जब हुमायूँ दिल्ली को प्रस्थान कर गया तो सिकंदर सूर ने पहाड़ों से निकल कर फिर से मानकोट के किले पर अधिकार कर लिया। बैरामखाँ उसे कुचलने के लिये दिल्ली से पुनः कालानौर आया। तेरह वर्ष का अकबर सैनिक प्रशिक्षण प्राप्त करने की मंशा से उसके साथ था। इस बार सिकन्दर सूर दुर्ग में था और बैरामखाँ खुले मैदान में। इसलिये युद्ध का स्वरूप पूरी तरह बदला हुआ था। फिर भी बैरामखाँ ने मानकोट के चारों ओर कड़ा शिकंजा कस रखा था और ऐसा लगता था कि कुछ ही दिनों में किला हाथ लग जायेगा लकिन उन्हीं दिनों दिल्ली से खबर आई कि 26 जनवरी 1556 को बादशाह हुमायूँ सीढ़ियों से गिर कर मर गया।
हुमायूँ का अर्थ होता है भाग्यशाली किंतु मुगल बादशाहों में वह सबसे अधिक दुर्भाग्यशाली था। जैसे ही उसकी लोथ सीढ़ियों से नीचे गिरी, सरदारों ने एक आदमी को हुमायूँ के कपड़े पहना दिये और ऐसा प्रदर्शित किया मानो हुमायूँ मरा नहीं है। उन्हें भय था कि दिल्ली में यदि सिकंदर सूर के आदमियों को हुमायूँ की मौत का पता लग गया तो वे बगावत कर देंगे और दिल्ली उनके हाथ से निकल जायेगी।
दिल्ली से तुरंत विश्वसनीय गुप्तचरों को कालानौर के लिये रवाना किया गया ताकि वे बैरामखाँ को सूचित कर सकें। बैरामखाँ के सामने विकट स्थिति उत्पन्न हो गयी। क्या करे और क्या नहीं करे! यदि इस समय वह अकबर को लेकर दिल्ली के लिये रवाना हो जाता है तो सिकन्दर सूर उसके पीछे दिल्ली तक चढ़ आयेगा और यदि वह दुर्ग का घेरा बनाये रखता है तो दिल्ली में कोई भी षड़यंत्र हो सकता है।
बहुत सोच-विचार के बाद बैरामखाँ ने निर्णय लिया कि प्रबल शत्रु का सिर पूरी तरह कुचले बिना दिल्ली चले जाने में कोई बुद्धिमानी नहीं है। उसने उसी समय ईंटों का एक बड़ा चबूतरा बनवाया और उस पर तेरह साल के अकबर को बैठाकर उसे हिन्दुस्थान का बादशाह घोषित कर दिया।
हुमायूँ के प्रमुख और विश्वसनीय अमीर अब्दुलमाली ने बैरामखाँ के इस कदम का विरोध किया और दरबार में शामिल होने से मना कर दिया। अब्दुलमाली एक सनकी आदमी था जो बहुत रोचक बातें किया करता था। हुमायूँ उसे अपना दोस्त मानता था जिससे अब्दुलमाली का दिमाग सातवें आसमान पर चढ़ा हुआ रहता था। हुमायूँ का वरद हस्त होने के कारण अब्दुलमाली जब चाहे, जिसे चाहे, जो चाहे, कहता फिरता था। जब बैरामखाँ ने उसे अकबर के सामने हाजिर होकर मुजरा करने को कहा तो अब्दुलमाली ने बैरामखाँ से बदतमीजी की और मुजरा करने से मना कर दिया।
अब्दुलमाली अब तक हुमायूँ के संरक्षण में सुरक्षित रहा था। वह नहीं जानता था कि बैरामखाँ किस मिट्टी का बना हुआ है। बैरामखाँ ने तुरंत तलवार निकाल कर अब्दुलमाली की छाती पर अड़ा दी और गिरफ्तार कर लिया। जब तक यह बात अकबर को मालूम होती तब तक बैरामखाँ के आदमी अब्दुलमाली को लेकर लाहौर जाने वाला आधा रास्ता तय कर चुके थे। बैरामखाँ के आदेश पर अब्दुलमाली को लाहौर दुर्ग में कैद करके रखा गया। वह कब और किन परिस्थितियों में मरा, कोई नहीं जानता।
जब यह सूचना अकबर के सौतेले भाई हकीमखाँ तक पहुंची कि उसका बाप हुमायूँ मर गया है और बैरामखाँ ने अब्दुलमाली को गिरफ्तार करके अकबर को हिन्दुस्थान का बादशाह घोषित कर दिया है तो हकीमखाँ ने अपने आप को अकबर से स्वतंत्र करके काबुल का बादशाह घोषित कर दिया।
हुमायूँ को इतिहासकारों ने शतरंज का बादशाह कहा है किंतु जिस समय अकबर बादशाह बना, उस समय उसकी स्थिति शतरंज के बादशाह जैसी भी नहीं थी। मिट्टी और ईंटों के चबूतरे पर बैठे हुए उस अनाथ बालक को बादशाह घोषित करके बैरामखाँ ने सबसे पहले मुजरा किया और सोने के इतने सिक्के नजर किये जिनसे अकबर अपने अमीरों और मुजरा करने वालों को बख्शीश दे सके। बैरामखाँ के अलावा किसी और सिपहसलार या सिपाही के पास ऐसा कुछ नहीं था जो बादशाह की नजर किया जा सके।
कहने को अकबर अब हिन्दुस्थान का बादशाह था किंतु उसके अधिकार में केवल दिल्ली और आगरा के ही सूबे थे। उन पर भी उसका अधिकार अमीरों की दया पर निर्भर करता था। सच पूछो तो मिट्टी और ईंटों के उस कच्चे चबूतरे पर भी उसका वास्तविक अधिकार नहीं था जिस पर कि उसका राज्यतिलक हुआ था। यदि उसे पैर टिकाने या सिर छिपाने के लिये कहीं जगह थी तो केवल सरहिंद के उस सूबे में जो बैरामखाँ के अधिकार में था।