ई.1398-99 में किए गए तैमूर लंग के भारत अभियान के भारतीय समाज पर गहरे सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक एवं राजनीतिक प्रभाव पड़े थे। उसके इस अभियान के कारण भारत की केन्द्रीय शक्ति का पराभव हो गया।
पाठकों को स्मरण होगा कि जिन दिनों तैमूर लंग ने दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण किया था, उन दिनों दिल्ली सल्तनत पर दो सुल्तानों का शासन था। मरहूम सुल्तान फीरोजशाह तुगलक का एक पोता नासिरूद्दीन महमूद दिल्ली में अपना दरबार लगाता था तो फीरोजशाह तुगलक का एक अन्य पोता नसरत खाँ फीरोजाबाद में अपना दरबार लगाता था।
दिल्ली सल्तनत के दोनों सुल्तानों में से किसी में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह तैमूर लंग का सामना करे किंतु जब तैमूर पंजाब से सीधा दिल्ली आ धमका तो नासिरूद्दीन महमूद को तैमूर से युद्ध करना पड़ा किंतु नासिरूद्दीन महमूद हारकर गुजरात भाग गया। जब तैमूर लंग दिल्ली को तहस-नहस करके मेरठ होता हुआ हरिद्वार की तरफ चला गया तो नसरतशाह फीरोजाबाद से दिल्ली आ गया और अपना दरबार दिल्ली में लगाने लगा।
कुछ ही समय बाद दिल्ली के पुराने सुल्तान महमूद नासिरूद्दीन के मन्त्री मल्लू खाँ ने नसरतशाह को दिल्ली से मार भगाया। इस पर सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद फिर से दिल्ली लौट आया और अय्याशियों में डूब गया किंतु मल्लू खाँ ने उसे दिल्ली में नहीं टिकने दिया। इस पर नासिरूद्दीन महमूद कन्नौज चला गया और वहीं पर अपना दरबार लगाने लगा।
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ई.1405 में मल्लू इकबाल खाँ तैमूर लंग द्वारा पंजाब में नियुक्त सूबेदार खिज्र खाँ से युद्ध करता हुआ मारा गया। इस पर दिल्ली का पुराना सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद फिर से दिल्ली आ गया तथा अय्याशियों में डूब गया। इस कारण ई.1412 में दौलत खाँ नामक एक अमीर ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उसी वर्ष अर्थात् ई.1412 में सुल्तान महमूद नासिरूद्दीन की मृत्यु हो गई तथा दिल्ली के तुगलक वंश का अन्त हो गया।
तैमूर लंग द्वारा पंजाब के सूबेदार के रूप में नियुक्त खिज्र खाँ सैयद ने ई.1414 में दिल्ली पर अधिकार करके दिल्ली में एक नए शासक वंश की स्थापना की जिसे भारत के इतिहास में सैयद वंश कहा जाता है।
सैयद लोग स्वयं को पैगम्बर मुहम्मद का वंशज बताते हैं किंतु कहा जाता है कि खिज्र खाँ पैगम्बर मुहम्मद का वंशज नहीं था। उसे बुखारा के फकीर सैयद जलाल ने एक बार सैयद कहकर पुकारा था, तभी से खिज्र खाँ सैयद कहलाने लगा। ख्रिज खाँ के सैयद कहलाये जाने का एक अन्य कारण भी बताया जाता है जिसके अनुसार उसके चरित्र में सैयदों की समस्त विशेषताएँ विद्यमान थीं। वह दयालु, साहसी, विनम्र, वचनपालक तथा इस्लाम में निष्ठा रखने वाला था। ये सब गुण पैगम्बर तथा उनके वंशजों में पाये जाते हैं। इसलिए खिज्र खाँ को भी सैयद कहा गया।
चूंकि दिल्ली सल्तनत के इस नये राजवंश की स्थापना खिज्र खाँ सैयद ने की, इसलिए इस वंश का नाम सैयद वंश पड़ गया। खिज्र खाँ के परिवार के बारे में जानकारी नहीं मिलती किंतु ऐसा प्रतीत होता है कि वह बचपन में ही अपने परिवार से बिछड़ गया था इसलिए मुल्तान के गवर्नर मलिक नसीरूल्मुल्क दौलत ने उसका पालन पोषण किया था। नसीरूल्मुल्क की मृत्यु के उपरान्त खिज्र खाँ को मुल्तान का गवर्नर बनाया गया।
ई.1398 में सरग खाँ ने मुल्तान पर आक्रमण करके खिज्र खाँ को कैद कर लिया परन्तु खिज्र खाँ कैद से निकल भागा और ई.1398 में जब तैमूर लंग भारत आया तो खिज्र खाँ ने तैमूर लंग की नौकरी कर ली। जब तैमूर दिल्ली तथा उत्तर-भारत के बहुत बड़े प्रदेश को नष्ट-भ्रष्ट करके भारत से समरकंद जाने लगा तो उसने खिज्र खाँ को भारत में अपना प्रतिनिधि बनाया तथा उसे दीपालपुर तथा मुल्तान का गवर्नर बना दिया।
तैमूर के लौट जाने के बाद दिल्ली सल्तनत की दशा उत्तरोत्तर बिगड़ती चली गई। ई.1412 में जब दौलत खाँ ने दिल्ली पर अधिकार किया तब खिज्र खाँ ने दौलत खाँ पर आक्रमण कर दिया। 23 मई 1414 को खिज्र खाँ ने दौलत खाँ को मार दिया तथा स्वयं दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। उसने स्वयं को स्वतंत्र शासक घोषित नहीं किया। अपितु वह समरकंद के सुल्तान के प्रतिनिधि के रूप में दिल्ली पर शासन करने लगा।
खिज्र खाँ के दिल्ली के तख्त पर बैठते समय दिल्ली सल्तनत की स्थिति डावाँडोल थी। सल्तनत की शक्ति के समस्त आधार टूट चुके थे। सेना लगभग समाप्त हो चुकी थी। कोष रिक्त हो गया था। प्रान्तपति एक-एक करके स्वतंत्र हो रहे थे। राजधानी दिल्ली की दशा भी अस्त-व्यस्त थी। प्रबल सुल्तान के अभाव में अमीरों के दल परस्पर लड़ रहे थे।
दो-आब में विद्रोह की आग भड़क रही थी और हिन्दू-सरदार कर देना बन्द कर रहे थे। मालवा, गुजरात, नागौर तथा जौनपुर के राज्य स्वतन्त्र होकर अपने पड़ौसियों के साथ संघर्ष कर रहे थे। कुछ गवर्नर तो दिल्ली सल्तनत की सीमाओं में भी धावा बोल देते थे। मेवातियों में बड़ा असन्तोष था। उन्होंने भी दिल्ली को कर देना बन्द कर दिया था। उत्तरी सीमा पर स्थित खोखर जाति मुल्तान तथा लौहार में लूटमार कर रही थी। सरहिन्द में भी उपद्रव मचा हुआ था। इस प्रकार दिल्ली सल्तनत पूरी तरह डांवाडोल एवं छिन्न-भिन्न थी। इन्हीं परिस्थितियों में खिज्र खाँ ने दिल्ली सल्तनत का शासन अपने हाथों में लिया।
खिज्र खाँ ने सल्तनत में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने के प्रयत्न किए। उसने पंजाब को दिल्ली से मिलाकर सल्तनत को फिर से संगठित करने का कार्य आरम्भ किया। वह पंजाब तथा दो-आब के विद्रोहों को दबाने में सफल रहा। दो-आब में कटेहर का विद्रोह बड़ा भयानक था। इस विद्रोह को दबाने के लिए खिज्र खाँ को चार बार सेनाएँ भेजनी पड़ीं।
ई.1414 में खोर, कम्पिला तथा साकित के विद्रोह का बड़ी कठोरता के साथ दमन किया गया। इसके पाँच वर्ष बाद कटेहर में पुनः उपद्रव आरम्भ हो गया परन्तु यह विद्रोह भी शान्त कर दिया गया। इसके बाद खिज्र खाँ को इटावा की ओर ध्यान देना पड़ा। यहाँ पर एक राजपूत सरदार ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। विद्रोहियों को चारों ओर से घेर लिया गया और उन्हें दिल्ली सल्तनत के आधिपत्य को स्वीकार करने के लिए बाध्य किया गया।
दो-आब में शान्ति स्थापित करने के लिए कई बार सेनाएँ भेजनी पड़ीं। पंजाब में स्थायी शांति स्थापित नहीं की जा सकी। ई.1417 में मलिक तुर्कान ने सरहिन्द को घेर लिया परन्तु उसे परास्त करके दिल्ली के अधीन किया गया। इसके दो वर्ष बाद ई.1419 में सरंग खाँ ने विद्रोह का झण्डा खड़ा किया परन्तु अन्त में वह भी परास्त कर दिया गया।
ई.1421 में खिज्र खाँ मेवात के अभियान पर गया। वहाँ उसने विद्रोहियों के एक दल को नष्ट किया। इसके बाद वह ग्वालियर की ओर गया। वहाँ के हिन्दू राजा ने खिज्र खाँ सैयद को कर देने का वचन दिया। इसके बाद खिज्र खाँ दिल्ली के लिए रवाना हुआ। अभी वह मार्ग में ही था कि गंभीर रूप से बीमार पड़ गया और 20 मई 1421 को उसकी मृत्यु हो गई।
डॉ. ईश्वरी प्रसाद की मान्यता है कि जीवन में पर्याप्त विश्राम न मिलने के कारण ही सुल्तान खिज्र खाँ की इतनी जल्दी मृत्यु हो गई। फरिश्ता ने लिखा है कि वह योग्य तथा उदार शासक था किंतु उसमें चरित्र का अभाव था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता