जौनपुर उत्तर प्रदेश में गोमती नदी के तट पर स्थित है। कहा जाता है कि इस नगर की स्थापना दिल्ली के सुल्तान फीरोजशाह तुगलक ने ई.1359-60 में की थी। गोमती नदी पर स्थित यह नगर शीघ्र ही उन्नति को पहुँच गया और कुछ समय के लिए तो दिल्ली के बराबर स्तर पर आ गया।
जौनपुर के स्वतंत्र राज्य का संस्थापक मलिक सरवर, फीरोज तुगलक के पुत्र सुल्तान मुहम्मद का गुलाम था जो अपनी योग्यता से ई.1389 में दिल्ली सल्तनत का वजीर बना। सुल्तान महमूद ने उसे ‘मलिक-उस-शर्क’ अर्थात् ‘पूर्व का स्वामी’ की उपाधि से विभूषित किया। ई.1394 में मलिक सरवर को दो-आब का विद्रोह दबाने के लिए भेजा गया। उसने उस विद्रोह को ही नहीं दबाया अपितु अलीगढ़ से लेकर बिहार में तिरहुत तक के सम्पूर्ण प्रदेश पर अधिकार कर लिया।
मलिक सरवर ने इस क्षेत्र में शान्ति एवं व्यवस्था स्थापित की तथा अपनी शक्ति को सुदृढ़ बनाया। यद्यपि उसने स्वयं को कभी सुल्तान घोषित नहीं किया तथापि वह एक स्वतंत्र शासक की भाँति व्यवहार करने लगा। तैमूर लंग के भारत-आक्रमण के समय मलिक सरवर ने अपने स्वामी सुल्तान महमूद को कोई सहायता नहीं भेजी। ई.1399 में मलिक सरवर की मृत्यु हो गई। उसके पीछे उसका वंश शर्की-वंश कहलाया।
मलिक सरवर की मृत्यु के बाद उसका पुत्र मुबारकशाह जौनपुर के तख्त पर बैठा। उसने स्वयं को सुल्तान घोषित किया और अपने नाम का खुतबा भी पढ़वाया। सुल्तान महमूद के वजीर मल्लू इकबाल खाँ ने जौनपुर को जीतने का प्रयास किया परन्तु उसे सफलता नहीं मिली। ई.1402 में मुबारकशाह की मृत्यु हो गई।
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मुबारकशाह का उत्तराधिकारी इब्राहीम शाह, शर्की वंश का योग्यतम शासक हुआ। उसने 35 वर्ष राज्य किया। उसके समय में दिल्ली और जौनपुर के सम्बन्धों में कटुता आ गई। दिल्ली के सैय्यद सुल्तानों के साथ उसके सम्बन्ध खराब रहे। इसका मुख्य कारण दोनों राज्यों की विस्तारवादी नीति थी। इब्राहीम शाह शर्की ने बंगाल को जीतने का प्रयास किया परन्तु उसे कोई सफलता नहीं मिली। इब्राहीमशाह शर्की ने जौनपुर में मुस्लिम संस्कृति की उन्नति के लिए अनेक उपाय किए। उसके समय में जौनपुर उत्तर भारत में मुस्लिम संस्कृति का एक प्रमुख केन्द्र बन गया।
इब्राहीम शाह शर्की ने मुस्लिम विद्वानों को उदारतापूर्वक आश्रय प्रदान किया जिन्होंने अनेक ग्रन्थों की रचना की। इब्राहीमशाह ने जौनपुर में अनेक भव्य भवनों का निर्माण करवाया। ई.1440 में उसकी मृत्यु हो गई।
इब्राहीमशाह शर्की की मृत्यु के बाद उसका पुत्र महमूदशाह शर्की जौनपुर का सुल्तान बना। उसे चुनार का दुर्ग जीतने में सफलता मिली परन्तु वह कालपी दुर्ग को जीतने में असफल रहा। महमूदशाह शर्की ने दिल्ली पर भी आक्रमण किया परन्तु बहलोल लोदी ने उसे परास्त करके खदेड़ दिया। महमूदशाह के इस कृत्य से दिल्ली और जौनपुर की प्रतिद्वन्द्विता और भी अधिक तीव्र हो गई।
महमूदशाह के बाद उसका पुत्र मुहम्मद शाह शर्की जौनपुर का सुल्तान बना। उसके समय में भी दिल्ली और जौनपुर का संघर्ष जारी रहा। कुछ समय बाद मुहम्मदशाह शर्की के भाई ने सुल्तान मुहम्मदशाह शर्की की हत्या करवा दी और स्वयं हुसैनशाह के नाम से तख्त पर बैठ गया। उसके समय में बहलोल लोदी ने जौनपुर पर भीषण आक्रमण किया। ई.1479 में हुसैनशाह शर्की बुरी तरह परास्त होकर बिहार की ओर भाग गया। बहलोल लोदी ने जौनपुर को दिल्ली सल्तनत में मिला लिया।
इस प्रकार दिल्ली सल्तनत से अलग होने के 75 वर्ष बाद जौनपुर पुनः दिल्ली सल्तनत का सूबा बना। दिल्ली के सुल्तान बहलोल लोदी ने जौनपुर का भाग अपने बड़े पुत्र बारबकशाह को सौंप दिया। बहलोल लोदी की मृत्यु के बाद उसका तीसरा पुत्र निजाम खाँ ‘सिकन्दरशाह लोदी’ के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठा। जौनपुर के गवर्नर बारबकशाह ने दिल्ली की अधीनता मानने से मना कर दिया परन्तु सिकन्दर लोदी ने उसे पराजित करके दिल्ली के अधीन किया।
बारबकशाह अयोग्य निकला और जौनपुर में विद्रोह उठ खड़ा हुआ। अन्त में सिकन्दर लोदी ने विद्रोह का दमन किया और जौनपुर में एक नये सूबेदार को नियुक्त किया। सिकंदर लोदी ने अपने बड़े भाई बारबकशाह को जेल में डाल दिया गया।
सिकन्दर लोदी की मृत्यु के बाद उसका बड़ा पुत्र इब्राहीम लोदी दिल्ली के तख्त पर बैठा। इस अवसर पर इब्राहीम के भाई जलाल खाँ ने स्वयं को कालपी का सुल्तान घोषित कर दिया। इस पर इब्राहीम ने जलाल खाँ को जौनपुर का स्वतंत्र शासक बना दिया किंतु जब जलाल खाँ ने इस पर भी इब्राहीम लोदी का विरोध करना नहीं छोड़ा तो इब्राहीम लोदी ने उसकी हत्या करवा दी। इसके बाद जौनपुर कभी भी स्वतंत्र राज्य नहीं रहा।
जौनपुर की तरह खानदेश भी दिल्ली सल्तनत का अंग था किंतु स्वतंत्र राज्य के रूप में विकसित होने में सफल रहा। खानदेश मध्य भारत में ताप्ती नदी की घाटी में स्थित था।
दिल्ली के सुल्तान फिरोजशाह तुगलक ने मलिक राजा फारूकी को खानदेश का सूबेदार नियुक्त किया था। फीरोजशाह की मृत्यु के बाद केन्द्रीय सत्ता के कमजोर पड़ते ही फारूकी ने दिल्ली से सम्बन्ध विच्छेद कर लिए तथा स्वयं को खानदेश का स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया। कुछ समय बाद ही उसे गुजरात के सुल्तान मुजफ्फरशाह (प्रथम) से युद्ध करना पड़ा जिसमें खानदेश का सुल्तान राजा फारूकी परास्त हुआ। ई.1399 में उसकी मृत्यु हो गई।
मलिक राजा फारूकी के बाद उसका पुत्र मलिक नासिर खानदेश का सुल्तान बना। उसने असीरगढ़ को जीता किन्तु उसे गुजरात के सुल्तान अहमदशाह से परास्त होकर उसकी प्रभुसत्ता स्वीकार करनी पड़ी। बहमनी सुल्तान के हाथों भी उसे पराजय का स्वाद चखना पड़ा। ई.1438 में उसकी मृत्यु हो गई। उसके दो उत्तराधिकारी अयोग्य निकले।
ई.1457 में आदिल खाँ (द्वितीय) खानदेश का सुल्तान हुआ। उसने एक तरफ तो गोंडवाना को जीतकर अपने राज्य की सीमाओं का विस्तार किया और दूसरी तरफ प्रशासनिक सुधारों को लागू करके शासन व्यवस्था को सुदृढ़ बनाने का प्रयास किया।
ई.1501 में आदिल खाँ (द्वितीय) की मृत्यु के बाद उसका भाई दाऊद खाँ खानदेश का सुल्तान बना परन्तु ई.1508 मंे उसका देहान्त हो गया और उसका पुत्र गाजी खाँ खानदेश का सुल्तान हुआ परन्तु एक सप्ताह बाद ही उसे जहर देकर मार दिया गया। दाऊद की मृत्यु के बाद खानदेश के तख्त के दो दावेदार उठ खड़े हुए। एक दावेदार का पक्ष अहमदनगर के सुल्तान ने लिया तो दूसरे दावेदार का समर्थन गुजरात के सुल्तान ने किया। अन्त में गुजरात के सुल्तान महमूद बेगड़ा द्वारा समर्थित दावेदार शहजादा, आदिल खाँ (तृतीय) के नाम से खानदेश का शासक हुआ। उसे गुजरात के करद शासक की भाँति शासन करना पड़ा।
ई.1520 में आदिल खाँ (तृतीय) की मृत्यु हो गई तथा उसके बाद उसका पुत्र महमूद (प्रथम) खानदेश का सुल्तान बना। वह भी गुजरात की अधीनता में रहा। उसमें न तो शक्ति थी और न योग्यता।
डॉ. आशीर्वादीलाल श्रीवास्तव ने लिखा है- ‘दिल्ली से दूर होने तथा इसकी आन्तरिक स्थिति ठीक नहीं होने के कारण उस युग की राजनीति में खानदेश का कोई महत्त्वपूर्ण स्थान नहीं रहा।’
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता