आज प्रातःकालीन अग्निहोत्र के तत्काल पश्चात् विशेष समिति का आयोजन किया गया है। इस अवसर पर निकटवर्ती आर्य जनों से भी अतिथियों को आमंत्रित किया गया है। देवों के निमित्त अग्नि में पूर्णाहुति देने के बाद ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा अपने आसन से उठ खड़े हुए। उनके सुदीर्ध श्वेत श्मश्रु शीतल, मंद और सुगंधित वायु में लहराने लगे। उन्होंने अपने समक्ष बैठे आर्य स्त्री-पुरुषों पर दृष्टिपात किया और गहन-गंभीर वाणी में आर्य सुरथ को सम्बोधित करके कहने लगे- ‘आर्य सुरथ! जिस प्रकार देवों ने अपनी रक्षा के निमित्त इन्द्र को अपना राजा स्वीकार किया था उसी प्रकार ‘तृत्सु-जन’ अपनी रक्षा के लिये आपको अपना जनपति बनाना चाहता हैं। जनपति उसी को बनाया जाना चाहिये जो जनपति होने के योग्य हो। गोप के रूप में आपने जन को श्रेष्ठ सेवायें दी हैं। आप हर तरह से जनपति होने के योग्य हैं। क्या आप जनपति बनना स्वीकार करते हैं ?’
– ‘हाँ ऋषिश्रेष्ठ! यदि ‘तृत्सु-जन की प्रजा मेरे अधीन होना चाहती है तो मैं प्रजा के हित के लिये जनपति बनना स्वीकार करता हूँ।’
– ‘आपके अधीन होने से पहले प्रजा आपसे कुछ प्रश्नों के उत्तर जानना चाहती है।’
– ‘मैं प्रजा के प्रश्नों का उत्तर देने के लिये प्रस्तुत हूँ ऋषिश्रेष्ठ।’
– ‘आर्य! प्रजा जानना चाहती है कि जब प्रजा आपके अधीन हो जायेगी तब क्या आप प्रजापति बनकर उसी प्रकार अपनी प्रजा का रक्षण, पालन और पोषण करेंगे जिस प्रकार माता अपनी संतान का रक्षण, पालन और पोषण करती है ?’
– ‘हाँ ऋषिवर! यदि प्रजा हृदय से मेरी अधीनता स्वीकार करती है तो मैं उसी प्रकार प्रजा का रक्षण, पालन और पोषण करूंगा जिस प्रकार माता अपनी संतान का रक्षण, पालन और पोषण करती है।’ गोप सुरथ ने शांत स्वर में उत्तर दिया।
– ‘वत्स! प्रजा आपसे वचन चाहती है कि आप सदैव व्यक्तिगत स्वार्थ को त्यागकर प्रजा के हित में अपने आप को समर्पित करेंगे। प्रजा का हित ही आपका सर्वोपरि धर्म होगा।’
– ‘ऋषिश्रेष्ठ! प्रजा को ऐसे वीर पुरुष के आदेशों का पालन करना चाहिये जो शर-बाण हाथ में लेकर आदेश दे तथा मन, शक्ति एवं वाणी से प्रजा का पालन करे। [1] यदि प्रजा मेरे आदेशों का पालन करने को तत्पर है तो मैं वचन देता हूँ कि मैं अपने स्वार्थ को त्यागकर प्रजा का पालन करूंगा। प्रजा का हित ही मेरा सर्वोपरि धर्म होगा।’
– ‘पुत्र! प्रजा मेरे माध्यम से आपको यह कहना चाहती है कि यदि आपके अधीन रहकर प्रजा दुःखी रहेगी तो आप नर्क के अधिकारी होंगे।’
– ‘ऋषिवर! मैं विश्वास दिलाता हूँ कि मैं यथाशक्ति प्रजा को सुखी करने का उपाय करूँगा। यदि मेरे प्रमाद के कारण प्रजा दुखी होती है तो अग्नि मुझे नर्क प्रदान करे।’
– ‘हे वीर! प्रजा यदि आपके प्रमाद के कारण पापाचार की तरफ प्रवृत्त होती है तो आप भी उस पापाचार के भागी होंगे और यदि आपकी अनुगत होकर प्रजा शुभ आचरण की ओर प्रवृत्त होती है तो प्रजा के मंगल आपको भी प्राप्त होंगे। इसी प्रकार आपके सुकृत्य और कुकृत्य स्वतः ही प्रजा को प्राप्त हो जायेंगे।’
– ‘ऋषिश्रेष्ठ! मैं सदैव सुकृत्य करके प्रजा को शुभ आचरण की ओर प्रवृत्त करने का प्रयास करूंगा।’
– ‘आर्य सुरथ! प्रजापति बनकर आप निरंकुश आचरण नहीं करेंगे। समिति की सम्मति से ही आप प्रजा का अनुशासन करेंगे।’
– ‘मैं प्रजा के अनुशासन में रह कर ही प्रजा का अनुशासन करूंगा।’
– ‘उचित है आर्य! हम समिति में आपको जन के प्रजापति का उच्च स्थान देते हैं। आज से आप इस जन के प्रजापति हैं। ‘तृत्सु-जन’ के समस्त परिवार, कुल, गा्रम और विश आपकी प्रजा होने के कारण आपके अधीन हैं। जन आपको राजन् कहकर सम्बोधित करेगा।’
ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा की घोषणा के साथ ही आर्यवीरों ने शंख और सिंही से मंगल ध्वनि उत्पन्न की। प्रजा ने राजन् सुरथ की जय-जयकार की। बड़ी संख्या में घण्ट, घड़ियाल और नगाड़े बजने लगे। मंगलमय तुमुल नाद से चारों दिशायें व्याप्त हो गयीं। ऋषिवर पर्जन्य ने आगे बढ़कर राजन् सुरथ के भाल पर रक्तचंदन का तिलक अंकित किया। आर्य ललनाओं ने राजन् सुरथ पर पुष्पवर्षा की।
मंगल ध्वनि के विराम पा जाने के पश्चात् राजन् सुरथ प्रजा को सम्बोधित करने के लिये उठ खड़े हुए। ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा एवं समस्त ऋषियों को प्रणाम करने के पश्चात् उन्होंने प्रजा की ओर अभिवान की मुद्रा में शीश झुकाया। राजन् सुरथ के मुखमण्डल पर इस समय दिव्य ओज विराजमान था। उन्होने एक दृष्टि समक्ष उपस्थित आर्य जन पर डाली और कहा- ‘मैं वैवस्वत मनुपुत्र सुरथ, आर्य प्रजा के कल्याण के लिये और आर्य जनपदों को संगठित करने के लिये जनपति अर्थात् ‘राजन्’ होना स्वीकार करता हूँ। आप सबकी समिति [2] से मैं जन की शक्ति को संगठित करने के लिये कुछ निवेदन करना चाहता हूँ। मैं ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा से प्रार्थना करता हूँ कि वे जन का पुरोहित होना स्वीकार करें। पुरोहित होने के नाते उनका कत्र्तव्य होगा कि वे जन तथा जनपति के कल्याण के निमित्त यज्ञ आदि शुभ कर्मों का संपादन करें और करवायें। शांति काल में वे जन तथा जनपति दोनों का मार्ग दर्शन करें तथा उन्हें सदाचरण के लिये प्रेरित करें। युद्ध का अवसर उपस्थित होने पर वे युद्ध भूमि में रहकर देवों को संतुष्ट करें तथा जन तथा जनपति की सफलता के लिये दैवीय सहायता प्राप्त करें।’
– ‘राजन्! जन तथा जनपति के कल्याण के लिये मैं पुरोहित होना स्वीकार करता हूँ।’ ऋषिश्रेष्ठ सौम्यश्रवा ने स्वीकरोक्ति प्रदान की।
– ‘मैं जन की शक्ति के विस्तार के लिये आर्य सुनील को जन का ‘सेनप’ नियुक्त करता हूँ। सेनापति होने के नाते उनका कत्र्तव्य होगा कि वे आर्य वीरों को युद्धकौशल प्रदान करें। वे राजन् के अनुशासन में रहकर शत्रुओं से जन का रक्षण करें।’
– ‘मैं जन के रक्षण हेतु राजन् सुरथ का अनुशासन स्वीकार करता हूँ।’ आर्य सुनील ने स्वीकृति प्रदान की।
– ‘राजन् की सहायता के लिये ग्राम का अनुशासन करने वाले-ग्रामणी, रथ हाँकने वाले-सूत, रथ बनाने वाले-रथकार और काष्ठ, मृदा, प्रस्तर, ताम्र, कांस्य तथा लौह आदि सामग्री से विभिन्न वस्तुएं बनाने वाले-कर्मार को जन का ‘रत्नी’ नियुक्त किया जाता है। समस्त रत्नी राजन् के आदेश प्राप्त होने पर तत्काल उपस्थित होंगे। ग्रामणी जब राजन् के समक्ष उपस्थित होगा तो वह प्रजा का प्रतिनिधित्व करेगा। वह प्रजा की आवश्यकतायें और समस्याएं राजन् के समक्ष रखेगा और जब वह प्रजा के मध्य होगा, तब वह राजन् के प्रतिनिधि के रूप में कार्य करेगा। प्रजा तक राजाज्ञा पहुँचाने का कार्य ग्रामणी ही करेगा।’
समिति में उपस्थित समस्त ग्रामणी, सूत, रथकार और कर्मारों ने जन के हित के लिये राजन् का ‘रत्नी’ हो जाना स्वीकार कर लिया। क्षण भर विराम देकर राजन् सुरथ ने फिर से अपना उद्बोधन आरंभ किया- ‘असुरों के विरुद्ध सैन्य अभियानों का संचालन सुचारू रूप से करने तथा जन को विस्तार देकर जनपद का निर्माण करने के लिये हमें कुछ नवीन कर्मारों की आवश्यकता होगी। इसके लिये हमें पुरप, [3] स्पश [4] और दूत नियुक्त करने होंगे। असुरों के विरुद्ध युद्ध अभियान के समय जन को सुरक्षित रखने का कार्य ‘पुरप’ का होगा। असुरों की गतिविधियों का समय रहते पता लगाकर राजन् को सूचित करने का कार्य ‘स्पश’ का होगा। युद्ध काल उपस्थित होने पर राजन्, जन और सैन्य के बीच संवाद एवं सूचनाओं का आदान प्रदान करने तथा शत्रु के साथ संधि-विग्रह के संदेश पहुँचाने का कार्य ‘दूत’ द्वारा किया जायेगा।’
अपनी बात पूरी करने से पूर्व राजन् सुरथ कुछ क्षण के लिये रुके और स्त्रियों की ओर दृष्टिपात करके बोले- ‘एक बात और है जो विशेष रूप से मैं इस अवसर पर आर्य ललनाओं से कहना चाहता हूँ,। दीर्घ काल से मैं यह अनुभव कर रहा हूँ कि आर्य ललनायें शिशुओं के पालन-पोषण एवं गौरस आदि के कार्य में संलग्न रहने के कारण सभा एवं समितियों से विमुख रहने लगी हैं। यह प्रवृत्ति उचित नहीं है। स्वायंभू प्रजापति वैवस्वत मनु ने स्त्री और पुरुष दोनों को प्रजा का एक-एक नेत्र बताया है। यह निश्चित है कि जिस प्रजा का एक नेत्र अंधकार में हो, वह प्रजा उन्नति के स्थान पर अवनति के मार्ग पर चल पड़ती है। स्त्रियों को गुहाचरंति [5] की प्रवृत्ति न अपना कर सभावती [6] ही बने रहना होगा। आर्य प्रजा के कल्याण के लिये यह अत्यंत आवश्यक है।’
– ‘हे जितेन्द्रिय नायक! तेजस्वी पुरुष! आप दुष्ट लोगों का नाश करने वाले बनें। सूर्य के समान तेजस्वी बनें। प्रजाजनों से मधुर वचन बोलने वाले बनें। आप लक्ष्य संधान कर हमारे अबंधुओं को, हमारे विपरीत चलने वालों को तथा हमारा नाश करने को तत्पर शत्रुओं को दबा दें।’[7] पुरोहित सौम्यश्रवा ने खड़े होकर राजन को आशीर्वाद दिया।
[1] मनो न येषु हवनेषु तिग्मं विपः शच्या वनुथो द्रवन्ता। आ यः शर्याभिस्तुविनृम्णो अस्याश्रीणीतादिशं गभस्तौ। (ऋ. 10. 61. 4)
[2] आगे चलकर यह शब्द सम्मति में बदल गया।
[3] आगे चलकर यह पद दुर्गपति में बदल गया।
[4] गुप्तचर, अंग्रेजी भाषा के स्पाई शब्द की उत्पत्ति इसी शब्द से हुई है।
[5] गुफा में रहने वाली।
[6] सभा में भाग लेने वाली।
[7] अयमग्निर्वध्रश्वस्य वृत्रहा सनकात्प्रेद्धो नमसोपवाक्यः। स नो अजामीँरुत वा विजामीनभि तिष्ठ शर्धतो वाध्यश्व।। (ऋ. 10 . 69. 12/20)