ई.1292 में सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की आज्ञा से उसके भतीजे एवं दामाद अल्लाउद्दीन खिलजी ने मालवा पर आक्रमण करके भिलसा पर अधिकार कर लिया और वहाँ के मन्दिरों तथा सेठ-साहूकारों को लूटकर अपार धन एकत्रित कर लिया। इस धन को लेकर वह दिल्ली लौट आया और समस्त धन सुल्तान को भेंट कर दिया। सुल्तान ने प्रसन्न होकर कड़ा-मानिकपुर के साथ-साथ अवध की भी जागीर उसे दे दी और उसे आरिज-ए-मुमालिक के पद पर नियुक्त कर दिया।
कुछ खिलजी एवं अन्य तुर्की सरदारों ने सुल्तान को सावधान किया कि अल्लाउद्दीन युवा और महत्त्वाकांक्षी है, इसलिए उसे इतना बढ़ावा देना ठीक नहीं है किंतु सुल्तान ने उनसे कहा कि मैं उसे अपने पुत्र की भांति समझता हूँ तथा उसके लिए कुछ भी करने के लिए तैयार हूँ। जलालुद्दीन को अपने अमीरों की इस नेक सलाह की उपेक्षा करने का दुष्परिणाम आने वाले चार वर्षों के भीतर ही झेलना पड़ा।
जिस वर्ष अल्लाउद्दीन खिलजी भिलसा पर सफलता प्राप्त करके लौटा, उसी वर्ष ई.1292 में डेढ़ लाख मंगोलों ने हुलागू खाँ के पौत्र अब्दुल्ला के नेतृत्व में भारत पर आक्रमण किया। जलालुद्दीन खिलजी ने भी एक विशाल सेना के साथ पश्चिमोत्तर सीमा की ओर प्रस्थान किया। मंगोल-सेना ने सिन्धु नदी के पश्चिमी तट पर पड़ाव डाल रखा था। सुल्तान की सेना नदी के पूर्वी तट पर आ डटी।
जलालुद्दीन खिलजी ने बलबन के समय में मंगोलों के विरुद्ध कई युद्ध जीते थे तथा इन युद्धों में मिली सफलताओं के कारण ही जलालुद्दीन खिलजी का भाग्योत्कर्ष हुआ था और वह सुल्तान के पद तक पहुंचा था किंतु इस समय जलालुद्दीन खिलजी की आयु 72 वर्ष से अधिक हो चुकी थी और वह अपने जीवन में शांति चाहता था। इसलिए वह मंगोलों से युद्ध नहीं करना चाहता था अपितु सुलह-सफाई करके मंगोलों एवं दिल्ली सल्तनत की सीमा का निर्धारण करना चाहता था।
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इससे पहले कि सुल्तान कुछ कर पाता मंगोलों की सेना ने सिंधु नदी पार करके दिल्ली की सेना पर आक्रमण करने का प्रयास किया परन्तु सुल्तान जलालुद्दीन ने अत्यन्त दु्रतगति से मंगोलों पर आक्रमण करके उन्हें परास्त कर दिया। शाही सेना द्वारा हजारों मंगोलों को बन्दी बना लिया गया। दिल्ली की सेना चाहती थी कि पकड़े गए मंगोलों का संहार कर दिया जाए किंतु सुल्तान ने मंगालों के सम्बन्ध में कुछ और सोच रखा था।
अब तक मंगोल किसी भी धर्म को नहीं मानते थे, सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी चाहता था कि मंगोलों को मुसलमान बनाकर दिल्ली सल्तनत का मित्र बना लिया जाए। इसलिए जलालुद्दीन खिलजी ने मंगोलों के नेता अब्दुल्ला के समक्ष प्रस्ताव रखा कि वह मुसलमान बन जाए तथा जलालुद्दीन के साथ दिल्ली चलकर वहाँ आराम से रहे।
मंगोल सरदार अब्दुल्ला ने जलालुद्दीन खिलजी का यह प्रस्ताव स्वीकार नहीं किया तथा जलालुद्दीन से अनुमति लेकर अपने अधिकांश मंगोल सैनिकों के साथ अपने देश को लौट गया परन्तु चंगेज खाँ के एक पौत्र उलूग खाँ तथा कई अन्य मंगोल सरदारों ने जलालुद्दीन की नौकरी करना स्वीकार करके इस्लाम स्वीकार कर लिया तथा बहुत से मंगोल सैनिकों के साथ दिल्ली के निकट बस गए। यह स्थान मंगोलपुरा के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
दिल्ली में बसाए गए मंगोल नव-मुस्लिम कहलाने लगे। सुल्तान ने अपनी पुत्री का विवाह उलूग खाँ के साथ कर दिया। इससे तुर्की सरदारों को बड़ी निराशा हुई। उनकी दृष्टि में सुल्तान ने मंगोल सरदार के साथ अपनी कन्या का विवाह करके तुर्कों के साथ-साथ दिल्ली सल्तनत की प्रतिष्ठा को भी बहुत ठेस पहुँचाई थी। मंगोलों को राजधानी के निकट बसाना सल्तनत के लिए अत्यन्त घातक सिद्ध हुआ क्योंकि मंगोलपुरा दिल्ली के सुल्तान के विरुद्ध षड्यन्त्रों तथा कुचक्रों का केन्द्र बन गया।
मंगोलों को परास्त करने के बाद जलालुद्दीन खिलजी ने किसी भी सैनिक अभियान का नेतृत्व नहीं किया। इसके बाद के सारे सैनिक अभियान उसके भतीजे एवं दामाद अल्लाउद्दीन के नेतृत्व में हुए जिसे जलालुद्दीन ने अपने बेटे की तरह पालपोस कर बड़ा किया था। सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी की यह नीति भी उसके विरुद्ध सिद्ध हुई।
जलालुद्दीन खिलजी अपने मुसलमान सैनिकों, अमीरों तथा अपने परिवार के सदस्यों के प्रति जिस भावुकता का अनुभव करता था, वैसी भावुकता और सद्भावना न तो मुसलमान सैनिक, न तुर्की अमीर और न परिवार के सदस्य, जलालुद्दीन के प्रति अनुभव करते थे। उनकी दृष्टि में सुल्तान बूढ़ा, सनकी और दिमाग से कमजोर था जो अपराधियों, बागियों और मंगोलों के प्रति उदारता दिखाकर अपनी कमजोरी का प्रदर्शन करता था।
जलालुद्दीन खिलजी ने मलिक छज्जू को दण्ड देने की बजाय सम्मानित किया था, रणथंभौर को जीतने की बजाय बीच में से ही घेरा उठा लिया था, मंगोलों को मौत के घाट उतारने की बजाय दिल्ली में लाकर बसा लिया था और अपनी बेटी का ब्याह उनके नेता के साथ कर दिया था।
इन सब कारणों से युवा खिलजी एवं अन्य तुर्की अमीर सुल्तान जलालुद्दीन खिलजी से जितनी जल्दी हो सके, छुटकारा पा लेना चाहते थे। सबसे अधिक छटपटाहट सुल्तान के भतीजे और दामाद अल्लाउद्दीन खिलजी में थी जो स्वयं सुल्तान के तख्त पर बैठकर भारत के काफिरों पर नियंत्रण प्राप्त करना चाहता था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता