किसी बात को, सिद्धान्त को एक तरफ से मत देखो, एक ही तरह उस पर विचार मत करो। तुम जो कहते तो वह सच होगा, पर दूसरे जो कहते हैं, वह भी सच हो सकता है। इसलिए सुनते ही भड़को मत। वक्ता के दृष्टिकोण से विचार करो।
-भगवान् महावीर।
ईसा के जन्म से लगभग 3500 वर्ष पहले भारत भूमि पर सिंधु-संस्कृति का उद्भव हुआ था जो लगभग 2000 वर्ष तक अपनी सुगन्ध बिखेरकर ई.पू. 1500 के आसपास काल के गाल में समा गई। सिंधु-घाटी के ऊपरी क्षेत्र अर्थात् सप्तसिंधु प्रदेश में वैदिक-आर्य-संस्कृति प्रकाश में आनी आरम्भ हुई। कुछ विद्वान ऋग्वेद का रचना काल ई.पू.2500 से ई.पू.1000 के बीच मानते हैं।
अर्थात् इन विद्वानों के अनुसार वैदिक संस्कृति के प्रकाश में आने की घटना ई.पू.2500 से कुछ पहले हुई होगी। जबकि पी. वी. काणे के अनुसार ऋग्वेद की रचना ई.पू.4000 से लेकर ई.पू.1000 के बीच की अवधि में हुई। अतः काणे आदि विद्वानों के अुनसार वैदिक संस्कृति का उद्भव ई.पू. 4000 से पहले हुआ होगा। इस दृष्टि से वैदिक संस्कृति, सिंधु-संस्कृति की पूर्ववर्ती अथवा समकालीन थी।
वैदिक संस्कृति ईसा के जन्म से लगभग 600 वर्ष पूर्व तक बिना किसी बाधा के निरंतर विकास करती रही। छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व में वैदिक संस्कृति के सामने जैन-धर्म तथा बौद्ध धर्म नामक दो बड़ी चुनौतियों ने जन्म लिया जिनके कारण ईसा पूर्व की छठी शताब्दी को भारतीय संस्कृति के इतिहास में बौद्धिक एवं आध्यात्मिक क्रांति का समय माना जाता है।
वैदिक धर्म का आधार ज्ञान अर्थात् वेद था किंतु समय के साथ यज्ञों एवं कर्मकाण्डों की जटिलता बढ़ती गई तथा समाज में अनेक प्रकार के अन्धविश्वास पनप गए। ईसा पूर्व छठी शताब्दी तक आते-आते जीवन के प्रत्येक अंग में विभिन्न प्रकार की रुढ़ियों तथा पुराहितों के बढ़ते हुए अधिकारों के कारण अनेक प्रकार की विकृतियों ने जन्म ले लिया।
इस कारण जन साधारण में वैदिक-काल से चली आ रही तार्किकता और संतुलित चिंतन पद्धति का अभाव हो गया। पुरातन परम्पराओं एवं मान्यताओं की आड़ में जनता का शोषण किया जाने लगा। इसलिए कुछ लोगों में वैदिक परम्पराओं से विश्वास उठने लगा और वे सत्य की खोज में लग गए। ये लोग किसी भी बात को स्वीकार करने से पूर्व उसे परखना चाहते थे। इस दृष्टि से हम इस युग को धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलन का युग भी कह सकते हैं।
वैश्विक स्तर पर वैचारिक क्रांति का युग
पुरातन परम्पराओं को संदेह की दृष्टि से देखने की यह प्रवृत्ति उस काल में न केवल भारत में अपितु विश्व की अन्य सभ्यताओं में भी देखी जा सकती है। उस काल में अनेक देशों में ऐसे बड़े विचारक हुए जिन्होंने परम्परागत धार्मिक मान्यताओं, रूढ़ियों और सामाजिक कुरीतियों को अमान्य घोषित करके मानव जाति को चिंतन की नवीन दिशा प्रदान की। चीन में महात्मा कन्फयूशियस और लाओत्से ने, यूनान में हिराक्लिटस और पाइथोगेरस ने, ईरान में महात्मा जरथ्रुस्त्र ने और भारत में महावीर स्वामी तथा महात्मा बुद्ध ने परम्परागत धार्मिक मान्यताओं को चुनौती दी। उनके विचारों ने अपने अपने देश के धार्मिक, सामाजिक एवं राजनीतिक जीवन में क्रान्तिकारी परिवर्तन किए जिनके कारण मानव संस्कृति ने अगले चरण में प्रवेश किया।
भारत में सामाजिक एवं धार्मिक जागृति के कारण
भारत में छठी शताब्दी ईस्वी पूर्व की सामाजिक एवं धार्मिक जागृति के मुख्य कारण निम्नलिखित थे-
(1.) धर्म के वास्तविक स्वरूप की खोज के प्रयास: ऋग्वैदिक-काल में मनुष्य जीवन को सुखपूर्वक व्यतीत करने के लिए आश्रम व्यवस्था आरम्भ होने लगी थी। उत्तरवैदिक-काल में आश्रम व्यवस्था पूरी तरह विकसित हो गई। इस व्यवस्था के अंतर्गत मनुष्य को 50 वर्ष की आयु के पश्चात् वानप्रस्थ आश्रम में एवं 75 वर्ष की आयु के पश्चात् सन्यास आश्रम में व्यतीत करने का प्रावधान किया गया।
वानप्रस्थ एवं सन्यास के दौरान मनुष्य धर्म, अध्यात्म तथा दर्शन के विविध पक्षों से लेकर मनुष्य जीवन की सार्थकता एवं मृत्यु के बाद मिलने वाले पुनर्जन्म, कर्मानुसार गति आदि विषयों पर निरंतर चिंतन करता था। तीर्थों एवं वनों में भ्रमण करते रहने से उसका सम्पर्क अपने ही जैसे बहुत से चिंतनशील व्यक्तियों से होता था।
निरंतर चिंतन एवं सम्पर्क के कारण वे धर्म के वास्तविक स्वरूप को खोजने का प्रयास करने लगे। इन लोगों के भीतर धर्म के वर्तमान स्वरूप के बारे में असंतोष उत्पन्न होने लगा। इसी असंतोष ने आगे चलकर भारतीय धर्म का स्वरूप बदल दिया।
(2.) उपनिषदों के विचारों का प्रचार: अनेक उपनिषदों में वैदिक धर्म की कमजोरियों की चर्चा की गई जिन्होंने प्रबुद्ध वर्ग का ध्यान आकर्षित किया तथा वे इन बुराइयों का विरोध करने लगे। अनेक उपनिषदों ने कर्मकाण्ड की भी आलोचना की तथा ज्ञान की प्राप्ति को ही मोक्ष का साधन बताया। उन्होंने अहिंसा तथा आचरण की पवित्रता पर जोर दिया। इस प्रकार उपनिषदों ने ही जैन एवं बौद्ध मत की पृष्ठभूमि तैयार कर दी।
(3.) ब्राह्मणों की प्रधानता से असंतोष: उत्तरवैदिक-काल में पुरोहितों, यज्ञकर्ताओं एवं अनुष्ठानकर्ताओं की स्थिति सर्वोपरि हो गई। इन्हें ब्राह्मण कहा जाता था। वे समाज की शिक्षण और यजन सम्बन्धी बौद्धिक एवं आध्यात्मिक आवश्यकताएं पूरी करते थे। सम्पूर्ण समाज उन्हें विशेष आदर देता था। यज्ञों तथा धार्मिक कर्मकाण्डों की संख्या बढ़ने के साथ-साथ ब्राह्मणों की प्रधानता भी बढ़ गई।
उस युग में जीवन की प्रत्येक समस्या को सुलझाने का एकमात्र आधार वेद ही माने जाते थे और वेदों को पढ़ने और उनकी व्याख्या करने का विशेषाधिकार ब्राह्मण वर्ग के पास था, अतः उनका प्रभुत्व बढ़ने लगा। शिशु के जन्म से लेकर वृद्धावस्था में मृत्यु होने तक ऐसा कोई कार्य नहीं था जो ब्राह्मणों से पूछे बिना पूरा हो सके।
इससे ब्राह्मण वर्ग अहंकारी और सुविधाभोगी बन गया। पौराणिक काल तक आते-आते समाज में ब्राह्मणों का प्रभुत्व सर्वोपरि हो गया। ब्राह्मणों के इस प्रभुत्व के विरुद्ध प्रतिक्रिया होना स्वाभाविक था। जैन एवं बौद्ध मत, ब्राह्मण प्रभुत्व के विरुद्ध उत्पन्न प्रतिक्रिया के परिणाम थे।
(4.) बहुदेववाद से असंतोष: यद्यपि ऋग्वैदिक आर्यों ने एकेश्वरवाद के सिद्धान्त का प्रतिपादन किया था तथापि एकेश्वरवाद का सिद्धान्त आर्य प्रजा में लोकप्रिय नहीं हो पाया था। इस कारण वैदिक धर्म बहुदेववादी हो गया। सृष्टि की लगभग समस्त शक्तियाँ देवी-देवता मान ली गईं। यहाँ तक कि राजा-रानियों और प्रसिद्ध योद्धाओं को भी देवता मान लिया गया।
देवी-देवताओं को संतुष्ट रखने के लिए अनेक प्रकार के यज्ञ, हवन, उपासना, जप-तप आदि किए जाते थे। बुद्ध एवं महावीर के प्रयासों से इस काल में पुनः एकेश्वरवाद ने जोर पकड़ा और लोग सोचने लगे कि जब ‘ब्रह्म’ सर्वत्र व्याप्त है तो इतने सारे देवी-देवताओं की उपासना की क्या आवश्यता है? उनका यह भी मानना था कि मनुष्य को अपने आत्मोत्कर्ष के लिए देवताओं पर निर्भर रहने की आवश्यकता नहीं है। मनुष्य के कर्म ही उसके भाग्य-विधाता हैं। इस नवीन चिंतन के कारण समाज में बहुदेववादी ब्राह्मण धर्म के विरुद्ध असन्तोष उठ खड़ा हुआ।
(5.) यज्ञ एवं कर्मकाण्ड से असंतोष : ऋग्वैदिक-काल में आर्यों का धर्म सरल तथा आडम्बरहीन था। वे यज्ञ और अनुष्ठान स्वयं कर लेते थे। यज्ञ के लिए पुरोहित की आवश्यकता नहीं थी परन्तु धीरे-धीरे कर्मकाण्ड और तरह-तरह के विधि विधानों की प्रधानता बनी। अब पुरोहितों की सहायता लेना आवश्यक हो गया। उन्हें भी देवताओं के समान पूज्य समझा जाने लगा।
पहले एक पुरोहित से काम चल जाता था। अब उनकी संख्या सात और सात से बढ़कर सत्रह हो गई। कुछ यज्ञ तो वर्षों तक चलते थे। ब्राह्मणों ने यज्ञों को अपने रोजगार का मुख्य साधन बना लिया था इसलिए उन्होंने यज्ञों को कर्मकाण्ड से पूर्ण, अत्यधिक जटिल, कठोर तथा खर्चीला बना दिया। यज्ञों में पशुबलि पर अत्यधिक जोर दिया जाने लगा। साधारण व्यक्ति के लिए ऐसे यज्ञों को करवाना असम्भव हो गया।
ब्राह्मणों ने धर्म के आधार पर पुनर्जन्म और स्वर्ग-नर्क की धारणाएँ पैदा करके जनता का शोषण करना शुरु कर दिया। वे जादू-टोना, झाड़-फूंक, तन्त्र-मन्त्र आदि के नाम पर प्रजा से धन लेते थे। इस कारण जनसामान्य में विरोध की भावना पनपने लगी। निर्धन लोग मौजूदा धर्म के द्वारा मोक्ष प्राप्त करने में असमर्थ थे और उन्हें भी मोक्ष प्राप्त करने की अभिलाषा थी।
पशुबलि के विरुद्ध भी समाज में बड़ा विरोध था। यही कारण था कि जब महावीर तथा बुद्ध ने धर्म के सरल एवं अहिंसक स्वरूप को प्रस्तुत किया तो बड़ी संख्या में लोग उनके अनुयाई बन गए।
(6.) क्षत्रियों एवं ब्राह्मणों की प्रतिस्पर्द्धा: ऋग्वैदिक आर्यों की सामाजिक व्यवस्था उदार एवं लचीली थी। यद्यपि वर्ण व्यवस्था अस्तित्त्व में आ चुकी थी किंतु वह कर्म पर आधारित थी और कोई भी व्यक्ति अपनी योग्यता के आधार पर अपना वर्ण बदल सकता था। चारों वर्णों की समाज में समान आवश्यकता थी परन्तु धार्मिक जटिलता के साथ-साथ सामाजिक व्यवस्था भी जटिल होने लगी।
अब चारों वर्णों को वंशानुगत सीमाओं में बाँध दिया गया। अर्थात् अब वर्ण का निश्चय व्यक्ति के कर्म के आधार पर न होकर जन्म के आधार पर होने लगा। ऋग्वैदिक समाज में ब्राह्मणों को उनके साधनामय, त्यागमय एवं सादगीपूर्ण जीवन के लिए सर्वोपरि स्थान दिया गया था तथा क्षत्रियों को देश की रक्षा तथा शासन-व्यवस्था का भार सौंपा गया था। अतः समाज में इन दोनों वर्णों की स्थिति श्रेष्ठ थी परन्तु बाद में क्षत्रियों को ब्राह्मणों की प्रभुता अखरने लगी।
वे स्वयं को ब्राह्मणों से श्रेष्ठ मानने लगे। शतपथ ब्राह्मण में उनकी प्रतिक्रिया का सर्वप्रथम उल्लेख मिलता है जिसमें क्षत्रिय को ब्राह्मण से श्रेष्ठ बताया गया है। उपनिषद् काल में ब्राह्मण और क्षत्रियों के बीच प्रभुत्व की प्रतिस्पर्द्धा और अधिक बढ़ गई। इस काल में क्षत्रियों ने भी दार्शनिक एवं आध्यात्मिक क्षेत्र में अपनी धाक जमाने का प्रयत्न किया।
भारतीय दर्शन की एक विशेष शाखा ‘ब्रह्मविद्या’ की स्थापना का श्रेय क्षत्रिय विद्वानों को ही है। ब्राह्मणों और क्षत्रियों के इस संघर्ष की झलक साहित्यिक रचनाओं में भी मिलती है। ब्राह्मण ग्रन्थों में जहाँ कहीं भी चतुर्वर्णों का उल्लेख है, वहाँ सदैव पहले ब्राह्मणों का उल्लेख है, उनके बाद क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र का। जबकि बौद्ध-ग्रन्थों में पहले क्षत्रिय वर्ण का उल्लेख है और फिर ब्राह्मण, वैश्य तथा शूद्र वर्णों का।
वैश्यों के पास धन-सम्पत्ति थी परन्तु ब्राह्मण वैष्यों को अपने बराबर सम्मान देने को तैयार नहीं थे। अतः वैश्यों में भी ब्रह्मणों के प्रभुत्व के विरुद्ध असन्तोष उत्पन्न हो गया और उन्होंने क्षत्रियों का साथ दिया। शूद्र पहले से ही उपेक्षित थे। इसलिए उन्हें मौजूदा धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था से कोई लगाव नहीं था। यही कारण था कि जब महावीर और बुद्ध ने एक नवीन धार्मिक तथा सामाजिक व्यवस्था प्रस्तुत की तो क्षत्रियों, वैश्यों और शूद्रों ने उसका स्वागत किया।
(7.) अनार्य संस्कृतियों में असंतोष: यद्यपि उत्तरी भारत में वैदिक धर्म ईसा से ढाई हजार साल पहले से फल-फूल रहा था तथापि ई.पू. छठी शताब्दी तक पूर्वी भारत पूर्ण रूपेण आर्य संस्कृति के प्रभाव में नहीं आया था। वह अनार्य संस्कृति का गढ़ समझा जाता था। आर्य प्रवृत्ति-मार्गी थे। वे संसार-त्याग, वैराग्य, काया-क्लेश आदि सिद्धान्तों में विश्वास नहीं करते थे।
इसके विपरीत पूर्वी भारत में उत्पन्न होने वाले जैन एवं बौद्ध मत, दोनों ही निवृत्ति-मूलक थे। यह आर्यों की प्रवृत्ति-मूलक संस्कृति के विरुद्ध विद्रोह था। ब्राह्मणों के विरुद्ध असन्तोष का एक बड़ा कारण वेद तथा उन पर आधारित ग्रंथ थे। ब्राह्मणों की दृष्टि में वैदिक ज्ञान ईश्वर प्रदत्त था और कोई भी वेद विरुद्ध बात अधर्म थी परन्तु समाज में एक ऐसा प्रबुद्ध वर्ग तैयार हो रहा था जो वेदों को पूर्ण मानने को तैयार नहीं था।
उनकी दृष्टि में वैदिक-ज्ञान सीमित था और उसमें अनेक त्रुटियाँ थीं। उनका मानना था कि केवल वेद मन्त्रों में आस्था रखने और मन्त्रों का उच्चारण करते रहने से सभ्यता का विकास नहीं होगा। उपनिषदों में भी इसी प्रकार की भावना दिखाई पड़ती है।
बौद्ध साहित्य से ज्ञात होता है कि समाज का एक वर्ग ‘वेद प्रामाण्य’ के विषय पर ब्राह्मणों का कट्टर आलोचक था। जैन-धर्म के बाइसवें तीर्थंकर पार्श्वनाथ तथा तेबीसवें तीर्थंकर महावीर और बौद्ध धर्म के प्रवर्तक महात्मा बुद्ध ने भी वेदों की मान्यताओं के विरुद्ध विचार व्यक्त किए।
(8.) संस्कृत के विरुद्ध असंतोष: इस काल में बोलचाल की भाषा प्राकृत तथा पालि थी परन्तु समस्त धार्मिक ग्रन्थ संस्कृत भाषा में थे। धार्मिक कर्मकाण्ड भी संस्कृत भाषा में सम्पादित कराये जाते थे। केवल ब्राह्मण ही इस भाषा में व्यवहार कर सकते थे। जनसामान्य को न तो संस्कृत लिखना-पढ़ना आता था और न वह संस्कृत के मन्त्रों का अर्थ समझ पाती थी। अतः इस भाषा के विरुद्ध भी असन्तोष पनप रहा था। लोग धार्मिक कर्मकाण्डों के लिए भी किसी सरल भाषा को चाहते थे ताकि वे भी धार्मिक बातों को समझ सकें।
इस प्रकार छठी शताब्दी ई.पू. तक आते-आते जनसामान्य धार्मिक रुढ़ियों तथा सामाजिक बन्धनों को तोड़ने के लिए तत्पर हो चुका था। वैदिक धर्म के कर्मकाण्डों एवं वर्ण आधारित सामाजिक व्यवस्था से उसका विश्वास उठने लगा था। अतः इस समय जनसामान्य में ऐसी किसी भी नवीन धार्मिक एवं सामाजिक व्यवस्था का अवतरण हो सकता था जो समाज के प्रत्येक वर्ग को एक समान समझने एवं एक समान व्यवहार करने की सुविधा देती हो।