जब हुमायूँ किबचाक के युद्ध में कामरान को चकमा देकर जीवित ही निकल गया तब कामरान ने हुमायूँ के पक्ष के अमीरों को मारकर काबुल के लिए प्रस्थान किया तथा यह अफवाह फैला दी कि हुमायूँ मर गया है। जो लोग हुमायूँ की मृत्यु हो जाने की बात पर विश्वास नहीं करते थे, उन्हें हुमायूँ का जिब्बा दिखाया जाता था।
लोगों को हुमायूँ की मृत्यु का विश्वास हो जाए, इसके लिए कामरान ने अपने अमीरों तथा जनता के प्रभावशाली लोगों को दावतें खिलाईं। कामरान ने काबुल के रक्षक कासिम खाँ बरलास को भी हुमायूँ का जिब्बा दिखाकर काबुल दुर्ग तथा नगर पर अधिकार कर लिया और हुमायूँ के पूरे परिवार को बंदी बना लिया। हुमायूँ के अल्पवय पुत्र अकबर को भी बंदीगृह में डाल दिया गया।
यह सारा खेल दुष्ट कराचः खाँ द्वारा रचा गया था जो कभी हुमायूँ का विश्वसनीय था और गद्दारी करके कामरान की तरफ भाग गया था। पाठकों को स्मरण होगा कि हुमायूँ द्वारा टालिकान विजय किए जाने के बाद कराचः खाँ को गले में तलवार लटकाकर हुमायूँ के समक्ष प्रस्तुत किया गया था किंतु हुमायूँ ने उसे क्षमा करके पुनः अपनी सेवा में रख लिया था। इस पर भी कराचः खाँ के हृदय से दुष्टता समाप्त नहीं हुई थी और उसने एक बार फिर से गद्दारी करके हुमायूँ को नष्ट करने का गहरा षड़यंत्र रचा और काबुल पर कामरान का अधिकार करवा दिया।
अब जबकि कामरान काबुल का शासक था और हुमायूँ जंगलों में गायब था, कराचः खाँ ही काबुल का सारा प्रबंध देखने लगा। कासिम खाँ बरलास को उसका सहायक नियुक्त किया गया। हुमायूँ के दीवान ख्वाजा अली को भी बंदी बना लिया गया। काबुल नगर में जिस किसी ने हुमायूँ के पक्ष में आवाज उठाई, उसे रस्सियों से जकड़कर जेल में ठूंस दिया गया। हुमायूँ के पक्ष के अमीरों के परिवारों पर एक बार फिर से पहले की ही तरह जुल्म किए गए।
जब कामरान को काबुल पर अधिकार किए हुए तीन महीने बीत गए, तब कामरान को हुमायूँ के जीवित होने का समाचार मिला। इस समाचार को सुनकर कामरान कांप उठा। कुछ दिनों बाद उसे समाचार मिले कि मिर्जा हुमायूं, मिर्जा हिंदाल, मिर्जा सुलेमान तथा मिर्जा इब्राहीम एक सेना के साथ काबुल की तरफ बढ़ रहे हैं। मिर्जा कामरान भी सतर्क होकर बैठ गया।
उधर हुमायूँ ने अंदराब में रुककर अपनी सेना को व्यवस्थित किया तथा हिन्दूकोह नामक पहाड़ियों के रास्ते काबुल की तरफ बढ़ने लगा। एक दिन हुमायूँ ने अपने अमीरों और सेनापतियों को एकत्रित करके उनसे कहा कि वे सब शपथ लेकर कहें कि वे युद्ध के समय मुझे धोखा नहीं देंगे तथा शरीर में प्राण रहने तक युद्ध-क्षेत्र नहीं छोड़ेंगे। इस पर हाजी मुहम्मद खान कोकी नामक एक अमीर ने बादशाह से कहा कि हम तो यह शपथ ले लेंगे किंतु इस बार आपको भी एक शपथ लेनी होगी। कोकी की यह बात सुनकर बादशाह चौंक गया। बादशाह ने पूछा कि मुझे कौनसी शपथ लेनी है?
इस पर कोकी ने कहा कि आपको यह शपथ लेनी होगी कि आपके स्वामिभक्त अमीर आपको जो सलाह दें, आप उस पर अमल करेंगे। हुमायूँ यह शपथ लेने को तैयार हो गया किंतु मिर्जा हिंदाल ने इस शपथ का विरोध किया और कहा कि यह बादशाह की मर्जी पर है कि वह अपने अमीरों की किस सलाह पर अमल करे और किस पर नहीं।
मिर्जा हिंदाल की आपत्ति सुनने के बाद हुमायूँ ने कहा कि हम हाजी मुहम्मद कोकी की सलाह के अनुसार काम करेंगे। वे जो भी सलाह देना चाहें, स्वतंत्र हैं। जब हुमायूँ की सेना काबुल से थोड़ी ही दूरी पर रह गई तो हुमायूँ ने कामरान को संदेश भिजवाया कि इस प्रकार बार-बार मेरा विरोध करना और शांति तथा एकता का मार्ग छोड़़ना अच्छी बात नहीं है। तुम्हें चाहिए कि तुम हिन्दुस्तान पर विजय प्राप्त करने में हमारा साथ दो।
कामरान ने बादशाह के प्रस्ताव के उत्तर में कहलवाया कि यदि बादशाह कांधार जाकर रहे तथा काबुल मेरे अधिकार में रहने दे तो मैं बादशाह का सहयोग करने के लिए तैयार हूँ। हुमायूँ ने कामरान के इस प्रस्ताव के जवाब में एक नया प्रस्ताव भिजवाया कि यदि कामरान अपनी पुत्री का विवाह मेरे पुत्र अकबर के साथ कर दे तो काबुल नवदम्पत्ति को दे दिया जाएगा तथा मैं और कामरान अफगानिस्तान छोड़कर भारत विजय के लिए प्रस्थान करेंगे।
कामरान इस प्रस्ताव को स्वीकार करने के लिए तैयार हो गया किंतु कराचः खाँ को लगा कि यदि कामरान तथा हुमायूँ के बीच समझौता हो गया तो हुमायूँ कराचः खाँ का सिर काटे बिना नहीं रहेगा। इसलिए कराचः खाँ ने हुमायूँ के इस प्रस्ताव का विरोध करते हुए कामरान से कहा कि हम किसी भी कीमत पर काबुल नहीं छोड़ सकते क्योंकि काबुल के लिए हमारे सिर दांव पर लगे हुए हैं। इसलिए कामरान ने हुमायूँ के प्रस्ताव का जवाब नहीं भिजवाया।
इस पर हुमायूँ की सेना ने काबुल दुर्ग पर हमला कर दिया। कुछ दिनों की लड़ाई के बाद कामरान की सेना को काबुल दुर्ग के दरवाजे खोलकर लड़ने के लिए आना पड़ा। दुर्ग के दरवाजे खुलते ही कामरान के पक्ष के बहुत से लोग कामरान का पक्ष छोड़कर बादशाह की तरफ भाग आए। वस्तुतः ये वे लोग थे जो परिस्थिति-वश कामरान की तरफ रह गए थे।
हुमायूँ के सैनिकों ने कराचः खाँ का सिर काट डाला और उसे हुमायूँ के सम्मुख प्रस्तुत किया। हुमायूँ ने आदेश दिया कि कराचः खाँ के सिर को काबुल के लौहद्वार पर टांग दिया जाए। कराचः खाँ के मर जाने से हुमायूँ के जीवन का एक बड़ा कांटा हमेशा के लिए निकल गया। कामरान भी युद्ध में नहीं टिक सका और वह युद्ध के मैदान से भाग निकला।
कामरान बादयाज की घाटी से होता हुआ काबुल से दूर चला गया। उसने अपने बाल मुण्डवा लिए तथा दरवेशों का वेश धरकर अफगान कबीलों की शरण में चल गया। उस समय कामरान के पास केवल आठ विश्वस्त सेवक थे। एक मुगल शहजादे का अफगानों की शरण में जाना मुगलों के लिए बहुत ही लज्जाजनक बात थी किंतु कामरान के पास अपनी जान बचाने का केवल यही एक उपाय बचा था।
मिर्जा कामरान काबुल से बाहर निकलते समय मिर्जा हुमायूँ के पुत्र अकबर को अपने साथ ले गया किंतु अकबर मार्ग में ही छूट गया तथा हुमायूँ की सेना द्वारा प्राप्त कर लिया गया। जब अकबर को हुमायूँ के समक्ष प्रस्तुत किया गया तो हुमायूँ को बड़ी प्रसन्नता हुई। हुमायूँ की सेना ने कामरान के पक्ष के अमीरों और बेगों का पीछा किया तथा उन्हें पकड़कर मारना आरम्भ किया। मिर्जा अस्करी पहाड़ों में छिपकर भागता हुआ पकड़ा गया।
हुमायूँ के सैनिकों ने युद्ध-क्षेत्र के निकट से दो ऊंटों को पकड़ा जिन पर लोहे के बड़े बक्से लदे हुए थे। ये ऊंट हुमायूँ के समक्ष प्रस्तुत किए गए। जब इन ऊंटों पर लदे हुए बक्सों को खोला गया तब उनमें से वही पुस्तकें निकलीं जिन्हें हुमायूँ के आदमियों ने किबचाक के युद्ध में खो दिया था। इन पुस्तकों के मिलने से हुमायूँ को जितनी प्रसन्नता हुई, उतनी तो उसे काबुल फिर से मिल जाने पर भी नहीं हुई थी।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता