दिल्ली के सुल्तान गियासुद्दीन बलबन ने अपने बड़े शहजादे मुहम्मद की मृत्यु हो जाने के कारण अपने द्वितीय पुत्र बुगरा खाँ को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त करना चाहा किंतु बुगरा खाँ अपने पिता के कठोर स्वभाव से डरकर चुपचाप दिल्ली छोड़कर लखनौती चला गया। इस पर बलबन ने शहजादे मुहम्मद के पुत्र कैखुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
ई.1287 में बलबन की मृत्यु के बाद दिल्ली के कोतवाल मलिक फखरूद्दीन ने कैखुसरो को सुल्तान नहीं बनने दिया तथा कैखुसरो के विरुद्ध षड्यन्त्र रचकर बुगरा खाँ के पुत्र कैकुबाद को तख्त पर बैठा दिया ताकि सुल्तान कैकुबाद उसके हाथों की कठपुतली बनकर रह सके। जिस समय कैकुबाद तख्त पर बैठा, उस समय उसकी अवस्था केवल सत्रह वर्ष थी। वह रूपवान तथा सरल प्रकृति का युवक था। उसका पालन-पोषण तथा शिक्षा-दीक्षा बलबन ने अपने निरीक्षण में करवाए थे।
तत्कालीन इतिहासकारों ने लिखा है- ‘कैकुबाद ने कभी मद्य का सेवन नहीं किया था और न कभी रूपवती युवती पर उसकी दृष्टि पड़ी थी। उसका अध्ययन अत्यन्त विस्तृत था और उसे साहित्य से अनुराग था। उसे योग्य शिक्षकों द्वारा विभिन्न विषयों एवं कलाओं की शिक्षा दी गई थी। इस शिक्षा के प्रभाव से कैकुबाद कभी अनुचित कार्य नहीं करता था। उसके मुँह से कभी अपशब्द नहीं निकलते थे।’
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कैकुबाद के रूप में दिल्ली सल्तनत को अच्छा शासक मिलने की आशा थी किंतु तख्त पर बैठते ही उसे दुष्ट लोगों ने घेर लिया जिससे वह समस्त शिक्षाओं को भूलकर भोग-विलास में लिप्त हो गया। उसके दरबारियों ने उसका अनुसरण करना आरम्भ किया। भोग-विलास में संलग्न रहने के कारण सुल्तान ने शासन की बागडोर कोतवाल फखरूद्दीन के भतीजे मलिक निजामुद्दीन के हाथों में सौंप दी जो फखरूद्दीन का दामाद भी था। मलिक निजामुद्दीन ने सुल्तान को हर तरह से कमजोर कर दिया।
मलिक निजामुद्दीन अत्यंत दुष्ट प्रकृति का स्वामी था, उसने सत्ता हाथों में आते ही, कैखुसरो को जहर देकर मार डाला जिसे बलबन ने दिल्ली सल्तनत का भावी सुल्तान नियुक्त किया था। जब सल्तनत के प्रमुख वजीर खतीर ने निजामुद्दीन का विरोध किया तो निजामुद्दीन ने वजीर को भी जहर देकर मरवा दिया। जब बंगाल में रह रहे बुगरा खाँ को अपने पुत्र कैकुबाद के दुराचरण के समाचार मिले तो वह अपने पुत्र को दुष्ट निजामुद्दीन से बचाने के लिये एक सेना लेकर दिल्ली के लिये रवाना हुआ। इस पर मलिक निजामुद्दीन ने सुल्तान कैकुबाद को उकसाया कि वह भी सेना लेकर अपने पिता का मार्ग रोके क्योंकि उसकी नीयत ठीक नहीं है।
कैकुबाद दुष्ट निजामुद्दीन की बातों में आ गया तथा सेना लेकर आगे बढ़ा। जब बुगरा खाँ को पता लगा कि कैकूबाद युद्ध करने की नीयत से आ रहा है तो बुगरा खाँ ने अपने पुत्र सुल्तान कैकुबाद को संदेश भिजवाया कि वह युद्ध नहीं करना चाहता है, वह तो अपने सुल्तान से मिलना चाहता है। इस समय तक कैकुबाद अयोध्या तक पहुंच चुका था। उसने मलिक निजामुद्दीन से सलाह मांगी कि क्या करना चाहिए!
इस पर निजामुद्दीन ने कैकुबाद को सलाह दी कि वह बुगरा खाँ को संदेश भिजवाए कि यदि बुगरा खाँ, सुल्तान से मिलने के लिए आना चाहता है तो उसे भी सुल्तान के समक्ष वैसे ही जमींपोशी करनी होगी, जैसे अन्य अमीर करते हैं। मलिक निजामुद्दीन की योजना थी कि बुगरा खाँ इस शर्त को मानने से इन्कार कर देगा किंतु बुगरा खाँ अनुभवी व्यक्ति था। उसने अपने पुत्र की इस शर्त को स्वीकार कर लिया। इस पर कैकुबाद के समक्ष और कोई उपाय नहीं रहा कि वह अपने पिता बुगरा खाँ से मिले।
जब बुगरा खाँ सुल्तान के समक्ष उपस्थित हुआ तो बुगरा खाँ ने अन्य अमीरों की तरह धरती पर माथा रगड़कर सुल्तान की जमींपोशी की तथा सुल्तान के पैर पकड़कर उसकी पैबोशी की। यह देखकर कैकुबाद ग्लानि से भर गया। वह तख्त से उतरकर अपने पिता के चरणों में गिर गया और रोने लगा। बुगरा खाँ ने उसे भोग-विलास से दूर रहने के लिये कहा तथा भोग-विलास के दुष्परिणामों के बारे में समझाया। बुगरा खाँ ने उसे यह सलाह भी दी कि वह मलिक निजामुद्दीन को उसके पद से हटा दे। कैकुबाद ने पिता की इन सारी सलाहों को मान लिया। बुगरा खाँ ने मलिक निजामुद्दीन की हत्या करवाकर उससे मुक्ति पा ली। इसके बाद बुगरा खाँ बंगाल चला गया। पिता के चले जाने के बाद कैकुबाद दिल्ली आ गया और फिर से भोग-विलास में डूब गया। इसके बाद मलिक कच्छन और मलिक सुर्खा नामक तुर्की अमीरों ने शासन पर वर्चस्व स्थापित कर लिया।
इस पर सुल्तान कैकुबाद ने मंगोलों के विरुद्ध लगातार युद्ध जीत रहे अपने सेनापति जलालुद्दीन खिलजी को दिल्ली बुलवाकर उसे आरिज-ए-मुमालिक अर्थात् सेना का निरीक्षक नियुक्त किया तथा उसे शाइस्ता खाँ की उपाधि दी। तुर्की अमीरों को सुल्तान का यह निर्णय अच्छा नहीं लगा क्योंकि वे खिलजियों को तुर्क नहीं मानते थे। इस नियुक्ति के कुछ दिनों बाद अत्यधिक शराब के सेवन से कैकुबाद को लकवा मार गया। इस पर तुर्की अमीरों ने उसके अल्पवयस्क पुत्र क्यूमर्स को गद्दी पर बैठा दिया। इस प्रकार कैकुबाद ई.1287 से 1290 तक ही शासन कर सका।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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