बदजात महावतखाँ बादशाह से कोई दुर्व्यवहार तो नहीं करता था किंतु उसने बादशाह पर ढेर सारी पाबंदियाँ लाद दी थीं जो किसी दुर्व्यवहार से कम नहीं थीं। बिना महावतखाँ की इजाजत के कोई परिंदा तक बादशाह के पास पर नहीं मार सकता था। उसे सुबह-शाम दो सेर शराब और आधा सेर कबाब दिया जाता था। न तो वह हवा खोरी के लिये अपने डेरे से बाहर निकल सकता था और न घोड़े पर सवार हो सकता था। बादशाह से उसकी तलवार भी छीन ली गयी थी तथा उसे किसी से भी बात करने की इजाजत नहीं थी।
इन पाबंदियों में जकड़ा हुआ जहाँगीर बुरी तरह छटपटाता था। उसे रह-रह कर वे दिन याद आते थे जब वह अपने मरहूम बाप जलालुद्दीन अकबर के आदेश से राजा शालिवाहन की देखरेख में हमाम में कैद कर दिया गया था। अपने स्वभाव के विपरीत जहाँगीर उद्यम करने को तैयार था किंतु वहाँ से छूट भागने का उसे कोई रास्ता दिखाई नहीं पड़ता था। उसके चारों ओर इतना कड़ा पहरा था कि बिना किसी बाहरी मदद के भाग निकलने की संभावना तक दिखायी नहीं देती थी।
एक दिन जहाँगीर ने पहरेदारों के मुँह से सुना कि खानखाना अब्दुर्रहीम अपना चित्रकूट प्रवास त्याग कर फिर से आगरा आ गया है और महावतखाँ से लड़ने के लिये सेना तैयार कर रहा है। बादशाह को अंधेरे में आशा की एक क्षीण किरण दिखायी दी। जहाँगीर को पक्का विश्वास था कि यदि नूरजहाँ को इस समय खानखाना की सेवाएं मिल गयीं तो जहाँगीर की रिहायी संभव है।
जहाँगीर नहीं जानता था कि जिस नूरजहाँ को वह मलिका ए आलम कहते हुए नहीं थकता था, वह तो जहाँगीर की ओर से बेफिक्र होकर अपनी जंवाई शहरयार को बादशाह बनाने की तैयारियों में जुट गयी थी और खानखाना अभी अपनी मंजिल से बहुत दूर था। जहाँगीर दिन रात नूरजहाँ और खानखाना की सम्मिलित सेना के आने की राह देखता था किंतु इंतजार था कि खत्म होने में ही नहीं आता था। न तो नूरजहाँ आती थी और न खानखाना की सेना के आगरा से कूच करने का समाचार आता था।
वह हर सुबह उम्मीद का नया उजाला देखने की चाह में उठता था और हर शाम नाउम्मीदी के अंधेरे में जा धंसता था। धीरे-धीरे जहाँगीर की नाउम्मीदी बढ़ती ही जाती थी। यहाँ तक कि उसका खाना-पीना भी छूटने लगा।
एक रात महावतखाँ के डेरे में ईरान से लायी गयी रक्कासाओं का मुजरा आयोजित किया गया। ईरानी रक्कासाओं[1] के आने की खुशी में बड़ा जश्न हुआ। मनों शराब पानी की तरह बही। हजारों अशर्फियाँ खील-बताशों की तरह हवा में उछाली गयीं। हर ओर मौज-मस्ती का आलम था। पहरेदारों को भी मुफ्त की शराब मिली तो उन्होंने भी छक कर पी ली। आधी रात होते-होते तो आलम यह हो गया कि हर कोई शराब के नशे में चूर होकर लुढ़क गया।
मैदान साफ था। बादशाह पर निगाह रखने वाला कोई भी पहरेदार अपने होश में न था। जहाँगीर ने अपना भाग्य सराहा और अच्छा मौका जानकर डेरे से भाग निकला।
डेरे से बाहर आते ही उसका कलेजा धक से रह गया। अंधेर में निकल कर आये किसी काले साये ने उसकी कलाई पकड़ ली थी। जहाँगीर को लगा कि अब तक का सारा उद्यम व्यर्थ गया। उसने यह पूछने के लिये होंठ खोलने चाहे कि किस गुस्ताख ने बादशाह का हाथ पकड़ने की हिमाकत की है किंतु उससे पहले ही साया फुसफुसा कर बोला- ‘उस ओर नहीं हुजूर, इस ओर।’
जहाँगीर को यह आवाज बहुत जानी पहचानी लगी किंतु वह पहचान न सका कि यह कौन हो सकता है? फिर भी उसने अनुमान किया कि जो कोई भी हो, यह है मित्र ही। वह चुपचाप काले साये के साथ चलने लगा। थोड़ी दूर चलते ही एक पेड़ के नीचे दो घोड़े बंधे हुए मिले। पास ही कुछ और साये घोड़ों पर सवार थे।
काले साये ने बादशाह को एक घोड़े पर सवार करवाया और स्वयं दूसरे घोड़े पर सवार हो गया। काले साये के सवार होते ही घोड़े हवा से बातें करने लगे। लगभग दो घड़ी तक घोड़ा दौड़ाने के बाद काले साये ने अपने घोड़े की रफ्तार कम की। बादशाह को घोड़े पर दो घड़ी तक तेज रफ्तार करने का अभ्यास नहीं था, वह बुरी तरह हांफ रहा था।
जब घोड़े बिल्कुल रुक गये तो काला साया अपने घोड़े से उतर कर बादशाह के घोड़े के पास आया और सिर झुकाकर बोला-
– ‘ बादशाह सलामत को गुलाब अब्दुर्रहीम का सलाम कुबूल हो।’
अब्दुर्रहीम का नाम सुनते ही बादशाह की नसों में रक्त का प्रवाह तेज हो गया। उसने घोड़े से उतर कर खानखाना को गले से लगा लिया।
– ‘खानबाबा! आखिर आपने यह करिश्मा कर ही दिखाया।’ बादशाह ने भावविभोर होकर कहा।
– ‘यह करिश्मा मेरा नहीं है आलीजाह! वह तो मेरी उन रक्कासाओं का कमाल है जो महावतखाँ के डेरे में बेधड़क घुस गयीं।’
– इस मुबारक मौके पर हम सबसे पहले मलिका ए आलम नूरजहाँ का मुबारक मुँह देखना चाहते हैं।’
– ‘बादशाह सलामत की इच्छा हर हाल में पूरी की जायेगी।’ खानखाना फिर से घोड़े पर सवार होते हुए बोला।
[1] नृत्यांगनाओं।