– ‘हुजूर! महाराणा अमरसिंह का चारण आपकी सेवा में हाजिर हुआ चाहता है।’ पहरेदार ने खानखाना को सूचना दी।
– ‘उसे यहीं ले आ।’ खानखाना ने आज्ञा दी।
चारण मुजरा करके चुपचाप खड़ा हो गया। खानखाना उस समय कुछ लिख रहा था। इसलिये वह मुजरा स्वीकार करके फिर से अपने काम में लग गया। खानखाना को व्यस्त देखकर चारण चुपचाप खड़ा रह गया। जब चारण काफी देर तक नहीं बोला तो खानखाना ने चारण की तरफ देखा चारण ने फिर से मुजरा कर दिया किंतु बोला कुछ नहीं।
खानखाना ने फिर से मुजरा स्वीकार किया और अपने काम में लग गया। तीसरी बार फिर यही हुआ। जब खानखाना ने सिर ऊपर उठाया तो चारण ने फिर से मुजरा कर दिया।
– ‘अरे कमबख्त बोलता क्यों नहीं? क्या महाराणा ने मुजरे दिखाने के लिये भेजा है?’ खानखाना ने हैरान होकर पूछा।
– ‘मेरे स्वामी की आज्ञा है कि जब तक खानखाना स्वयं बोलने के लिये न कहें, मैं कुछ भी न बोलूं।’
– ‘अच्छा तो बोल। मैं तुझे बोलने की आज्ञा देता हूँ।’
– ‘हुजूर! महाराणा ने कहलवाया है-
हाड़ा कूरम राव बड़, गोखाँ जोख करंत।
कहियो खानखानाँ ने, बनचर हुआ फिरंत।।
तुबंरा सु दिल्ली गई, राठौड़ा कनवज्ज।
राणपयं पै खान ने वह दिन दीसे अज्ज।।’[1]
चारण की बात सुनकर खानखाना सोच में पड़ गया। कुछ देर बाद जब वह अपने विचारों से बाहर निकला तो उसने कहा- ‘अपने महाराणा से कहना-
धर रहसी रहसी धरम, खप जासी खुरसाण।
अमर विसंभर ऊपराँ राखो नहचो राण। ‘[2]
चारण इस महान् आत्मा को नमस्कार करके भलीभांति नतमस्त होकर चला गया।
[1] चौहान वंशीय हाड़ा, कच्छवाहे और राठौड़ महलों में विश्राम कर रहे हैं। खानखाना से कहना कि हम सिसोदिये तो वनचर हुए फिर रहे हैं। तंवरों से दिल्ली गयी, राठौड़ों से कन्नौज गया क्या खानखानाओं को राणाओं के लिये अब भी स्वतंत्रता दिखायी देती है?
[2] यह धरती रहेगी, धर्म रहेगा। खुरासान देश से आया हुआ यह बादशाह मिट जायेगा। इसलिये हे राणा अमरसिंह! विश्वंभर पर विश्वास रखो।