ई.1030 में महमूद गजनवी का निधन हो गया। मृत्यु से पहले उसने अपने साम्राज्य के दो टुकड़े कर दिए। एक टुकड़ा अपने पुत्र मसूद को तथा दूसरा टुकड़ा दूसरे पुत्र मुहम्मद को दे दिया। जैसे ही महमूद ने आखिरी सांस ली, उसके दोनों पुत्रों में पूरे राज्य पर अधिकार करने के लिए युद्ध आरम्भ हो गया। अंत में महमूद के छोटे पुत्र मसूद ने अपने बड़े भाई मुहम्मद को कैद करके अंधा करवा दिया तथा स्वयं गजनी के तख्त पर बैठ गया। खलीफा ने मसूद को सुल्तान की उपाधि प्रदान की।
मसूद ने नियाल्तगीन नामक एक अफगान सरदार को लाहौर का सूबेदार एवं काजी शिराज को लाहौर प्रांत का राजस्व संग्राहक अर्थात् कर वसूली अधिकारी नियुक्त किया। मसूद चाहता था कि नियाल्तगीन और शिराज काजी मिलकर भारत में गजनी राज्य की सीमाओं का विस्तार करें तथा भारत से अधिक से अधिक धन गजनी को भिजवाएं किंतु गजनी के दुर्भाग्य से सेनापति नियाल्तगीन और काजी शिराज आपस में ही लड़ने लगे।
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दोनों ने एक दूसरे के अधिकारों को चुनौतियां देते हुए एक दूसरे के विरुद्ध सुल्तान को चिट्ठियां लिखीं। इस पर मुहम्मद ने उन्हें सूचित किया कि सैनिक मामलों में नियाल्तगीन को समस्त अधिकार हैं जबकि करवसूली की सारी जिम्मेदारी शिराज काजी की है। सुल्तान के इस आदेश से शिराज जल-भुन गया जबकि नियाल्तगीन की आकांक्षाएं और अधिक बढ़ गईं। नियाल्तगीन एक महत्त्वाकांक्षी योद्धा था। उसने ई.1033 में गंगा नदी के पश्चिमी तट पर चलते हुए बनारस तक अभियान किया। उसे लगता था कि चूंकि महमूद गजनवी ने बनारस को नहीं लूटा था इसलिए नियाल्तगीन को बनारस से उतना ही धन मिल सकता था जितना महमूद को सोमनाथ से मिला था। बनारस पर मुसलमानों का यह पहला आक्रमण था।
बैहाकी नामक एक समकालीन लेखक ने लिखा है कि इस अभियान को सोमनाथ अभियान के जितना ही महत्त्वपूर्ण समझा जाना चाहिए। इस अभियान में लाहौर की सेनाएं तोमरों, प्रतिहारों एवं गाहड़वालों के राज्यों से होकर गुजरीं किंतु किसी ने भी लाहौर की सेनाओं का मार्ग नहीं रोका। बनारस पर इस समय कलचुरी वंश का राजा गांगेयदेव विक्रमादित्य शासन करता था। उसने ई.1026 में बंगाल के पाल शासक महीपाल से बनारस छीना था। उसका राजधानी त्रिपुरा में थी। इस कारण गांगेयदेव को बनारस पर आक्रमण होने की सूचना नहीं मिल सकी और नियाल्तगीन की सेना ने बनारस को लूट लिया।
नियाल्तगीन केवल एक दिन बनारस में ठहरा। उसे भय था कि कोई हिन्दू राजा बनारस को बचाने के लिए आएगा। इसलिए वह एक दिन में जितनी लूट हो सकती थी, उतनी करके बनारस से निकल गया किंतु पूरे अभियान में किसी हिन्दू राजा ने उसका रास्ता नहीं रोका और वह सुरक्षित रूप से पुनः लाहौर पहुंच गया। निश्चित रूप से नियाल्तगीन को इस लूट में काफी धन मिला तथा उसे इस बात की भी जानकारी हो गई कि मध्य गंगा क्षेत्र के हिन्दू राजाओं का मनोबल इतना टूट चुका है कि अब वे मुस्लिम सेनाओं का प्रतिरोध नहीं करेंगे।
नियाल्तगीन का दुर्भाग्य यह था कि उसे गजनी से किसी तरह की सहायता नहीं मिल रही थी और लाहौर का काजी शिराज, नियाल्तगीन की बढ़ती हुई शक्ति से बहुत नाराज था। इसलिए काजी शिराज ने गजनी के शासक मसूद को नियाल्तगीन के विरुद्ध बहुत सारी शिकायतें लिख भेजीं तथा मन्धाकुर दुर्ग के दरवाजे बंद करके बैठ गया। जब लूट का धन लेकर नियाल्तगीन लाहौर के पास पहुंचा तो उसे काजी की कार्यवाहियों की जानकारी मिली। इसलिए नियाल्तगीन ने मिन्धाकुर के किले पर आक्रमण करके काजी को मार दिया। जब नियाल्तगीन द्वारा की गई इस कार्यवाही की सूचना गजनी में बैठे सुल्तान मसूद को मिली तो उसने अपने एक सेनापति को नियाल्तगीन के विरुद्ध चढ़ाई करने के लिए भेजा।
यह एक हिन्दू सेनापति था तथा इसका नाम तिलक था। उसकी सेना में लगभग सभी सिपाही हिन्दू थे। तिलक तेजी से चलता हुआ लाहौर आया और उसने नियाल्तगीन के समर्थकों को पकड़कर उनके हाथ कटवा लिए। तिलक के आगमन की बात सुनकर नियाल्तगीन मन्सूरा की तरफ भाग गया जो कि सिंध के रेगिस्तान में स्थित था। इस पर तिलक ने घोषणा की कि जो कोई भी व्यक्ति नियाल्तगीन का सिर काटकर लाएगा, उसे पांच लाख रुपए इनाम में दिए जाएंगे। नियाल्तगीन की सेना नियाल्तगीन का साथ छोड़कर भाग गई तथा नियाल्तगीन के पास केवल 200 सैनिक रह गए। जब नियाल्तगीन सिंध क्षेत्र में रहने वाले जाटों के क्षेत्र में पहुंचा तो जाटों ने उसे घेर लिया। जब तिलक को ज्ञात हुआ कि जाटों ने नियाल्तगीन को घेर रखा है तब वह भी सिंध की तरफ रवाना हुआ।
जब तिलक अपनी सेना लेकर सिंध में पहुंचा, तब तक जाटों ने नियाल्तगीन का सिर काट दिया था और उसके पुत्र को बंदी बना लिया था। जाटों ने तिलक को नियाल्तगीन का कटा हुआ सिर दिया तथा उससे पांच लाख रुपए मांगे। इस पर तिलक अपने वायदे से मुकर गया। उसने जाटों को केवल एक लाख रुपए दिए तथा कहा कि अब तो तुम्हारे हाथ नियाल्तगीन का खजाना लग गया है, इसलिए तुम्हें धन की क्या आवश्यकता है! तिलक नियाल्तगीन के कटे हुए सिर को लेकर गजनी के लिए रवाना हो गया। अक्टूबर 1034 में तिलक ने नियाल्तगीन का कटा हुआ सिर सुल्तान को भेंट किया। मसूद ने तिलक के लौट आने पर अपने पुत्र महदूद को पंजाब का सूबेदार नियुक्त किया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता