवाड़ा के प्रसिद्ध जैन मन्दिर हैं जो संगमरमर पत्थर से बने हुए हैं। इन मन्दिरों में मूर्ति कला के साथ-साथ बेल-बूटों, तोरणद्वारों, नक्काशी आदि का काम भारत की तक्षण कला के चरम को प्रदर्शित करता है।
कठियावाड़ की गिरनार और पालीताना पहाड़ियों में, राजस्थान में रणकपुर नामक स्थान पर, बिहार में पारसनाथ और मैसूर में श्रवण-बेलगोला नामक स्थान पर जैन मन्दिर अथवा मंदिर समूह बने हुए हैं। शत्रुंजय पहाड़ी पर 500 जैन मन्दिर हैं। यहाँ जैन तीर्थंकरों की चतुर्मुखी मूर्तियाँ हैं। श्रवण बेलगोला में गोमतेश्वर की प्रतिमा दर्शकों को अचंभित कर देती है। 60 फुट उँची यह प्रतिमा एक पर्वत-शिखर पर स्थित है।
पूरे देश में फैली हुई जैन-धर्म की ये कलाकृतियाँ समकालीन भारतीय कला पर पर्याप्त प्रकाश डालती हैं। जैन साधुओं ने चित्रकला के क्षेत्र में अद्भुत कार्य किया। उन्होंने हजारों की संख्या में चित्रित पोथियां तैयार कीं जो आज भी देश के अनेक पोथी भण्डारों में संकलित हैं। इनमें चमकीले रंगों का प्रयोग किया गया है जो आज भी बिल्कुल नए दिखाई देते हैं।
(4.) अन्य क्षेत्रों में योगदान
जैन-धर्म ने प्राचीन आर्यों की धार्मिक एवं सामाजिक विषमताओं का विरोध किया जिसके कारण ब्राह्मणों ने वैदिक धर्म के भीतर व्याप्त कुरीतियों को दूर करने का प्रयास किया। जैन-धर्म ने मनुष्य के कुल के आधार पर ‘उच्च’ और ‘हेय’ का निर्णय करने वाले ब्राह्मणों की आलोचना की तथा कर्म के आधार पर व्यक्ति की पहचान करने पर जोर दिया।
जैन-धर्म ने स्त्री को धर्म ग्रन्थों को पढ़ने का अधिकार देकर तथा उन्हें मोक्ष की अधिकारिणी मानकर स्त्री के ऋग्वैदिक-कालीन गौरव एवं आत्मसम्मान को पुनर्जीवित करने का प्रयास किया। इस प्रकार जैन-धर्म ने सामाजिक समानता एवं समरता को पुनः प्रतिष्ठित करने की दृष्टि से महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
जैन-धर्म ने सांस्कृतिक समन्वय स्थापित करने की दिशा में भी महत्त्वपूर्ण कार्य किया। विचार-समन्वय के लिए ‘अनेकान्त दर्शन’ जैसी उदार चिंतन भावना, जैन-धर्म की महत्त्वपूर्ण देन है। आचार-समन्वय की दिशा में जैन-धर्म ने ‘मुनि धर्म’ और ‘गृहस्थ धर्म’ की व्यवस्था दी तथा प्रवृत्ति और निवृत्ति दोनों मार्गों का संतुलन स्थापित किया।
जैन-धर्म में जातिवाद, क्षेत्रीयता तथा भाषाई विवाद आदि संकुचित मानसिकता को स्वीकार नहीं किया गया और उसने स्वयं को भारत के किसी एक क्षेत्र, या जाति या भाषा तक सीमित नहीं किया। जैन-धर्म अपनी समन्वय भावना के कारण ही सगुण और निर्गुण भक्ति के विवाद में नहीं पड़ा। प्राचीन साहित्य के संरक्षक के रूप में जैन-धर्म की विशेष भूमिका रही है। जैन साधुओं ने जीर्ण-शीर्ष एवं दुर्लभ ग्रन्थों का प्रतिलेखन कर उनकी रक्षा की और स्थान-स्थान पर ग्रन्थ भण्डारों की स्थापना कर, इस अमूल्य निधि को सुरक्षित रखा।
जैन-धर्म पर आरोप लगाया जाता है कि उसने संसार को दुःखमूलक बताकर निराशा की भावना फैलाई है, जीवन में वैराग्य की अधिकता पर बल देकर मानव के मन में पलने वाली अनुराग भावना और कला-प्रेम को कुण्ठित किया है। जैन-धर्म पर इस प्रकार के आरोप लगाना उचित नहीं है। जैन-धर्म ने जीवन के इस पक्ष को कभी भी भुलाया नहीं।
लेखनकला, काव्य, साहित्य, चित्रकला, मूर्तिकला, संगीत, गायन एवं वादन सभी क्षेत्रों के उन्नयन में जैन-धर्म ने अपना विपुल योगदान दिया। जैन-धर्म की वैराग्य भावना मनुष्य मात्र को आसक्ति से उत्पन्न होने वाले दुःखों से दूर करके उन्हें परम आनंद की उपलब्धि कराने के लिए है। जैन-धर्म ने ईश्वर अथवा देवी-देवताओं का मुखापेक्षी बनने की बजाए मनुष्य को स्वयं अपना भाग्य-विधाता बनने का मार्ग सुझाया है। जैन-धर्म की दृष्टि में मनुष्य का कर्म एवं पुरुषार्थ ही उसे ऊंचा उठा सकता है। जैन धर्म की यह विचारधारा मानव समाज की उन्नति का सबसे बड़ा कारण है।