1857 ई. की सैनिक क्रान्ति के लिये भारतीय समाचार पत्रों को दोषी ठहराया गया। भारतीय लेखकों ने यह कभी स्वीकार नहीं किया कि तत्कालीन समाचार पत्रों ने विस्फोटक स्थिति उत्पन्न करने में योगदान दिया परन्तु जे. लोंग, जो सदैव भारतीय पत्रों के समर्थक रहे थे, ने अपनी 1858 ई. की रिपोर्ट में लिखा कि यदि कम्पनी के अधिकारियों ने दिल्ली से प्रकाशित जनवरी 1857 के भारतीय पत्रों का अवलोकन किया होता तो स्पष्ट हो जाता कि भारतीय इस क्रान्ति के लिए कितने उतावले थे और ईरान तथा रूस से सहायता की आशा कर रहे थे। वस्तुतः उस समय भारतीय तथा अँग्रेजों के समाचार पत्रों में भारतीय क्रान्ति को लेकर जो वातावरण बना, वह भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में अत्यंत महत्त्वपूर्ण था।
लॉर्ड केनिंग द्वारा बनाये गये कानून
जून 1857 में लॉर्ड केनिंग ने प्रेस सम्बन्धी नये कानून प्रस्तुत करते हुए कहा- ‘यह सबको विदित नहीं है कि इन पत्रों ने राजद्रोह को समाचारों के रूप में जनता में फैलाया है। यह काम बड़ी चतुराई से किया गया, तथ्यों को तोड़-मरोड़ कर उनका अनुचित प्रसंग एवं अर्थ प्रस्तुत कर जनता एवं शासकों के बीच असन्तोष को बढ़ावा दिया गया है। यद्यपि यूरोपियन पत्रों ने राजभक्ति का परिचय दिया तथापि उनके पत्रों में कुछ अंश ऐसे अवश्य छपे जिनका उपयोग भारतीयों के समक्ष विषम स्थिति प्रस्तुत करने के लिए किया गया। इसलिए यह कानून यद्यपि यूरोपियन पत्रों के विरुद्ध नहीं है परन्तु कोई भी कानून जिसके द्वारा विदेशी और भारतीय पत्रों में भेदभाव किया जाये, न्यायोचित नहीं होगा। इसलिए यह हर प्रकार के प्रकाशन पर समान रूप से लागू होगा।’
लॉर्ड केनिंग ने कहा कि वह इस कानून को प्रस्तुत करके प्रसन्न नहीं है परन्तु ऐसी स्थितियाँ आती है जब स्वतन्त्रता और अधिकारों का बलिदान करना पड़ता है। यह कानून एक वर्ष के लिए अर्थात 13 जून 1858 तक लागू रहेगा। 1857 ई. के अधिनियम 15वें के अन्तर्गत अब प्रत्येक प्रेस के मालिक को एक लाइसेंस लेना होगा तथा शासन को यह अधिकार होगा कि वह किसी भी पत्र-पत्रिका अथवा पुस्तक के प्रकाशन पर रोक लगा दे। 18 जून 1858 को जारी सरकारी आदेश से केवल उन्हीं पत्रों को लाइसेंस देने की घोषणा की गई जो भविष्य में ब्रिटिश शासन की आलोचना नहीं करेंगे, सरकारी कर्मचारियों के विरुद्ध घृणा अथवा द्वेष की भावना का प्रचार नहीं करंेगे तथा सरकारी अधिकारियों के आदेशों का विरोध नहीं करेंगे। केनिंग का यह कानून एडम कानूनों जैसा ही था किन्तु केनिंग ने इस कानून को को सारे भारत में एक समान रूप से लागू किया जबकि एडम कानून, अँग्रेजी पत्रों पर लागू नहीं था।
भारतीय समाचार पत्रों पर कार्यवाही
केनिंग के इस कानून से कई समाचार पत्रों को हानि उठानी पड़ी। द्वारिकानाथ टैगोर के बंगाल हरकारू का अनुमति पत्र छिन गया। 25 जून 1857 को फ्रेण्ड्स ऑफ इण्डिया में प्लासी के सौ वर्ष शीर्षक से एक लेख छपा। इसे सरकारी अधिकारियों ने आपत्तिजनक माना और पत्र को गम्भीर चेतावनी दी। अनेक भारतीय समचार पत्रों- बोम्बे समाचार, जामे-जामशेद, रास्तगुफ्तार आदि ने अँग्रेजी समाचार पत्रों द्वारा अपनाये गये भारत विरोधी रुख की आलोचना की। ब्रिटिश अधिकारियों ने दूरबीन, सुल्तान-उल-अखबार तथा समाचार सुधा दर्पण आदि समाचार पत्रों के विरुद्ध कार्यवाहियाँ की। गुलशन-ए-नौ-बहार ने छापाखाना छिन जाने पर प्रकाशन ही बन्द कर दिया। 1857 ई. की क्रान्ति समाप्त हो जाने पर भी कई अँग्रेजी अखबारों में भारतीयों के खून की माँग की जा रही थी। क्योंकि उन्होंने असंख्य अँग्रेजों की हत्याएँ की थीं। बोम्बे टाइम्स के जॉर्ज ब्यूएस्ट ने बदले की भावना को भड़काया। कलकत्ता के ईसाइयों ने महारानी विक्टोरिया से माँग की कि केनिंग का प्रेस एक्ट केवल भारतीय भाषाओं के पत्रों पर लागू किया जाये। इस प्रकार 1857 ई. की क्रान्ति के समय और बाद में एंग्लो-इण्डियन प्रेस में जो कुछ सामग्री छपी, उससे भारतीयों द्वारा सम्पादित पत्रों में रोष उत्पन्न हुआ। इस रोष ने राष्ट्रीयता की भावना को हवा दी। यद्यपि 1857 ई. की क्रान्ति में सेना के भारतीय सिपाहियों ने मुख्य रूप से भाग लिया था, फिर भी भारतीय समाचार पत्रों ने देश में राजनीतिक जागृति का जो वातावरण तैयार किया उससे अब अँग्रेज सतर्क हो गये।
भारतीय समाचार पत्रों में आशा का संचार
1857 ई. की क्रान्ति के दमन के बाद भारत में ईस्ट इण्डिया कम्पनी का शासन समाप्त करके ब्रिटिश क्राउन का शासन स्थापित हुआ। लॉर्ड केनिंग को भारत का वायसराय बनाया गया। महारानी विक्टोरिया की घोषणा और संवैधानिक परिवर्तन से भारतीय समाचार पत्रों में नवीन आशा का संचार हुआ। भारतीय जनता में शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ। भारतीय बुद्धिजीवियों को अपने विचार जनता तक पहुँचाने के लिए अनेक भारतीय भाषाओं में नये समाचार पत्र प्रकाशित करने पड़े। इनके माध्यम से देशभक्ति तथा राजनीतिक जागृति का काम आगे बढ़ा।
प्रसिद्ध समाचार पत्रों का आरम्भ
1857 ई. से 1867 ई. के बीच भारत के अनेक प्रसिद्ध समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। उनमें से कई समाचार पत्रों का प्रकाशन आज तक हो रहा है। 28 सितम्बर 1861 को बोम्बे टाइम्स (जिसके अन्तर्गत बोम्बे स्टैण्डर्ड, दी टेलीग्राफ तथा कूरियर थे) ने अपना नाम बदलकर दी टाइम्स ऑफ इण्डिया कर लिया। इसी प्रकार 1865 ई. में इलाहाबाद से पायोनियर और 1857 ई. में कलकत्ता से स्टेट्समैन का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1868 ई. में गिरीशचन्द्र घोष ने बंगाली पत्र निकाला जो हिन्दू पैट्रियट की भाँति स्पष्टवादी और साहसी था। आगे चलकर इसे सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने खरीद लिया। इस काल में भारतीय समाचार पत्रों का ध्यान राजनीतिक तथा राष्ट्रीय विचारों के प्रचार पर केन्द्रित था। ईश्वरचन्द्र विद्यासागर के सोम प्रकाश में भी राजनीतिक विषयों पर स्पष्ट टिप्पणियां की जाती थीं। नील दर्पण नाटक के कारण उत्पन्न विवाद में सोम-प्रकाश का योगदान महत्त्वपूर्ण था। इण्डियन मिरर भी उस काल का महत्त्वपूर्ण समाचार पत्र था जिसे मनमोहन घोष और द्वारिकानाथ टैगोर ने मिलकर निकाला। बाद में यह केशवचन्द्र सेन द्वारा सम्पादित किया गया। केशवचन्द्र सेन ने सबसे पहले एक पैसे कीमत का सुलभ समाचार पत्र प्रकाशित किया जिसे बड़ी सफलता मिली। 1867 ई. से 1877 ई. के बीच अनेक प्रगतिशील तथा लोकप्रिय पत्र आरम्भ हुए। केशवचन्द्र सेन के सुलभ समाचार की भाँति बंगला भाषा में साप्ताहिक भारत श्रमजीवी का मूल्य एक पैसा रखा गया। इसके सम्पादक शशिपद बंद्योपाध्याय थे। इसके ग्राहकों की संख्या पन्द्रह हजार तक पहुँच गई। 1872 ई. में बंगला के प्रसिद्ध लेखक बंकिमचन्द्र चटर्जी का बंगदर्शन आरम्भ हुआ। इसके कुछ समय बाद ही द्विजेन्द्रनाथ ठाकुर की भारती एवं आर्य दर्शन, योगेन्द्रनाथ विद्याभूषण का बान्धव और रवीन्द्रनाथ की साधना नामक पत्रिकाएं आरम्भ हुईं। इन पत्रिकाओं का बंगला साहित्य के विकास और संवर्द्धन में विपुल योगदान रहा।
हिन्दू पैट्रियट का योगदान
हरिशचन्द्र मुकर्जी द्वारा बंगाल से प्रकाशित हिन्दू पैट्रियट का भारतीय पत्रकारिता के विकास में प्रमुख योगदान रहा। इस पत्र में नील की खेती करने वाले अँग्रेज अधिकारियों द्वारा किये जा रहे शोषण के विरुद्ध जमकर लिखा गया तथा नीलहे साहबों द्वारा भारतीय मजदूरों पर अत्याचारों की मार्मिक घटनाओं का विवरण दिया गया। इन्हें पढ़कर भारतीयों का खून खौल उठता था। 1861 ई. में हरिशचन्द्र मुकर्जी के देहान्त के बाद हिन्दू पैट्रियट कुछ समय के लिये शिथिल पड़ गया किन्तु क्रिस्टोपाल दास के सम्पादकत्व में यह पुनः उसी जोर-शोर से प्रकाशित होने लगा। क्रिस्टोपाल दास ने बड़ौदा नरेश मल्हारराव गायकवाड़ को पदच्युत किये जाने की कटु आलोचना की। क्रिस्टोपाल दास राजनीति तथा पत्रकारिता दोनों ही क्षेत्रों में विशिष्ट पहचान रखते थे। ब्रिटिश अधिकारी हिन्दू पैट्रियट के विचारों को भारतीयों की भावना का प्रतीक मानते थे। क्रिस्टोपाल दास ने लगभग 23 वर्षों तक इस पत्र का सम्पादन किया। वे ब्रिटिश इण्डियन एसोसियेशन के सचिव भी रहे। यद्यपि हिन्दू पैट्रियट के रुख में अपेक्षाकृत नरमी रही किन्तु अनेक अवसरों पर इस पत्र ने अँग्रेजी शासन का जमकर विरोध किया।
अमृत बाजार पत्रिका का योगदान
इस काल में प्रारम्भ हुआ अमृत बाजार पत्रिका भारतीय पत्रकारिता के इतिहास में मील का पत्थर था। इसका उदय 1868 ई. में बंगलादेश के जेसोर जिले के एक छोटे से गाँव में हुआ था। इस गाँव के घोष परिवार के तीन भाइयों- बसन्त कुमार, हेमन्त कुमार और शिशिर कुमार ने मिलकर इस पत्र को आरम्भ किया। घोष बन्धु ब्रह्म समाजी थे। इनमें से दो भाई- शिशिर कुमार और हेमन्त कुमार, सरकार में डिप्टी कलेक्टर थे और तीसरे भाई बसन्त कुमार अपने गाँव में रहकर कामकाज देखते थे। बसन्त कुमार ने एक छोटा प्रेस खरीद कर बंगला भाषा में अमृत प्रवाहिनी नामक पाक्षिक पत्रिका आरम्भ की। बसन्त कुमार की मृत्यु हो जाने पर, घोष परिवार ने अमृत प्रवाहिनी के स्थान पर बंगला भाषा में अमृत बाजार पत्रिका के नाम से साप्ताहिक समाचार पत्र आरम्भ किया। पत्रिका की निर्भीक नीति के कारण उसके प्रबन्धकों को शासन के क्रोध का शिकार होना पड़ता था। पत्रिका के 7 मई 1868 के अंक में स्वतन्त्र होने की कामना रखने वाली एक कविता प्रकाशित हुई। 1870 ई. में पत्रिका में प्रकाशित एक लेख में भारतीय हितों की व्याख्या करते हुए देश की राजनीतिक समस्याओं के समाधान के लिए संसदीय शासन का सुझाव दिया गया। पत्रिका के प्रकाशन को अभी दो वर्ष पूरे नहीं हुए थे कि उस पर एक भारतीय महिला का अँग्रेज डिप्टी मजिस्ट्रेट द्वारा किये गये बलात्कार का समाचार छापने का मुकदमा चलाया गया जिसमें मुद्रक और संवाददाता को कारावास की सजा सुनाई गई। फिर भी पत्रिका अपनी निर्भीक नीति पर चलती रही। पत्रिका ने राष्ट्रीयता के पोषण और विकास में अग्रणी रूप से भाग लिया। 1875 ई. में जब बड़ौदा नरेश गायकवाड़ द्वारा अपने दरबार में अँग्रेज रेजीडेण्ट कर्नल फायरे को विष देने का प्रयास किया गया तो पत्रिका ने टिप्पणी की- ‘निष्कंटक राज्य करने के लिये एक अज्ञात कर्नल को विष देना, निःसंदेह एक समूचे राष्ट्र को नपुंसक बना देने की तुलना में एक छोटा अपराध है।’
इस प्रकार अमृत बाजार पत्रिका के प्रकाशन से भारतीय समाचार पत्रों के तेवरों में परिवर्तन दिखाई देने लगा। इसने भारतीय समाचार पत्रों के लिए एक आदर्श उपस्थित किया और राष्ट्रीयता की भावनाओं का प्रसार किया।
अन्य प्रांतों में पत्रकारिता का विकास
भारत के अन्य प्रान्तों में भी समाचार पत्रों की संख्या में पर्याप्त वृद्धि हुई। पंजाब के सिविल और मिलिट्री गजट तथा लाहौर के प्रसिद्ध पत्र ट्रिब्यून की स्थापना भी इसी समय हुई। ब्रिटिश ताज के शासन में भारत नवजागरण के पथ पर अग्रसर हुआ। नयी बौद्धिक चेतना ने भारतीयों को उत्साहित किया और वे समाज सुधार, शिक्षा के विकास, देश की राजनीतिक समस्याओं आदि अनेक प्रश्नों को सुलझाने में लग गये। इस दिशा में भारतीय समाचार पत्र, पत्रिकाओं ने अपूर्व योगदान दिया। भारतीय प्रकाशनों को वर्नाक्यूलर प्रेस (देशी छापाखाना) कहा जाता था। 1876 ई. में बम्बई प्रेसीडेन्सी से मराठी, गुजराती, हिन्दुस्तानी और फारसी के पत्रों की संख्या 62 थी, उत्तर-पश्चिमी प्रदेश से 60, बंगाल से 28 एवं मद्रास से तमिल, तेलगू, मलयालम तथा हिन्दुस्तानी में 19 समाचार पत्र प्रकाशित हो रहे थे। इन समाचार पत्रों की अनुमानित ग्राहक संख्या लगभग एक लाख थी।
लॉर्ड लिटन का वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट
भारतीय समाचार पत्रों में अँग्रेजी अधिकारियों के विरुद्ध निर्भिकता से समाचार प्रकाशित किये जाते थे। वायसराय लॉर्ड लिटन के कार्यकाल में 14 मार्च 1878 को वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट की घोषणा की गई। इस कानून के अनुसार सरकार को यह अधिकार मिल गया कि वह भारतीय भाषा के किसी पत्र के सम्पादक, प्रकाशक अथवा मुद्रक से यह इकरारनामा ले सकेगी कि वह अपने समाचार पत्र में कोई ऐसी बात प्रकाशित नहीं करेगा जिससे जनता में सरकार के विरुद्ध घृणा अथवा द्रोह की भावना फैल सकती हो। यदि कोई प्रकाशक अथवा सम्पादक इस कानून के अन्तर्गत कार्य नहीं करेगा तो उसे पहली बार चेतावनी दी जायेगी और दूसरी बार में पत्र की सम्पत्ति जब्त कर ली जायेगी। समाचार पत्रों में प्रकाशित होने वाली सामग्री का प्रकाशन के पूर्व ही सरकारी अधिकारियों द्वारा सेंसर करने का प्रावधान भी रखा गया। इस कानून ने भारतीय समाचार पत्रों की स्वतंत्रता पर गहरी चोट की।
वर्नाक्यूलर प्रेस के सम्बन्ध में पारित किये गये इस अधिनियम का सर्वत्र विरोध हुआ। भारतीय समाचार पत्रों में इस अधिनियम की आलोचना में अनेक लेख लिखे गये। भारत सचिव लॉर्ड क्रेनबुक ने भी इसका विरोध किया। ब्रिटिश संसद में तत्कालीन उदार दल के नेता ग्लैडस्टोन ने इस कानून को समाप्त करने का एक प्रस्ताव संसद में रखा किन्तु उन्हें सफलता नहीं मिली। भारत सचिव की कौंसिल के तीन सदस्य भी इस कानून के विरुद्ध थे। 1878 ई. में भारत सचिव लॉर्ड क्रेनबुक के प्रयत्नों से इस सम्बन्ध में एक नया विधेयक पारित करके, सेंसर से सम्बन्ध रखने वाले अंश को निकाल दिया गया। फिर भी कानून की कठोरता में विशेष अन्तर नहीं आया। सुरेन्द्रनाथ बनर्जी ने इस कानून का विरोध करते हुए इण्डियन एसोसियेशन की ओर से ग्लैडस्टोन को एक पत्र भेजा। ग्लैडस्टोन ने यह संशोधन रखा कि इस अधिनियम के अधीन जो कार्यवाही की जाये उसकी सूचना भारत सचिव व संसद को दी जाये। यद्यपि यह संशोधन स्वीकार नहीं हुआ परन्तु यह स्पष्ट हो गया कि संसद के काफी सदस्य इसके विरुद्ध हैं। भारत सचिव लॉर्ड क्रेनबुक ने कहा कि इसका पालन सोच-विचार कर करना चाहिए। जहाँ सरकार की आलोचना सुधार के उद्देश्य से की जाये, उसे निरुत्साहित नहीं किया जाये, क्योंकि भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों से सरकार को जन-साधारण की भावनाएं जानने का अवसर मिलता है।
भारतीय भाषाओं के कई समाचार पत्रों को लॉर्ड लिटन के वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट का शिकार होना पड़ा। बंगाल के सोम प्रकाश का प्रकाशन बन्द हो गया। सरकार ने उसके प्रकाशकों को जमानत प्रस्तुत करने का आदेश दिया। इस कानून के कारण अमृत बाजार पत्रिका का रूप और कलेवर बदल गया। यह बंगला भाषा का पत्र था जो सप्ताह में दो बार प्रकाशित होता था। यह आरम्भ से ही विदेशी शासन के अत्याचारों के विरुद्ध तथा भारतीय नागरिकों के अधिकारों का समर्थक रहा। बंगाल के तत्कालीन गवर्नर सर एश्ले ने अखबार के मालिक बाबू शिशिर कुमार को प्रलोभन दिया कि यदि वे एश्ले के शासन की कड़ी आलोचना न करें और आलोचना करने से पहले पांडुलिपि उन्हें दिखा दें तो सरकार समय-समय पर उनसे सलाह लेगी और उनके अखबार की काफी प्रतियाँ खरीद लेगी। उस समय अमृत बाजार पत्रिका की आर्थिक स्थिति बहुत खराब थी परन्तु शिशिर कुमार ने कहा कि आप देश में एक ईमानदार पत्रकार तो रहने दीजिए। सर इडेन इस उत्तर से बहुत नाराज हुआ। उसने कहा- ‘मैं एक दिन तुम्हें जेल में ठूँस सकता हूँ और छः महीने में तुम्हें बोरी-बिस्तर बाँधकर जेसोर वापिस भेज सकता हूँ।’
शिशिर कुमार निर्भीक तथा चतुर पत्रकार थे। उन्होंने वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के लागू होने की तिथि से एक सप्ताह पहले अर्थात् 21 मार्च 1878 को अमृत बाजार पत्रिका का अंक अँग्रेजी भाषा में प्रकाशित कर सर इडेन को मुँह-तोड़ जवाब दे दिया। स्वयं इडेन ने कहा था कि मुझे दुःख है कि अँग्रेजी भाषा के पत्र इस एक्ट के प्रभाव क्षेत्र में नहीं आते हैं।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के प्रभाव से भारत में कुछ नवीन समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ हुआ। 1857 ई. में मद्रास से द हिन्दू नामक समाचार पत्र प्रकाशित होने लगा। इससे पहले, मद्रास से केवल दो समाचार पत्र- द नेटिव पब्लिक ओपीनियन तथा मद्रासी प्रकाशित होते थे। जी. सुब्रह्मण्यम अय्यर और वी. राघवाचार्य के सम्पादकत्व में प्रकाशित द हिन्दू ने राष्ट्रीयता के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। आरम्भ में यह साप्ताहिक पत्र था। 1883 ई. में यह सप्ताह में तीन बार प्रकाशित होने लगा और 1889 ई. में यह प्रतिदिन प्रकाशित होने लगा। अँग्रेज विद्वान ब्लंट ने द हिन्दू के सम्पादकों के सम्बन्ध में टिप्पणी की कि उनका स्तर लन्दन के समाचार पत्रों से किसी तरह कम नहीं था। आगे चलकर कस्तूरी रंगाचार्य आयगंर के सम्पादकत्व में द हिन्दू की प्रतिष्ठा और भी बढ़ गई।
वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट निरस्त
1880 ई. में इंग्लैण्ड में उदार दल की विजय हुई और ग्लैडस्टोन प्रधानमंत्री बने। वे वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट के विरोधी थे। उन्होंने लॉर्ड रिपन को भारत का गर्वनर जनरल बनाकर भेजा। लॉर्ड रिपन भारतीयों के प्रति सहानूभूति रखते थे। 1881 ई. में भारत सचिव ने भारत सरकार को लिखा कि ऐसा कानून बनाये रखने का कोई लाभ नहीं है जिससे समस्त वर्गों को समान अधिकार न मिल सकें। लार्ड रिपन ने 7 दिसम्बर 1881 को इस कानून को रद्द कर दिया। इस अवसर पर दिये गये एक भाषण में उन्होंने कहा- ‘मुझे बड़ा संतोष है कि मेरे समय में ऐसे कानून को रद्द किया जा रहा है।’ अब केवल डाकखाने को यह अधिकार रह गया कि वह ऐसी सामग्री का वितरण करने से मना कर सकता था जिससे भेदभाव अथवा अशान्ति फैलती हो। वर्नाक्यूलर प्रेस एक्ट की समाप्ति के पश्चात् भारतीय पत्रकारिता में और विकास हुआ।
बंगाली का योगदान
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी का समाचार पत्र बंगाली, राष्ट्रीय विचारों तथा निर्भीक नीतियों के कारण अपने समय के समस्त समाचार पत्रों में अग्रणी हो गया। सुरेन्द्रनाथ द्वारा की गई तीखी आलोचना से सरकार नाराज हो गई और उसने दमन का सहारा लिया। 1883 ई. में बंगाली में कलकत्ता हाईकोर्ट के एक निर्णय पर कुछ टीका प्रकाशित हुई। यह टीका अँग्रेज न्यायाधीश द्वारा भारतीय रीति-रिवाजों के विरुद्ध कहे जाने को लेकर थी। इस टीका को लेकर सुरेन्द्रनाथ बनर्जी पर अदालत का अपमान करने का वाद स्थापित किया गया और उन्हें दो माह का कारावास दिया गया। सुरेन्द्र बाबू ने इस अन्याय को स्वीकार करते हुए कहा- ‘मैं इसे अपने लिए गौरव समझता हूँ, क्योंकि जन-कर्त्तव्य का पालन करते हुए जेल जाने का सम्मान प्राप्त करने वालों में मैं अपने युग का प्रथम भारतीय हूँ।’
सुरेन्द्रनाथ बनर्जी की निर्भीकता और देशभक्ति ने देश में भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में नई चेतना उत्पन्न की। भारतीय पत्रकारों के समक्ष नये आदर्श स्थापित हुए। 19वीं शताब्दी के अन्त में बंगाल में कुछ नये पत्रों का प्रकाशन भी उल्लेखनीय है। इस समय बंगाल में बंगवासी और संजीवनी नामक दो साप्ताहिक पत्र प्रकाशित हुए। ये दोनों समाचार पत्र अपने समय के लोकप्रिय पत्र माने जाते रहे।
महाराष्ट्र में पत्रकारिता का विकास
इस समय महाराष्ट्र में भी पत्रकारिता का तेजी से विकास हुआ। पूना में उत्साही नवयुवकों द्वारा मराठी भाषा का दैनिक पत्र केसरी तथा अँग्रेजी भाषा का साप्ताहिक पत्र मराठा आरम्भ किये गये। इनमें आगरकर और बालगंगाधर तिलक के नाम विशेष उल्लेखनीय हैं। बालगंगाधर तिलक के समाचार पत्र केसरी का प्रकाशन 4 जनवरी 1881 को तथा मराठा का प्रकाशन 2 जनवरी 1881 को प्रारम्भ किया गया। लोकमान्य तिलक ने भारतीय पक्ष का जोरदार समर्थन किया। उन्होंने अपने पत्र में अंग्रेजी शासन की नीतियों की तीखी आलोचना की। 19वीं शताब्दी के अन्त में राष्ट्रीयता की जो नयी लहर महाराष्ट्र में उठी, उसके जन्मदाता लोकमान्य बाल गंगाधर तिलक थे। तिलक ने ‘स्वतंत्रता हमारा जन्म सिद्ध अधिकार है…..।’ का उद्घोष किया तथा अपने लेखों में विदेशी शासन से मुक्ति पाने का आह्नान किया। 1884-85 ई. में केसरी की बिक्री साढ़े चार हजार हो गई। इन पत्रों में राष्ट्रीय महत्त्व के समाचारों के साथ-साथ राष्ट्रीय आन्दोलन से सम्बन्धित समाचार तथा लेख छपते थे। ब्रिटिश शासन की आलोचना के कारण 1897 ई. में तिलक पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया। तिलक, अमृत बाजार पत्रिका के सम्पादक शिशिर कुमार को अपना गुरु मानते थे। तिलक ने कई बार स्वयं कहा कि वे अपने पत्रों में विशेषतः केसरी के संचालन में अमृत बाजार पत्रिका की नीति एवं पद्धति का पालन करते रहे हैं।
1885 ई. में इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के बाद भारतीय पत्रकारिता के क्षेत्र में क्रांतिकारी परिवर्तन हुआ। कांग्रेस के प्रथम अधिवेशन में बम्बई के रास्तगुफ्तार , कलकत्ता के इण्डियन मिरर, मद्रास के द हिन्दू और पूना के मराठा तथा केसरी आदि कई भारतीय समाचार पत्रों के सम्पादकों तथा प्रतिनिधियों ने सक्रिय सहयोग दिया तथा सम्मेलन की गतिविधियों को राष्ट्रव्यापी प्रचार दिया। 1891 ई. में रामानन्द चटर्जी ने अँग्रेजी की सफल पत्रिका मार्डन रिव्यू का सम्पादन कर कीर्तिमान स्थापित किया। 1894 ई. में सच्चिदानन्द सिन्हा के प्रयत्नों से पटना में बिहार टाइम्स का प्रकाशन आरम्भ हुआ। उन्नीसवीं शताब्दी में प्रकाशित होने वाला अन्तिम जर्नल इण्डियन रिव्यू था। इसका प्रकाशन जनवरी 1900 में मद्रास के राष्ट्रवादी विचारधारा के सम्पादक जी. ए. नरेशन द्वारा किया गया। इसमें समकालीन पत्रिकाओं के भारतीय समस्याओं से सम्बन्धित अंश प्रकाशित किये जाते थे।
उन्नीसवीं सदी के अन्त में समाचार पत्र
19वीं शताब्दी में भारत में पत्रकारिता के विकास के तीन चरण थे-
(1.) पहला चरण (1801 से 1817 तक): 19वीं शताब्दी के पहले दो दशकों में उदार यूरोपियन सम्पादकों द्वारा अँग्रेजी भाषा के पत्र-पत्रिका प्रकाशित किये गये जिनमें प्रशासनिक अधिकारियों की व्यक्तिगत बातें, नियुक्तियां तथा यूरोप के व्यापार आदि से सम्बन्धित समाचार छपते थे। इनमें प्रकाशित कुछ समाचारों के कारण उन समाचार पत्रों का सरकार से विवाद हुआ तथा उन्हें अपना प्रकाशन बन्द करना पड़ा। इन पत्रों का सबसे कमजोर पक्ष यह था कि इनकी प्रसार संख्या बहुत कम थी क्योंकि केवल अँग्रेजी शिक्षित लोग ही उन्हें पढ़ सकते थे।
(2.) दूसरा चरण (1818 से 1885 ई. तक): 1818 ई. में ईसाई मिशनरियों ने भारतीय भाषाओं में समाचार पत्रों का प्रकाशन आरम्भ किया। राजा राममोहन राय जैसे समाज सुधारकों ने इनका विस्तार किया। भारतीय भाषाओं में होने के कारण इन समाचार पत्रों से भारत में शैक्षणिक विकास, सामाजिक कुरीतियों के विरुद्ध जागृति तथा धार्मिक आन्दोलनों के प्रचार-प्रसार में सहायता मिली। प्रबुद्ध भारतीयों ने इन पत्रों के माध्यम से सरकार से अपील की कि वह भारतीयों की दशा सुधारने का प्रयत्न करे। इस काल के भारतीय समाचार पत्रों का स्वर रचनात्मक था। वे सरकार से भारतीय समाज की विसंगतियों को दूर करने का आग्रह करते थे। बाद में उनका ध्यान कम्पनी शासन द्वारा किये जा रहे शोषण पर केन्द्रित हो गया। 1857 ई. की क्रांति के पश्चात् भारतीय समाचार पत्र विदेशी सरकार द्वारा किये जा रहे शोषण के विरुद्ध अधिक मुखर हो गये। हिन्दू पैट्रियट के सम्पादक हरिश्चन्द मुकर्जी को नौकरशाही तथा नीलहे साहबों द्वारा किये जा रहे भारतीय मजदूरों के शोषण के विरुद्ध लिखने के कारण सरकार के कोप का भाजन होना पड़ा। इस कारण 29 अगस्त 1861 को एक विशाल सभा का आयोजन किया गया जिसमें मुकर्जी के विरुद्ध कार्यवाही करने वाले अँग्रेज अधिकारी सर मारडेन्ट वेल्स की तीव्र भर्त्सना की गई।
(3.) तीसरा चरण (1885 एवं उसके बाद): 1885 ई. में इण्डियन नेशनल कांग्रेस की स्थापना के बाद भारतीय पत्रकारिता का तीसरा चरण आरम्भ हुआ। इस काल में राष्ट्रीयता की भावना का तेजी से विकास हुआ जिसे समाचार पत्रों ने स्वर प्रदान किया। इस काल के कतिपय एंग्लो-इण्डियन समाचार पत्रों- पायोनियर तथा द मॉर्निंग पोस्ट को छोड़कर लगभग समस्त भारतीय समाचार पत्रों में राष्ट्रीय भावना की नई लहर दिखाई देती है। कांग्रेस के अधिकांश प्रमुख नेता भी इस काल में समाचार पत्रों से सम्बद्ध रहे तथा उनके द्वारा इन समाचार पत्रों का उपयोग कांग्रेस की नीतियों और कार्यक्रमों के लिए किया गया। इस काल के समाचार पत्रों ने विदेशी शासन की आलोचना करने में संकोच नहीं किया। अमृत बाजार पत्रिका ने इस अवधि में कतिपय देशी राजाओं के अधिकारों की रक्षा के लिए सरकारी नीतियों की आलोचना की। विभिन्न समाचार पत्रों ने महाराजा मल्हारराव गायकवाड़, महारानी रींवा, बेगम भोपाल आदि के मामलों को विस्तार से छापकर जनता के समक्ष सरकारी नीति की पोल खोल दी। समाचार पत्रों ने गिलगिट प्रदेश पर अधिकार करने के सरकारी षड़यंत्र का भण्डाफोड़ किया। समाचार पत्रों द्वारा सरकारी नीति की आलोचनाओं के कारण सरकार ने 1889 ई. में एक कानून पारित किया। इसके बाद किसी समाचार पत्र को यह अधिकार नहीं रह गया कि वह शासन की गुप्त सूचनाओं अथवा दस्तावेजों के आधार पर कोई समाचार प्रकाशित करे। सरकार का आक्रोश केवल भारतीय भाषाओं के समाचार पत्रों पर था। इस पर भी भारतीय समाचार पत्र देश की सम-सामयिक समस्याओं के प्रति जागरूक बने रहे। 19वीं शताब्दी के अन्तिम दशक में महाराष्ट्र व भारत के अन्य पश्चिमी भागों में भीषण अकाल पड़ा। इसके बाद प्लेग की बीमारी फैलने से सैकड़ों व्यक्ति प्रतिदिन मरने लगे। सरकार ने इस महामारी को रोकने के उपाय किये किंतु ये उपाय अपर्याप्त थे। इस कारण जनता को राहत नहीं मिली। सरकारी कर्मचारी भारतीयों के धर्म और सम्मान की भी उपेक्षा करने लगे। सरकार की नीति से जनता में इतना आक्रोश फैला कि पूना के प्लेग कमिश्नर की हत्या कर दी गई। समाचार पत्रों ने भी सरकार की नीति का घोर विरोध किया। सरकार ने उन समाचार पत्रों के विरुद्ध कार्यवाही की। केसरी में प्रकाशित एक लेख के लिये लोकमान्य बालगंगाधर तिलक पर मुकदमा चलाया गया और उन्हें डेढ़ वर्ष का कारावास दिया गया। सरकार द्वारा समाचार पत्रों का दमन इस बात का प्रमाण था कि इस काल में भारतीय समाचार पत्र भारतीय हितों और राष्ट्रीयता की भावना का स्वर बुलंद किये हुए थे।