आखिर वही हुआ जो नूरजहाँ चाहती थी, खुर्रम अपने बाप की नजरों में गिर गया। खुसरो पहले ही मर चुका था और जहाँदार वैसे भी किसी काम का न था। इस प्रकार शहरयार के बादशाह के तख्त तक पहुँचने के मार्ग में आने वाली तीन बाधायें स्वतः हट चुकी थीं। अब केवल परवेज बचा था जिसे शहरयार के हित में या तो मर जाना चाहिये था या फिर अपने दोनों भाईयों की तरह बादशाह से बगावत कर अपने बाप की नजरों से गिर जाना चाहिये था।
नूरजहाँ अब इसी कार्य में जुट गयी। उसने परवेज और महावतखाँ की सम्मिलित ताकत तोड़ने के लिये जहाँगीर से आदेश दिलवाया कि परवेज तो खानजहाँ लोदी के संरक्षण में गुजरात में रहे और महावतखाँ बंगाल चला जाये। महावतखाँ और परवेज दोनों ने ही इस आदेश को अंगीकार नहीं किया। वे दोनों ही खुर्रम की ओर से भयभीत थे इसलिये एक साथ रहना चाहते थे। इधर खानखाना भले ही बादशाह से क्षमा पाकर फिर से मिली खानखाना की उपाधि ठुकरा कर चित्रकूट चला गया था किंतु अब भी वह परवेज और महावतखाँ के लिये किसी प्रबल शत्रु से कम नहीं था।
जब महावतखाँ बंगाल नहीं गया तो नूरजहाँ ने महावतखाँ को दरबार में तलब किया। महावतखाँ यदि मुगलिया सल्तनत में आज की तारीख में किसी से डरता था तो केवल नूरजहाँ से। उसकी इतनी हिम्मत नहीं हो सकी कि वह नूरजहाँ के सामने पेश हो सके इसलिये वह चुपचाप बंगाल को खिसक गया और मन ही मन नूरजहाँ तथा उसके भाई आसिफखाँ से निबटने की योजना बनाने लगा।
जब महावतखाँ दरबार में उपस्थित नहीं हुआ तो नूरजहाँ ने महावतखाँ के समधी को बुलवाया और सरे आम पीटकर कैद में डाल दिया। उस पर यह आरोप लगाया कि उसने मामूली आदमी होने के बावजूद बिना बादशाही हुक्म के महावतखाँ जैसे बड़े आदमी की बेटी से अपने बेटे की शादी की। यह एक अजीब अभियोग था जो उससे पहले किसी और आदमी पर नहीं लगा था।
जब महावतखाँ को ये समाचार पहुँचे तो वह भड़क गया। वह बंगाल जाने की योजना अधर में छोड़कर अपने पाँच हजार जंगी राजपूत सैनिकों के साथ पंजाब को चला गया जहाँ इन दिनों जहाँगीर प्रवास कर रहा था। वह कोई कदम उठाने से पहले बादशाह से मिल लेना चाहता था।
नूरजहाँ के संकेत पर बादशाह ने महावतखाँ से रूपयों का हिसाब मांगा। जब महावतखाँ ने जो हिसाब दिया, बादशाह उससे संतुष्ट नहीं हुआ और उसने महावतखाँ के साथ कठोरता बरती। इससे कुपित होकर महावतखाँ विद्रोही हो गया और एक दिन जब बादशाह भट नदी पार कर रहा था, महावतखाँ ने अवसर पाकर अपने राजपूत सैनिकों के बल पर जहाँगीर का अपहरण कर लिया और उसे हाथी पर सवार करके अपने डेरे पर ले गया।
महावतखाँ ने अपनी ओर से सब योजना ठीक-ठाक बनायी थी किंतु एक चूक उससे हो गयी। बादशाह हाथ लगते ही उसने नूरजहाँ को छोड़ दिया जो कुछ ही दूरी पर पड़ाव डाले हुए थी। नूरजहाँ को जब इस अपहरण का समाचार लगा तो वह उल्टे पैरों नदी पार करके अपने डेरे पर चली गयी। अगले दिन वह आसिफखाँ के नेतृत्व में महावतखाँ से लड़ने के लिये आयी किंतु महावतखाँ के राजपूतों ने उसे भगा दिया। किसी तरह नदी में गोते खाती हुई वह फिर से अपने डेरे में लौट गयी। आसिफखाँ ने भाग कर अटक के किले में शरण लेनी चाही किंतु महावतखाँ ने उसे पकड़ लिया।
महावतखाँ बड़ा ही दुष्ट निकला। वह बादशाह को उसी हालत में काबुल ले गया और खानखाना को संदेश भिजवाया कि जिसने तुझे खानखाना बनाया था वह तो मेरी कैद में है जो तू वाकई में खानखाना है तो अपने बादशाह को छुड़ाकर ले जा।
महावतखाँ ने आगरे के सूबेदार को आदेश भिजवाये कि यदि बादशाह की सलामती चाहते हो तो दाराशिकोह और औरंगजेब को नजरबंद करके लाहौर ले आओ।
जब खुर्रम ने ये समाचार सुने तो उसने महावतखाँ के विरुद्ध चढ़ाई करने का मानस बनाया किंतु इस समय उसके पास मात्र पाँच सौ राजपूत सैनिक थे जो अकस्मात ही राजा भीमसिंह के बेटे किशनसिंह की मृत्यु हो जाने से बिखर गये थे। अतः अपने आप को हर तरह से निरुपाय पाकर खुर्रम ने ठठ्ठे की राह पकड़ी।